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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

त्रिदोष.

त्रिदोष.
पितं पग्ङुः कफः पग्ङुः पग्ङःवो मलधातवः।
वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेघवत्।।
अर्थात् पित पंगु ;परतन्त्रद्ध हैए कफ पंगु हैंए मल और धातु भी पंगु हैं। इनकोे वायु जहाँ ले जाता हैए वहीं यें बादल के समान चले जाते हैं। ये वायु के अधीन हैं।
तीनों दोषों में वात ;वायुद्ध ही बलवान् हैए क्योकि वह शरीर के सभी अवयवों का विभाग करता है। वह रजोगुण.युक्त हैए सूक्ष्मएशीतएरूक्षएलघु ;हल्काद्ध है और चल ;गतिशीलद्ध है। वह मलाशयए अग्न्याशयएहदयएकण्ठ ;निकटता होने से फुफफुसतकमेंद्ध तथा समस्त शरीर में विचरता रहता है। अतएव वायु के पाँच भेद माने जाते है और इन स्थानो में विचरण करने वाले होने के कारण वायु के क्रमशः पाँच नाम है. 1 प्राण 2 अपान 3 समान 4 उदान और 5 व्यान। यदि ये पाँचों वायु अपनी स्वाभाविक अवस्था में रहें और अपने.अपने स्थान में वर्तमान रहें तो अपने.अपने कार्यों को सम्पन्न करते हैं और इन पाँचों के द्वारा रोग रहितए इस शरीर का धारण होता है।

बुधवार, 6 नवंबर 2013

कमला स्तोत्र

लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं कमला स्तोत्र पाठ से
ऋषि अगस्त्यकृत माँ कमला स्तोत्र अत्यधिक चामत्कारिक हैं। इसमें माँ लक्ष्मी की विशेष उपासना की गयी हैं। प्रस्तुत लेख में इसे संस्कृत और हिन्दी दोनों रूपों में दिया जा रहा हैं। इस स्तोत्र का पाठ करने से लक्ष्मीजी की विशेष कृपा प्राप्त होगी। कमला स्तोत्र इस प्रकार है:-
    मातर्नमामि कमले कमलायताक्षि
   श्रीविष्णुहत्कमलवासिनि विश्वमात्ः।
   क्षीरोदजे कमलकोमलगर्भगौरि
   लक्ष्मी प्रसीद सततं नमतां शरण्ये।।
श्री अगस्त्य ऋषि बोले कि कमल के समान विशाल नेत्रों वाली माता लक्ष्मी! मै आपको प्रणाम करता हूँ। आप भगवान विष्णु के हदय कमल में निवास करने वाली तथा समस्त संसार की जननी हैं। कमल के कोमल गर्भ के सदृश गौर वर्ण वाली क्षीरसागर की पुत्री महालक्ष्मी! आप अपनी शरण में आये हुए भक्तजनों का पालन करने वाली हैं। आप सदा मुझ पर प्रसन्न हों।।1।।
      त्वं श्रीरूपेप्द्रसदने मदनैकमात-
      ज्र्योत्स्नासि चन्द्रमसि चन्द्रमनोहरास्ये।
     सूर्ये प्रभासि च जगत्रितयें प्रभासि
     लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये।।2।।
प्रद्युम्न की एकमात्र जननी रूक्मिणीरूपधारिणी माता! आप भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में ‘श्री’ नाम से प्रसिद्ध हैं। चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाली देवी! आप ही चन्द्रमा में चाँदनी हैं,सूर्य में प्रभा हैं और तीनों लोकों में आप ही प्रभावित होती हैं। भक्तजनों को आश्रय देने वाली माता लक्ष्मी! आप सदा मुझ पर प्रसन्न हों।।2।।
        त्वं जातवेदसि सदा दहनात्मशक्ति-
       वेंधास्त्वया जगदिंदं विविधं विदध्यात्।
       विश्वम्भरोपि बिभृयादखिलं भवत्या
       लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये।।3।।
आप ही अग्नि में दाहिका शक्ति हैं। ब्रह्माजी आपकी ही सहायता से विविध प्रकार के जगत् की रचना करते हैं। सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले भगवान विष्णु भी आपके ही भरोसे सबका पालन करते हैं। शरण में आकर चरण में मस्तक झुकाने वाले पुरूषों की निरन्तर रक्षा करने वाली माता महालक्ष्मी! आप मुझ पर प्रसन्न हों।।3।।
       त्वत्यक्तमेतदमले हरते हरोपि
      त्वं पासि हंसि विदधासि परावरासि।
     ईढयों बभूव हरिरप्यमले त्व्दाप्त्या
    लक्ष्मि प्रसीद सततं नमतां शरण्ये।।4।।
निर्मल स्वरूपवाली देवी! जिनको आपने त्याग दिया हैं, उन्ही का भगवान् रूद्र संहार करते हैं। आप ही जगत् का पालन, संहार और सुष्टि करने वाली हैं। आप ही कार्य-कारण रूप जगत् हैं। निर्मल स्वरूपा लक्ष्मी! आपको प्राप्त करके ही भगवान श्रीहरि सबके पूज्य बन गये। माँ! आप भक्तजनों का हमेशा पालन करने वाली हैं,मुझ पर प्रसन्न हों।।4।।
        शूरः स एव स गुणी स बुधः स धन्यो
        मान्यः स एव कुलशीलकमलाकलापैः।
        एकः शुचिः स हि पुमान् सकलेपि लोके
        यत्रापतेत्व शुभे करूणाकटाक्षः।।5।।
 शुभे! जिस पुरूष पर आपका करूणापूर्ण कटाक्षपात होता है, संसार में एकमात्र वही शूरवीर,गुणवान,विद्वान,धन्य,मान्य,कुलीन,शीलवान,अनेक कलाओं का ज्ञाता और परम पवित्र माना जाता हैं।।5।।
         यस्मिन्वसेः क्षणमहो पुरूषे गजेश्वचे
        स्त्रैणे तुणे सरसि देवकले गृहेत्रे।
        रत्ने पतत्रिणि पशौ शयने धरायां।
       सश्रीकमेव सकले तदिहास्ति नान्यत्।।6।।
देवि! आप जिस किसी पुरूष,हाथी,घोडा,स्त्रैण,तृण,सरोवर,देव,मंदिर,गृह,अन्न,रंज,पशु-पक्षी,शयया अथवा भूमि में क्षण भर भी निवास करती हैं,समस्त संसार में केवल वही शोभा सम्पन्न होता हैं,दूसरा नहीं।।6।।
          त्व्त्स्पृष्टेमेव सकलं शुचितां लभेत
         त्वत्यक्तमेव सकलं त्वशुचीह लक्ष्मि।
         त्वन्नाम यत्र च सुमंगलमेव तत्र
         श्रीविष्णुपत्नि कमले कमलालयेपि।।7।।
हे श्रीविष्णुपत्नि! हे कमले! ळे कमलालये!हे माता लक्ष्मी! आपने जिसका स्पर्श किया है,वह पवित्र हो जाता है और आपने जिसे त्याग दिया हैं, वही सब इस जगत् में अपवित्र हैं। जहाँ आपका नाम हैं, वहीं उतम मंगल हैं।।7।।
            लक्ष्मीं श्रियं च कमलां कमलालयां च
           पद्यां रमां नलिनयुग्मकरां च मां च।
              क्षीरोदजाममृतकुम्भकरामिरां च
          विष्णुप्रियामिति सदा जपतां क्व दुःखम्।।8।।
जो लक्ष्मी, श्री, कमला,कमलालया, पद्या,रमा, दोनो हाथों में कमल धारण करने वाली,माँ क्षीरोदजा,हाथों में अमृत का कलश धारण करने वाली,इरा और विष्णुप्रिया,इन नामों का सदा जप करते हैं, उनके लिये कहीं दुःख नहीं हैं।।8।।
          ये पठिष्यन्ति च स्तोत्रं त्वद्धक्त्या मत्कृतं सदा
         तेषां कदाचित् संतापों मास्तु मास्तु दरिद्रता।।9।।
         मास्तु चेष्टज्ञवियोगश्वच मास्तु सम्पतिसंक्षयः।
         सर्वत्र विजयश्चातस्तु विच्छेदों मास्तु सन्ततेः।।10।।
इस स्तुति से प्रसन्न हो देवी के द्वारा वर मांगने के लिये कहने पर अगस्त्य मुनि बोले हे देवी! मेरे द्वारा की गयी इस स्तुति का जो भक्तिपूर्वक पाठ करेंगे,उन्हें कभी संताप न हो और न कभी दरिद्रता हो, अपने इष्ट से कभी उनका वियोग न हो और न कभी धन का नाश ही हो। उन्हें सर्वत्र विजय प्राप्त हो और उनकी संतान का कभी विच्छेद न हो।।9.10।।
                                     श्रीरूवाच
             एवमस्तु मुने सर्व यत्वया परिभाषितम्।
            एतत् स्तोत्रस्य पठनं मम सांनिध्यकारणम्।।11।।
श्री लक्ष्मी जी बोलीं- हे मुने! जैसा आपने कहा है, वैसा ही होगा। इस स्तोत्र का पाठ मेरी संनिधि प्राप्त कराने वाला हैं।।11।।
                     ।।इति श्रीस्कंदमहापुराणे काशीखंडे अगस्तिकृपा महालक्ष्मीस्तुतिः संपूर्णा।।
   उपरोक्त स्तोत्र पाठ करने से माँ लक्ष्मी प्रसन्न होकर साधक को धन-धान्य से पूरित कर देती हैं,साधक का जीवन धन्य हो जाता हैं। इसके बाद उसे अन्य किसी भी वस्तु की आवश्यकता का अनुभव नहीं होता हैं।









आपकी राशि, नक्षत्र और रोगोपचार

आपकी राशि, नक्षत्र और रोगोपचार

          भारतीय ज्योतिश में राशि एवं नक्षत्र का अपना विषेश महत्त्व है। किसी  राशि एवं नक्षत्र के आधार पर रोगों का वर्णन प्राचीन आचार्यो ने किया है। बारह  राशियों अर्थात् सत्ताईष नक्षत्रों को अंगों में स्थापित करने पर मानव  शरीर की आकृति बनती है। नवग्रहों में चन्द्र सर्वाधिक गतिशिल ग्रह है, इसलिये इसका मानव षरीर पर भी सर्वाधिक प्रभाव मान सकते हैं। हमारे षरीर का लगभग 70 प्रतिषत भाग जल है। ज्योतिश में जल का स्वामी चन्द्र को ही माना है, इसलिये भारतीय ज्योतिश में चन्द्र को महत्वपूर्ण स्थान देकर उसका जन्म समय जिस राशि या नक्षत्र में गोचर होता है, वही हमारी जन्म राशि या जन्म नक्षत्र माना जाता है। इस राषि या नक्षत्र के आधार पर जातक को कौन रोग हो सकता है एवं इस रोग से बचाव का सुलभ उपाय क्या होगा, इसकी जानकारी इस अध्याय में दी जा रही है। नक्षत्र के आराध्य अथवा उसके प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करके भी रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है:-
      1 अष्विनी:- वराह ने अष्विनी नक्ष्त्र का घुटने पर अधिकार माना है।  इसके पीडित होने पर बुखार भी   रहता है। यदि आपको घुटने से सम्बन्धित पीडा हो, बुखार आ रहा हो तो आप अपामार्ग की जड धारण करें। इससे आपको रोग की पीडा कम होगी।
      2   भरणी:- भरणी नक्षत्र का अधिकार सिर पर माना गया है। इसके पीडित होने पर पेचिष रोग होता        है। इस प्रकार की पीडा पर अगस्त्य की जड धारण करें।
3 कृतिका:- कृतिका नक्षत्र का अधिकार कमर पर है। इसके पीडित होने पर कब्ज एवं अपच की समस्या होती है। आपका जन्म नक्षत्र यदि कृतिका हो तथा कमर दर्द, कब्ज, अपच की षिकायत हो तो कपास की जड धारण करें।
4 रोहिणी:- रोहिणी नक्षत्र का अधिकार टांगों पर होता है। इसके पीडित होने पर सिरदर्द, प्रलाप, बवासीर जैसे रोग होते है। इस प्रकार की पीडा होने पर अपामार्ग या आंवले की जड धारण करें।
5 मृगशिरा:- मृगशिरा नक्षत्र का अधिकार आँखों पर है। इसके पीडित होने पर रक्त विकार, अपच,एलर्जी जैसे रोग होते है। ऐसी स्थिति में खैर की जड धारण करें।
6 आद्र्रा:- आद्र्रा नक्षत्र का अधिकार बालों पर है। इसके पीडित होने पर मंदाग्नि, वायु विकार तथा आकस्मिक रोग होते हैं। इससे प्रभावित जातकों को ष्यामा तुलसी या पीपल की जड धारण करनी चाहिये।
7 पुनर्वसु:- पुनर्वसु नक्षत्र का अधिकार अंगुलियों पर है। इसके पीडित होने पर हैंजा, सिरदर्द, यकृत रोग होते है। इन जातकों को आक की जड धारण करनी चाहिये। ष्वेतार्क जडी मिले तो सर्वोत्तम हैं।
8 पुश्य:- पुश्य नक्षत्र का अधिकार मुख पर है। स्वादहीनता, उन्माद, ज्वर इसके कारण होते है। इनसे पीडित जातकों को कुषा अथवा बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।
9 आष्लेशा:- आष्लेशा नक्षत्र का अधिकार नाखून पर है। इसके कारण रक्ताल्पता एवं चर्म रोग होते है। इनसे पीडित जातको को पटोल की जड धारण करनी चाहिये।
10 मघा:- मघा नक्षत्र का अधिकार वाणी पर है। वाणी सम्बन्धित दोश, दमा आदि होने पर जातक भृगराज या वट वृक्ष की जड धारण करें।
11 पूर्वाफाल्गुनी:- पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुप्तांग पर है। गुप्त रोग, आँतों में सूजन, कब्ज, षरीर दर्द होने पर कटेली की जड धारण करें।
12 उत्तराफाल्गुनी:- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुदा, लिंग, गर्भाषय पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित रोग मधुमेह होने पर पटोल जड धारण करें।
13 हस्त:- हस्त नक्षत्र का अधिकार हाथ पर होता है। हाथ में पीडा होने या षरीर में जलदोश अर्थात् जल की कमी, अतिसार होने पर चमेली या जावित्री मूल धारण करें।
14 चित्रा:- चित्रा नक्षत्र का अधिकार माथे पर होता है। सिर सम्बन्धित पीडा, गुर्दे में विकार, दुर्घटना होने पर अनंतमूल या बेल धारण करें।
15 स्वाति:- स्वाति नक्षत्र का अधिकार दाँतों पर है, इसलिये दंत रोग, नेत्र पीडा तथा दीर्घकालीन रोग होने पर अर्जुन  मूल धारण करें।
16 विषाखा:- विषाखा नक्षत्र का अधिकार भुजा पर है। भुजा में विकार, कर्ण पीडा, एपेण्डिसाइटिस होने पर गुंजा मूल धारण करें।
17 अनुराधा:- अनुराधा नक्षत्र का अधिकार हृदय पर है। हृदय पीडा, नाक के रोग, षरीर दर्द होने पर नागकेषर की जड धारण करें।
18 ज्येश्ठा:- ज्येश्ठा नक्षत्र का अधिकार जीभ व दाँतों पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित पीडा होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।
19 मूल:- मूल नक्षत्र का अधिकार पैर पर है। इसलिये पैरों में पीडा, टी.बी. होने पर मदार की जड धारण करें।
20 पूर्वाशाढा:- पूर्वाशाढा नक्षत्र का अधिकार जांघ, कूल्हों पर होता है। जाँघ एवं कूल्हों में पीडा,  कार्टिलेज की समस्या, पथरी रोग होने पर कपास की जड धारण करें।
21 उतराशाढा:-उतराशाढा नक्षत्र का अधिकार भी जाँघ एवं कूल्हो पर माना है। हड्डी में दर्द, फे्रक्चर होने, वमन आदि होने पर कपास या कटहल की जड धारण करें।
22 श्रवण:- श्रवण नक्षत्र का अधिकार कान पर होता है। इसलिये कर्ण रोग, स्वादहीनता होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।
23 धनिश्ठा:- धनिश्ठा नक्षत्र का अधिकार कमर तथा रीढ की हड्डी पर होता है। कमर दर्द, गठिया आदि होने पर भृंगराज की जड धारण करें।
24 षतभिशा:- षतभिशा नक्षत्र का अधिकार ठोडी पर होता है। पित्ताधिक्य, गठिया रोग होने पर कलंब की जड धारण करें।
25 पूर्वाभाद्रपद:- पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार छाती, फेफडों पर होता हैं। ष्वास सम्बन्धी रोग होने पर आम की जड धारण करें।
26 उतराभाद्रपद:- उतराभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार अस्थि पिंजर पर होता है। हांफने की समस्या होने पर पीपल की जड धारण करें।
27 रेवती:- रेवती नक्षत्र का अधिकार बगल पर होता है। बगल में फोडे-फुंसी या अन्य विकार होने पर महुवे की जड धारण करें।
          जब किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य पीडा हो तो आपको अपने जन्म नक्षत्र के प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करनी चाहिये। यदि आपको अपना जन्म नक्षत्र पता नहीं है तो आपको किस प्रकार की स्वास्थ्य पीडा है तथा वह षरीर के किस अंग से सम्बन्धित है अथवा वह रोग किसके अन्तर्गत आ रहा है, उससे सम्बन्धित वृक्ष की जडी ऊपर बताये अनुसार धारण करें तो आपको अवष्य अनुकूल फल की प्राप्ति होगी।
      आपकी राषि के अनुसार जडी धारण करके भी रोग के प्रकोप को कम कर सकते हैं। आप अपनी राषि अपने नाम के प्रथम अक्षर से जान सकते हैं। इस आधार पर:-
मेश राषि वालों को पित्त विकार, खाज-खुजली, दुर्घटना, मूत्रकृच्छ की समस्या होती है। मेश राषि का स्वामी ग्रह मंगल है। इन्हें अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये।
व्ृाष्चिक  राषि वालों को भी उपरोक्त रोगों की ही समस्या होती हैं। इन्हें भी अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये
व्ृाशभ एवं तुला राषि वालों को गुप्त रोग, धातु रोग, षोथ आदि होते हैं। यदि आपकी राषि वृशभ अथवा तुला हो तो आपको सरपोंखा की जड धारण करनी चाहिये।
मिथुन एवं कन्या राषि वालों को चर्म विकार, इंसुलिन की कमी, भ्रांति, स्मुति ह्नास, निमोनिया, त्रिदोश ज्वर होता है। इन्हें विधारा की जड धारण करनी चाहिये।
कर्क राषि वालों को सर्दी-जुकाम, जलोदर, निद्रा, टी.बी. आदि होते हैं। इन्हें खिरनी की जड धारण करनी चाहिये।
सिंह राषि वालों को उदर रोग, हृदय रोग, ज्वर, पित्त सम्बन्धित विकार होते हैं। इन्हें अर्क मूल धारण करनी चाहिये। बेल की जड भी धारण कर सकते हैं।
धनु एवं मीन राषि वालों को अस्थमा, एपेण्डिसाइटिस, यकृत रोग, स्थूलता आदि रोग होते हैं। इन्हें केले की जड धारण करनी चाहिये।
मकर एवं कुंभ राषि वालों को वायु विकार, आंत्र वक्रता, पक्षाघात, दुर्बलता आदि रोग होते हैं। इन्हें बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।
  चन्द्र का कारकत्व जल हैं। इसलिये चन्द्र निर्बल होने पर जल चिकित्सा लाभप्रद सिद्ध होती हैं। हमारे षरीर में लगभग 70 प्रतिषत जल होता है। इसलिये षरीर की अधिकांष क्रियाओं में जल की सहभागिता होती है। जल चिकित्सा से जो वास्तविक रोग है, उसका उपचार तो होता ही है इसके साथ अन्य अंगों की षुद्धि भी होती है। इस कारण षरीर में भविश्य में रोग होने की सम्भावना भी कम होती है। जल एक अच्छा विलायक है। इसमें विभिन्न तत्त्व एवं पदार्थ आसानी से घुल जाते हैं जिससे रोग का उपचार आसानी से हो जाता है। जल चिकित्सा में वाश्प् स्नान, वमन,एनीमा, गीली पट्टी, तैरना, उशाःपान एवं अनेक प्रकार की चिकित्सायें हैं। दैनिक क्रियाओं में भी हम जल का उपयोग करते रहते हैं। लेकिन जब चन्द्र कमजोर एवं पीडित होकर उसकी दषा आये तभी जल के अनुपात में षारीरिक असंतुलन बनता है। हमारे षरीर में स्थित गुर्दे जल तत्त्वों का षुद्धिकरण करते हैं। जल की अधिकता होने पर पसीने के रूप में जल बाहर निकलता है जिससे षरीर का तापमान कम हो जाता है। इसलिये जल सेवन अधिक करने पर जोर दिया जाता है ताकि षरीर स्वस्थ रहे अर्थात् चन्द्र की कमजोरी स्वास्थ्य में बाधक न बने। इस प्रकार हमारे लिये चन्द्र महत्त्वपूर्ण ग्रह बन जाता है।          
                                                                                      ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                    मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                    जिला- सिरोही (राज.) 307512
मो. 9001742766
                                 

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

अष्टलक्ष्मी

        अष्टलक्ष्मी

               आदिलक्ष्मी
सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि चन्द्र सहोदरि हेममये।
मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि मज्जुलभाषिणी वेदनुते।।
पंकजवासिनी देवसुपूजित सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते।
जयजय हे मधुसूदन कामिनि आदिलक्ष्मि सदा पालय माम्।।
माँ लक्ष्मी का आदिलक्ष्मी रूप चार भुजाधारी हैं, जिनके एक हाथ में कमल और दुसरे हाथ में झण्डा तथा अन्य दो हाथों में अभय और वरमुद्रा विद्यमान हैं। ऐसी आदिलक्ष्मी हमारा कल्याण करें।

                धान्यलक्ष्मी
अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि वैदकरूपिणि वेदमये।
क्षीरसमुöव मंगलरूपिणि मंत्रनिवासिनि मंत्रनुते।।
म्ंागलदायिनि अम्बुजवासिनि देवगणाश्रित पादयुते।
ज्यजय हे मधुसूदन कामिनि धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम्।।
धान्यलक्ष्मी आठ हाथों वाली हैं जिन्होंने हरे वस्त्र धारण कर रखें हैं। इनके हाथोें में गदा, दलहन फसल,कमल,गन्ना,केला,अभय एवं वरमुद्रा विद्यमान हैं। यह धान्यलक्ष्मी हमारे जीवन में भरपूर धन-धान्य देते हुए हमारा पालन करें।

                       ऐश्वर्यलक्ष्मी
जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि मंत्रस्वरूपिणि मंत्रमये,
सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते।
भवभयहारिणि पापविमोचनि साधुजनाश्रित पादुयुते,
जयजय हे मधुसूदन कामिनि ऐश्वर्यलक्ष्मि सदा पालय माम्।।
ऐश्वर्यलक्ष्मी चार भुजा वाली हैं। इनके दो हाथों में कमल पुष्प तथा अन्य दो हाथों में अभय और वरमुद्रा हैं। इन्होंने सफेद वस्त्र धारण कर रखें हें। ऐश्वर्यलक्ष्मी हमारे जीवन में निरन्तर समृद्धि प्रदान करें और हमारा पालन करें।

                     गजलक्ष्मी
जयजयदुर्गतिनाशिनि कामिनि सर्वफलप्रद शास्त्रमये।
रथगज तुरगपदादि समावृत परिजनमण्डित लोकनुते।।
हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित तापनिवारिणि पादयुते।
जयजय हे मधुसूदन कामिनि गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम्।।
गजलक्ष्मी चार हाथों वाली हैं जिन्होंने लाल वस्त्र धारण किये हुए हैं। इनके पीछे दो हाथोेंजल के कलश लिये हुए वर्षा कर रहे हैं। इनके हाथों में कमल,वरमुद्रा और अभयमुद्रा विद्यमान हैं। गजलक्ष्मी हमारे जीवन में सर्वोन्नति प्रदान करते हुए हमारा पालन करें।

                    सन्तानलक्ष्मी
अहिखग वाहिनि मोहिन चक्रिणि रामविवर्धिनि ज्ञानमये।
गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि स्वरसप्त भूषित गाननुते।।
सकल सुरासुर देवमुनीश्वर मानव वन्दित पादयुते।
जयजय हे मधुसूदन कामिनि सन्तानलक्ष्मि त्वं पालय माम्।।
सन्तानलक्ष्मी छह हाथों वाली हैं। इन्होंने अपने हाथों तलवार,ढाल,कलश,वरमुद्रा तथा एक हाथ में गोद में बच्चे को लिये हुए हैं तथा बच्चे के हाथ मे भी एक कमल पुष्प हैं। यह सन्तानलक्ष्मी हमें उतम संतान प्रदान कर हमारा पालन करें।




                   विजयलक्ष्मी
जय कमलासनि सद्गतिदायिनि ज्ञानविकासिनि गानमये।
अनुदिनमर्चित कुंकमधूसरभूषित वासित वाद्यनुते।।
कनकधरास्तुति वैभव वन्दित शंकर देशिक मान्य पदे।
जयजय हे मधुसूदन कामिनि विजयलक्ष्मि सदा पालन माम्।।
विजय लक्ष्मी आठ हाथों वाली है और लाल वस्त्र धारण करती हैं। इनके हाथों में चक्र , तलवार, ढाल, शंख, कमल, पाश, अभयमुद्रा और वरमुद्रा हैं। यह लक्ष्मी हमें जीवन में सर्वत्र विजय प्रदान का हमारा पालन करें।

                       विद्यालक्ष्मी
प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि शोकविनाशिनि रत्नमये।
मणिमयभूषित कर्णविभूषण शान्तिसमावृत हास्यमुखे।
नवनिधिदायिनि कलिमलहारिणि कामित फलप्रद हस्तयुते।
जयजय हे मधुसूदन कामिनि विद्यालक्ष्मि सदा पालय माम्।।
विद्यालक्ष्मी आठ हाथों वाली हैं। इन्होंनेे लाल वस्त्र धारण किये हुए हैं। इनके हाथों में चक्र,धनुष-बाण,शंख,त्रिशुल,पुस्तक, अभय एवं वरमुद्रा हैं। यह हमें विद्या प्रदान कर ज्ञानवान बनाये और हमारा पालन करें।

                             धनलक्ष्मी
धिमिधिमि धिंधिमि  धिंधिमि दुन्दुभि नाद सुपूणये।
घुङ्घुम घुङ्घुम घुङ्घुम  घुङ्घुम शंकनिनाद सुवाद्यनुते।।
वेदपुराणेतिहास सुपूजित वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते।
जयजय हे मधुसूदन कामिनि धनलक्ष्मि रूपेण पालय माम्।।
धनलक्ष्मी छह हाथों वाली है और लाल वस्त्र धारण करती हैं। इनके एक हाथ में चक्र, दूसरे में अमृतकलश, तीसरे में शंख, चैथे हाथ में कमल, पांचवे हाथ में अभयमुद्रा तथा छठे हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैं। ये अपने अभयमुद्रा वाले स्वरूप में निरन्तर धन बरसाती रहे और हमारा पालन करें।
    उक्त अष्टालक्ष्मी स्तोत्र में संस्कृत के साथ हिन्दी का उच्चारण करते हुए माँ लक्ष्मी के अष्टोरूपों से जीवन में भी प्रकार के सुखों की कामना करें। लक्ष्मी के ये स्वरूप दक्षिण भारत में अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। जहाँ पर इनके आठ रूपों वाले मन्दिर भी स्थित हैं। यदि आप माँ लक्ष्मी के अष्टोरूपों वाले मंदिर में जाकर उनका आर्शीवाद प्राप्त करना चाहते है, तो चैन्नई,हैदराबाद,मदुरै, सुगरलैण्ड, टेक्सास (अमेरिका) एवं मिशिगन (अमेरिका)में स्थित उनके मंदिरो में जा सकते हैं। दीपावली पर अष्टलक्ष्मी की साधना करने से साधकों को अवश्य लाभ होता हैं।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

अक्ष्युपनिषद

         ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार 
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नैत्र रोगो के निवारण के लिए अक्ष्युपनिषद का पाठ करना चाहिए । इसके लिए शुक्ल पक्ष के रविवार जो आपकी राशि के अनुकुल हो से प्रारंभ कर प्रतिदिन धुप दीप जलाकर सूर्य भगवान को अध्र्य देते हुए करना चाहिए
 हरिः ओम ।अथ ह सांगकृतिर्भगवानदित्यलोकंजगाम्।स आदित्यम नत्वाचक्षुष्मतीद्यया तमस्तुवत्।ओम नमो भगवते श्रीसूर्यायाक्षितेजसे नमः।ओम खेचराय नमः।ओम महासेनाय नमः।ओम तमसे नमः।ओम रजसे नमः।ओम सत्वाय नमः।ओम असतो मा सद्गमय।तमसो मा ज्योतिर्गमय।मृत्योर्माऽमृत ंगमय हंसो भगवांछुचिरूपः अप्रतिरूपः विश्वरूपं घृणिनंजातवेदसं हिरण्मयं ज्योतीरूपं तपन्तम्।सहस्त्ररश्मिः शतधा वर्तमानः पुरः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः।ओम नमो भगवते श्रीसूर्यायादित्यायाक्षितेजसेऽहोऽहिवाहिनि वाहिनि स्वाहेति।एवं चक्षुष्मतीद्यया स्तुतः श्रीसूर्यनारायणः सूप्रीतोऽब्रवीच्चक्षुष्मतीद्यां ब्राह्मणो यो नित्यमधीते न तस्याक्षिरोगो भवति ।न तस्य कुलेऽन्धो भवति ।अष्टौ ब्राह्मणान ग्राहित्वाथ विद्यासिद्धिर्भवति।य एवं वेद स महान भवति।
  

नवग्रह स्तोत्रम

          ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
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जब किसी जातक को एक से अधिक ग्रहो के प्रकोप के कारण कोई रोग पीडा दे रहा हो तो ऐसे जातक को धुप दीप जलाकर निम्न स्तोत्र का पाठ करना रोग शांति मे सहायक होता है।इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार की समस्या के समाधान हेतु इस स्तोत्र का पाठ लाभदायक होता है। महर्षि व्यास द्वारा रचित नवग्रह स्तोत्रम
जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्।
तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्।।
दधिशंख तुषाराभं क्षीरोदार्णव सम्भवम्।
नमामि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम्।।
धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मंगलं प्रणमाम्यहम्।।
प्रियंगुकलिकाश्यामं रूपेणांप्रतिमं बुधं।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्।।
देवानां च ऋषीणां च गुरुं कांचनसन्निभम्।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्।
हिमकुन्द मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम्।
सर्वशास्त्रप्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्।।
नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्ड सम्भूत तं नमामि शनैश्चरम्।।
अर्धकायं महावीर्यम् चन्द्रादित्यविमर्दनम्।
सिंहिकागर्भ सम्भूतं तं राहूं प्रणमाम्यहम्।।
पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रहमस्तकम्।
रौद्रं रौद्रत्मकंघोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्।।
इति व्यासमुखोद्रीतं यः पठेत सुसमाहितः।
दिवा वा यदि वा रात्रौ विघ्नशान्तिर्भविष्यति।।
नरनारीनृपाणां च भवेद्दुःस्वपननाशनम।
ऐश्वर्यंतुलमं तेषामारोग्यं पुष्टिवर्धनम्।।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

स्वास्थ्य रक्षा हेतु उपयोगी मंत्र

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       हमारे धर्मशास्त्रो मे स्वास्थ्य रक्षा हेतु विशष सिद्धांत एवं मंत्र दिए गए है जिनका नियमानुसार पालन एवं जाप करने से स्वास्थ्य की रक्षा होती है इन मंत्रो का जाप करने से हमे आत्मिक मानसिक एवं शारीरिक शांति प्राप्त होती है मंत्र जाप का प्रारंभ आप किसी शुक्ल पक्ष के अपनी राशि के अनुसार अनुकुल दिवस को प्रारंभ करे यहां पर विभिन्न  रोगो के निवारण के लिए कुछ उपयोगी मंत्र दिए जा रहे है इन मंत्रो को आप पूरक रूप मे प्रयोग कर अवश्य लाभ प्राप्त कर सकते है

1. यत्सर्वं प्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान् रश्मिषु संनिधते।
    अर्थात् जब आदित्रू प्रकाशमान होता है, तब वह समस्त प्राणों को अपनी किरणों में रखता है। इसमें भी एक रहस्य है। वह यह कि प्रातःकाल की सूर्य-किरणों में अस्वस्थता का नाश करने की जो अदभुत शक्ति है, वह मध्यान्ह तथा सायाह्न की सूर्य-रश्मियों में नहीं है।
           उद्यन्नादित्य रश्मिभिः शीष्र्णो रोगमनीनशः0।
     वेदभगवान् कहते हैं कि प्रातःकाल की आदित्य-किरणों से अनेक व्याधियों का नाश होता है। सूर्य-रश्मियों में विष दूर करने की भी शक्ति है। स्वस्थ शरीर से ही धर्म,अर्थ,काम, और मोक्ष की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’। एतदर्थ आरोग्य के इच्छुक साधकों को भगवान् सूर्य की शरण में रहना अत्यावश्यक है। सूर्य की किरणों में व्याप्त प्राणों को पोषण प्रदान करने वाली महती शक्ति का निम्नलिखित सहज साधन से आकर्षण करके साधक स्वस्थ,नीरोग और दीर्घजीवी होकर अन्त में दिव्य प्रकाश को प्राप्त करके परमपद को भी प्राप्त कर सकता है। आलस्य या अविश्वासवश इस साधन को न करना एक प्रकार से आत्मान्नति से विमुख रहना है।
     साधन- प्रातःकाल संध्या-वन्दनादि से निवृत होकर प्रथम प्रहर में, जब तक सूर्य की धूप विशेष तेज न हो, तब तक एकान्त में केवल एक वस्त्र पहनकर और मस्तक, हृदय,उदर आदि प्रायः सभी अंग खुले रखकर पूर्वाभिमुख भगवान् सूर्य के प्रकाश में खडा हो जाय। तदनन्तर हाथ-जोड, नेत्र बंद करके जगच्चक्ष्ज्ञु भगवान् भास्कर का ध्यान इस प्रकार करे-
            पùासनः पùकरो द्विबाहुः पùùुतिः सप्ततुरग्ङवाहनः।
            दिवाकरो लोकगुरूः किरीटी मयि प्रसादं विदधातु देवः।।    
यदि किसी साधक को नेत्रमान्द्यादि दोष हो तो वह ध्यान के बाद नेत्रोपनिषद् का पाठ भी कर ले। तदनन्तर वाल्मीकिरामायणोक्त आर्ष आदित्यहृदय का पाठ तथा ‘ ओम ह्नीं हंसः0’ इस बीजसमन्वित मंत्र का कम-से-कम पाँच माला जप करके मन में दृढ धारणा करे कि जो सूर्य-किरणे हमारे शरीर पर पड रही हैं और जो हमारे चारों ओर फैल रही हैं, उन सब में रहनेवाली आरोग्यदा प्राणशक्ति मेरे शरीर के रोम-रोम में प्रवेश कर रही है। नित्य नियमपूर्वक दस मिनट से बीस मिनट तक इस प्रकार करे। ऐसा करने से आपके अधिकांश रोगो का शमन हो जाता है
 2.             सर्वरोगोपशमनं सर्वोपद्रवनाशनम्।
              शान्तिदं सर्वरिष्टानां हरेर्नामानुकीर्तनम्।।
हरिनाम संकीर्तन सभी रोगों का उपशमन करने वाला, सभी उपद्रवों का नाश करनेवाला और समस्त अरिष्टों की शान्ति करने वाला है।
3. नित्य अभिवादन- घर में माता-पिता, गुरू, बडे भाई आदि जो भी अपने से बडे हों, उनको नित्य नियमपूर्वक प्रणाम करे। नित्य बडों को प्रणाम करने से आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि होती है-
                      अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
                      चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
4. वेदवेताओं का कहना है कि गोविन्द, दामोदर और माधव- ये नाम मनुष्यों के समस्त रोगों को समूल उन्मूलन करनेवाले भेषज हैं और संसार के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक इन विविध तापों का नाश करने के लिये बीज मन्त्र के समान है। वेदो मे कहा भी गया है .
                आत्यन्तिकं व्याधिहरं जनानां चिकित्सिकं वेदविदोे वदन्ति।
               संसारतापत्रयनाशबीजं गोविन्द दामोदर माधवेति।।


  5. ऋग्वेद के निम्न मंत्र का जाप भी रोग शांति मे सहायक होता है
              अपामीवामप स्त्रिधमप सेधत दुर्मतिम्।
               आदित्यासो युयोतना नो अंहसः।।
                                   
‘ हे दृढव्रती देवगणो आदित्यासः! हमारे रोगों का निवारण कीजिये। हमारी दुर्मति तथा पापों को दूर हटा दीजिये।’
  6. अथर्ववेद के निम्न मंत्र का जाप भी रोग शांति मे सहायक होता है
            त्रायन्तामिमं देवास्त्रायन्तां मरूतां गणाः।
              त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत्।।
 ‘हे देवो! इस रोगी की रक्षा कीजिये। हे मरूतों के समूहो! रक्षा करो। सब प्राणी रक्षा करें। जिससे यह रोगी नीरोग हो जाय।’
7. वेद में भी दीर्घ जीवन की प्राप्ति के लिये वेदमाता गायत्री की स्तुति करने के लिए बार-बार कहा गया है-
         स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
         आयुः प्राणं प्रजां पशंु कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। 
         महृं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।। 
   ‘ब्राह्मणों को पवित्र करने वाली, वरदान देनेवाली वेदमाता गायत्री की हम स्तुति करते हैं। वे हमें आयु,प्राण,प्रजा,पशु,कीर्ति,धन और ब्रह्मतेज प्रदान करके ब्रह्मलोक में जायें।’
      इस मंत्र में सबसे प्रथम आयु का उल्लेख किया गया है। आयु के बिना प्रजा, कीर्ति, धन आदि का कुछ भी मूल्य नहीं हैं। आत्मा के बिना देह का कोई मूल्य नहीं।
8. किसी भी प्रकार की ग्रह पीडा ज्वर एवं भूत प्रेतादि बाधा के निवारण के लिए अपराजिता मंत्र का जाप उपयोगी माना गया है अपराजिता मंत्र.
             ओम नमो भगवती वज्रश्रृंखले हन हन ओम भक्ष भक्ष ओम खाद ओम अरे रक्तम पिब कपालेन रक्ताक्षि रक्तपटे भस्मांगि भस्मलिप्तशरीरे वज्रायुधे वज्रप्राकारनिचिते पूर्वां दिशं बन्ध बन्ध ओम दक्षिणां दिशं बन्ध बन्ध ओम पश्चिमां दिशं बन्ध बन्ध ओम उत्तरां दिशं बन्ध बन्ध नागान बन्ध बन्ध नागपत्नीर्बन्ध बन्ध ओम असूरान बन्ध बन्ध ओम यक्षराक्षसपिशाचान बन्ध बन्ध ओम प्रेत भूतगन्धर्वादयो ये केचिदुपद्रवास्तेभ्यो रक्ष रक्ष ओम उध्र्वं रक्ष रक्ष ओम अधो रक्ष रक्ष ओम क्षुरिकं बन्ध बन्ध ओम ज्वल महाबले घटि घटि ओम मोटि मोटि सटावलिवज्राग्नि वज्रप्राकारे हुं फट ही्रं हु्रं श्रीं फट ही्रं हः फूं फें फःसर्वग्रहेभ्य सर्वव्याधिभ्य सर्वदुष्टोपद्रवेभ्यो ही्रं अशेषेभ्यो रक्ष रक्ष

सुर्य किरन चिकित्सा


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सूर्य किरणों के सेवन से हमारे देह के कौन.कौनए कैसे.कैसे रोगों का निवारण होता है और अन्य क्या.क्या लाभ मिलते हैंए उसके विषय में कहा गया हैं कि.
सूर्यतापः स्वेदवहः सर्वरोगविनाशकः।
मेदच्छेदकरश्चैव बलोत्साहविवर्धनः।।
दद्रुविस्फोटकुष्ठघ्रः कामलाशोथनाशकः।
ज्वरातिसारशूलानां हारको नात्र संशयः।।
कफपितोöवान् रोगान् वातरोगांस्तथैव च।
तत्सेवनान्नरो जित्वा जीवेच्च शरदां शतम्।।
अर्थात् सूर्य का ताप स्वेदको बढानेवाला और सभी प्रकार के रोगों को नष्ट करनेवाला मेदका छेदन करनेवालाए बल तथा उत्साह को बढाने वाला है। यह दद्रु  विस्फोटक कुष्ठ  कामला  शोथ   ज्वर   अतिसार शूल तथा कफ एवं वात और पित.इन त्रिदोषों से उत्पन्न रोगों को दूर करनेवाला है। इसके सेवन से मनुष्य रोगों पर विजय प्राप्त करके दीर्घायु प्राप्त करता है।
सारांश यह है कि सभी प्रकार के रोगों का निवारण सूर्य.किरणों के सेवन से होता है। शक्ति एवं उत्साह में वृद्धि होती है और शतायु की प्राप्ति होती हैं।
सूर्य के प्रकाश से हमें प्राण.तत्व तथा उष्णता ये दोनों प्राप्त होते हैंए जो हमारे जीवन को स्वस्थ तथा दीर्घजीवी बनाते हैं। सूर्यकिरण द्वारा ष्ओजोन वायुष् उत्पन्न होती हैए जो हमें और हमारी पृथ्वी को सुरक्षित रखती है। यह ओजोन हमारी शक्ति को बढाती है तथा रक्त को विशुद्ध करती है  हृदय को शक्तिशाली बनाती है और हड्डी तथा नाडी इत्यादि को सक्षम बनाती है।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

रोग निवारण- सूक्त

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रोगो के बारे मे अधिक जानकारी हेतु आप मेरे द्वारा लिखित व्याधि विधान निदान एवं समाधान का अध्ययन करे 
अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड का 13 वाँ सूक्त तथा ऋ़ग्वेद के दशम मण्डल का 137 वाँ सूक्त ‘रोग निवारण-सूक्त’ - के नाम से प्रसिद्ध है। अथर्ववेद में अनुष्टप् छंद के इस सूक्त के ऋषि शंताति तथा देवता चन्द्रमा एवं विश्वेदेवा है। जब कि ऋग्वेद में प्रथम मन्त्र ऋषि भारद्वाज, द्वितीय के कश्यप, तृतीय के गौतम, चतुर्थ के अत्रि, पंचम के विश्वामित्र, षष्ठ के जमदग्रि तथा सप्तम  मन्त्र के ऋषि वसिष्ठजी है और देवता विश्वेदेवा है। इस सूक्त के जप-पाठ से रोगों से मुक्ति अर्थात् आरोग्यता प्राप्त होती है। ऋषि ने रोग मुक्ति के लिये ही प्रार्थना की हैं इसलिए किसी भी रोग के निदान के लिए इस सुक्त का पाठ रोग शांति मे सहायक होता है.
                             उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः।
                             उतागश्चकु्रषं देवा देवा जीवयथा पुनः।।1।।
हे देवो! हे देवो! आप नीचे गिरे हुए को फिर निश्चयपूर्वक ऊपर उठाएँ। हे देवो! हे देवो! और पाप करने वालों को भी फिर जीवित करें, जीवित करें।
                            द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः।
                            दक्षं ते अन्य आवातु व्यन्यो वातु यद्रपः।।2।।
 ये दो वायु हैं। समुद्र से आने वाला पहला वायु है और दूर भूमि पर से आनेवाला दूसरा वायु है। इनमें से एक वायु तेरे पास बल ले आये और दूसरा वायु जो दोष है, उसे दूर करे।
                           आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः।
                           त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे।।3।।
हे वायु! ओषधि यहाँ ले आ! हे वायु! जो दोष है, वह दूर कर। हे सम्पूर्ण ओषधियों को साथ रखने वाले वायु! निःसंदेह तु देवों का दूत-जैसा होकर चलता है, जाता है, प्रवाहित है।
                         त्रायन्तामिमं देवास्त्रायन्तां मरूतां गणाः।
                         त्रायन्तां विश्वा भूतानि यथायमरपा असत्।।4।।
हे देवो! इस रोगी की रक्षा करें। हे मरूतों के समूहो! रक्षा करें। सब प्राणी रक्षा करें। जिससे यह रोगी रोग-दोषरहित हो जाये।
                         आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः।
                         दक्षं त उग्रमाभारिषं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।5।।
आप के पास शान्ति फैलाने वाले तथा अविनाशी साधनों के साथ आया हूँ। तेरे लिये प्रचण्ड बल भर देता हूँ। तेरे रोग को दूर भगा देता हूँ।
                        अयं मे हस्तो भगवानयं मे भगवत्तरः।
                        अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शनः।।6।।
मेरा यह हाथ भाग्यवान् है। मेरा यह हाथ अधिक भाग्यशाली है। मेरा यह हाथ सब ओषधियों से युक्त है और मेरा यह हाथ शुभ-स्पर्श देनेवाला है।
                        हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिहृा वाचः पुरोगवी।
                        अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि।।7।।
दस शाखा वाले दोनों हाथों के साथ वाणी को आगे प्रेरणा करने वाली मेरी जीभ है। उन नीरोग करने वाले दोनो हाथों से तुझे हम स्पर्श करते हैं।
ऋग्वेद मे ’अयं मे हस्तो ’छठे मंत्र के स्थान पर यह दूसरा मंत्र आया है आप अपनी सुविधानुसार प्रयोग कर लाभ उठा सकते है।
           आप  इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।
           आपःसर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।।
जल ही निसंदेह औषधि है।जल रोग दूर करने वाला है।जल सब रोगो की औषधि है।वह जल तेरे लिए औषधि बनाए।

                         


बुधवार, 7 अगस्त 2013

मानस मंत्रो से करे अपनी मनोकामना पूर्ति

  ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार 
मो.09001742766
तुलसीदास ने भगवत शिव की कृपा से रामचरित मानस की रचना की थी। रामचरित मानस के प्रत्येक दोहा स्वयं एक सम्पूर्ण मंत्र है। संस्कृत मंत्रो का शुद्ध उच्चारण एवं उनकी साधना विधि को हर कोई नही कर सकता है। इसी कारण इन मानस मंत्रो का साधको के लिए उच्चारण हिन्दी भाषा के कारण सरल है। ये मंत्र कभी अशुभ फल नही देते। इसी कारण आमजन भी इसका पाठ कर अनुकूल लाभ प्राप्त करते है। इप मंत्रो को आप स्वंय करे एवं संभव होने पर जप का दशांश हवन भी किसी के मार्गदर्शन में कर सकते है। मानस मंत्र स्त्रियां भी अपनी मनोकामना के अनुसार कर सकती है। केवल रजस्वला अवधि में इन्हे मंत्रो का जाप नही करना चाहिए।

    किसी भी मानस मंत्र का जाप जैसे-जैसे बढता जाता है। वैसे-वैसे उसकी फल प्राप्ति भी बढती जाती है। मंत्र जाप का प्रारंभ आप अपनी मनोकामना के अनुसार सिद्ध दिवस का चयन करे। इसके लिए आप स्वंय पंचांग देखकर दिवस एवं समय का निर्धारण करे। ऐसा न हो सके तो किसी ज्योतिष की सलाहलेकर मंत्र जाप प्रारंभ करे। जिस प्रकार अन्य मंत्रों का जाप करते है। उसी प्रकार इन मंत्रो का जाप भी पूर्णत पवित्र होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर करना चाहिए। अन्य मंत्रों का जाप करने से पूर्व जिस प्रकार विलोचन या विनियोग किया जाता है। उसी प्रकार मानस मंत्र का जाप करने से पहले रक्षा मंत्र का ग्यारह बार जाप करना चाहिए है। मंत्र इस प्रकार है-
            मामभिरक्षय रघुकूल नायक।
           घृत वर चाप रूचिर कर सायक।।
इसके पश्चात अपने अनुकूल मंत्र का जाप प्रारंभ करना चाहिए। मंत्र जाप करते समय श्री राम पंचायत का चित्र अपने घर में लगाए। उन्हे धुप दिप,पुष्प,गंध अर्पित करे एवं कोई मिष्ठान का भोग लगाए। इसके पश्चात मंत्र का जाप प्रारंभ करना चाहिए। अन्य मंत्रों की भांति इन मंत्रों को भी सिद्ध करके जाप किया जाए तो इसका परिणाम भी अच्छा रहता है। जिस मंत्र को आप सिद्धा करना चाहते है। उस मंत्र को किसी शुभ समय में ग्यारह माला जाप करना चाहिए। अन्तिम माला जाप करते समय मंत्र के अन्त में स्वाहा लगाकर आहुति देनी चाहिए। मानस मंत्रों की सिद्धि करते समय हवन में पिपल या आम समिधा का प्रयोग किया जाता है। इनके उपलब्ध न होने की स्थिति में जंगल में से अर्थात ऐसे उपले जो थेपे हुए ना हो। हवन सामग्री में गाय का घी, शक्कर, कपुर, केसर, चंदन, तिन, अगर, तगर, चावल, जौ, नागरमोथा एवं नारियल का प्रयोग किया जाता इन सभी हवन सामग्री को एक पात्र में मिलाकर हवन करने से पूर्व तैयार करे। सामग्री कम या अधिक कोई को तो इनकी कोई चिंता नही करे। सभी सामग्री का अंश हवन करते समय आहुति में आना चाहिए। मंत्र जाप एवं हवन करते समय आप उतर की और मुंह करके पाठ करे तो अच्छा। अन्यथा पूर्व दिशा की तरफ मुंह करके भी आप ईशान में पूजा धर होने पर कर सकते है। मंत्र का इस प्रकार जाप करने के पश्चात मंत्र सिद्ध हो जाता है। फिर प्रतिदिन नियत समय स्थान पर एक माला जाप करना चाहिए ताकि आपको दिन प्रतिदिन शुभ फलों की प्राप्ति भी बढती रहें।

आपकी मनोकामना पूर्ति के लिए विशेष मानस मंत्र दिए जा रहे है। जिसमे से आप भी अपनी ईच्छा के अनुसार मानस मंत्र का चयन कर प्रयोग कर सकते है।

शीघ्र विवाह के लिए
तब जनक पाई बसिष्ठ आयसु,ब्याह साज संवारि कै।
मांडवी श्रृत किरति उर्मिला, कुंअरि लई हंकारि कैं।।

विद्या प्राप्ति के लिए
गुरू ग्रह गये पढन रघुराई।
अलप काल विद्या सब आई।।

ग्रह प्रवेश या किसी अन्य प्रदेश में व्यापार प्रारंभ करते समय
प्रबिसि नगर कीजे सग काज।
हृदय राखि कौसलपुर राजा।।

सुख सम्पति प्राप्ति हेतु
जे सकाम नर सेनहि जे गावहिं।
सुख सम्पति नाना विधि पावहि।।

आपसी प्रेम बढाने के लिए
सब नर करहि परस्पर प्रीति।
चलाहि स्वधर्म निरत श्रति नीति।।

रोगनाशः उपद्वनाश हेतु
देहिक दैविक भौतिकता तापा।
राम राज लही काहुीि व्यापा।।

वशीकरण के लिए
करतल बान धनुष अति सोहा।
देखत रूप चराचर सोहा।।

सभी विपतियों के नाश के लिए
राजिव नयन धरें धनु सायक।
भगत बिपति भजन सुखदायक।।

भागयोदय के लिए
मंत्र महामनि विषय ब्याल के लिए।
मेटत कठिन कुअंक भाल के।।

संतान प्राप्ति के लिए
एहि विधि गर्भ सहित सब नारी।
भई हृदय हरषित सुख भारी।।
बा दिन ते हरि गर्भहि आये।
सकल लोक सुख संयति छायें।।

निर्धनता निवारण हेेतु
अतिथि पुज्य प्रियतम पुरारि के।
कामद धन दारिद दवारी के।।

शत्रुता निवारण हेतु
गरल सुधा रिपु करहि मिताई।
मोपद सिंधु अनल सितलाई।।

ज्वर नाश के लिए
स्ुानु खगपति यह कथा पावनी।
त्रिविध ताप भव भय दावनी।।

अकाल मृत्यु दोष दूर करनें हेतु
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हारा कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।

कोर्ट केस में विजय प्राप्ति हेतु
पवन तनय बल पवन समाना।
जेहि पर कृपा करहि जनु जानी।
कबि उर अजिर न चावहि बानी।।

व्यक्तित्व में निखार हेतु
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहूं।
सो तेहि मिलई न कछु संदेहूं।।

मोक्ष प्राप्ति हेतु
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुवीर।
अस विचारि रघुवीर मनि हरहु विषय भव भीर।।


जन्मांग चक्र और भवन सुख

 ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार 
मो.09001742766
सुंदर सा एक बंगला बने न्यारा ऐसी प्रायः व्यक्ति की इच्छा रहती है। कुछ भाग्यवानो को यह सुख कम आयु में ही प्राप्त हो जाता है। तो कुछेक लोग पूरी जिंदगी किरायेदार होकर ही व्यतीत कर देते है। पूर्व जन्म के शुभाशुभ कर्मो के अनुसार ही सुख की प्राप्ति होती है। भवन सुख हेतु कुण्डली मे चतुर्थ भाव व चतुर्थेश का महत्वपूर्ण स्थान है। जातक तत्व के अनुसार ’ग्रह ग्राम चतुष्टपद मित्र क्षेत्रो...... । अर्थात भवन सुख हेतु चतुर्थ भाव, चतुर्थेश की कुण्डली में शुभ एवं बलवान होकर स्थित होना जातक को उत्तम भवन सुख की प्राप्ति करवाता है तो निर्बल होकर स्थित होना लाख चाहने पर भी उचित भवन की व्यवस्था नहीं करवा पाता। चतुर्थ भाव में चतुर्थेश होना व लग्न में लग्नेश होने से या दोनों में परस्पर व्यत्यय हाने से एवं शुभ ग्रहो के पूर्ण दृष्टि प्रभाव का होना भी जातक को उत्तम भवन सुख की प्राप्ति करवाता है। भवन सुख के कुछ ज्योतिषिय योग -
1, लग्नेश से युक्त होकर चतुर्थेश सर्वोच्च या स्वक्षेत्र में हो तो भवन सुख उत्तम होता है।

2, तृतीय स्थान में यदि बुध हो तथा चतुर्थेश का नंवाश बलवान हो, तो जातक विशाल परकोट से युक्त भवन स्वामी होता है।

3, नवमेश केन्द्र में हो, चतुर्थेश स्र्वोश राशि में या स्वक्षेत्री हो, चतुर्थ भाव में भी स्थित ग्रह अपनी उच्च राशि में हो तो जातक को आधुनिक साज-सज्जा से युक्त भवन की प्राप्ति होगी

4, चतुर्थेश व दशमेश, चन्द्र व शनि से युति करके स्थित हो तो अक्समात ही भव्य बंगले की प्राप्ति होती है।

5, कारकांश लग्न में यदि चतुर्थ स्थान में राहु व शनि हो या चन्द्र व शुक्र हो तो भव्य महल की प्राप्ति होनी है।

6, कारकांश लग्न में चतुर्थ में उच्चराशिगत ग्रह हो या चतुर्थेश शुभ षष्टयांश में स्थित हो तो जातक विशाल महल का सुख भोगता है।

7,यदि कारकांश कुण्डली में चतुर्थ में मंगल व केतु हो तो भी पक्के मकान का सुख मिलता है।

8, यदि चतुर्थेश पारवतांश में हो, चन्द्रमा गोपुरांश में हो, तथा बृहस्पति उसे देखता हो तो जातक को बहुत ही सुन्दर स्वर्गीय सुखों जैसे घरो की प्राप्ति होती है।

9,यदि चतुर्थेश व लग्नेश दोनों चतुर्थ में हो तो अक्समात ही उत्तम भवन सुख प्राप्त होता है।

10,भवन सुखकारक ग्रहो की दशान्तर्दशा में शुभ गोचर आने पर सुख प्राप्त होता है।

11,चतुर्थेश स्थान, चतुर्थेश व चतुर्थ कारक, तीनों चर राशि में शुभ होकर स्थित हों या चतुर्थेश शुभ षष्टयांश में हो या लग्नेश, चतुर्थेश व द्वितीयेश तीनांे केन्द्र त्रिकोण में, शुभ राशि में हों, तो अनेक मकानांे का सुख प्राप्त होता है। यदि भवन कारक भाव-चतुर्थ हो, तो जातक को भवन का सुख नही मिल पाता ।

इन कारकों पर जितना प्रभाव बढ़ता जाएगा या कारक ग्रह निर्बल होेते जाएंगे उतना ही भवन सुख कमजोर रहेगा। पूर्णयता निर्बल या नीच होने पर आसमरन तले भी जीवन गुजारना पड़ सकता है। किसी स्थिति में जातक को भवन का सुख कमजोर रहता है, या नहीं मिल पाता इसके कुछ प्रमुख ज्योतिषीय योगों की और ध्यान आकृष्ट करें तो पाते हैं कि चतुर्थ भाव, चतुर्थेश का रहना प्रमुख है। इसके अतिरिक्त -
कारकांश कुण्डली में चतुर्थ स्थान में बृहस्पति हो तो लकड़ी से बने घर की प्राप्ति होती है। यदि सूर्य हो तो घास फूस से बने मकान की प्राप्ति होती है। चतुर्थेश, लग्नेश व द्वितीयेश पर पापग्रहों का प्रभाव अधिक होने पर जातक को अपने भवन का नाश देखना पडता है।
चतुर्थेश अधिष्ठित नवांशेष षष्ठ भाव में हो तो जातक को भवन सुख नही मिलता। चतुर्थेश व चतुर्थ कारक यदि त्रिक भावो में स्थित हो तो जातक को भवन सुख की प्राप्ति नही होती। शनि यदि चतुर्थ भाव मे स्थित हो तो जातक को परदेश में ऐसे भवन की प्राप्ति होगी, जो टुटा-फूटा एवं जीर्ण-शीर्ण पुराना हो।
द्वितीय, चतुर्थ, दशम व द्वादश का स्वामी, पापग्रहो के साथ त्रिक स्थान में हो, तो भवन का नाश होता है।
चतुर्थ भावस्थ पापग्रह की दशा में भवन की हानि होती है। भवन सुख हेतु कुण्डली में इसके अतिरिक्त नवम, दशम, एकादश, पुचम भाव का बल भी परखना चाहिए। क्यांेकि इन भावांे के बली होने पर जातक को अनायाश ही भवन की प्राप्ति होते देखी गई है। इन भावों में स्थित ग्रह, यदि शुभ होकर बली हो व भावेश भी बली होकर स्थित हो तो निश्चयात्मक रूप से उत्तम भवन सुख मिलता है।




                   

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

मंगली दोष एंव दहेज

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वर्तमान मे मंगली दोष एंव चिर परिचित शब्द है। विवाह वार्ता के समय इन दो शब्दो का मायाजाल या आंतक आपने कई बार देखा होगा । यदि कहा जाए कि 50 प्रतिशत रिश्ते इन दो दोषो के कारण अपने अंतिम चरण मे जाकर टुटते है तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी ! कई बार युवती के माता -पिता अपनी लाडली के योग्य रिश्ते की चाह मे अपना सुख -चैन खो बेठते है परंतु दहेज रूपी शेषनाग उन्हे जीवन भर डसने की कोशिस करता रहता है ! दहेज ईच्छा पुरी न करने पर अपनी संतान के साथ ससुराल पक्ष का व्यवहार बिगड जाता है ! कई बार कन्या को शारीरिक यातनाएं भी दी जाती है !

        मंगली दोष एवं दहेज का परस्पर घनिष्ठ संबंध है ! मंगल को ऋण का अचल संपन्ति का कारक ग्रह माना जाता है ! जब किसी युवक के जन्मांग मे मंगल धन -लाभ का कारक होकर ससुराल भाव से संबंध बनाए तो उसे ससुराल से धन की प्राप्ति कम हो जाती है। यहि मंगल जब कमजोर हो तो उसे ससुराल से धन कि प्राप्ति कम हो जाती है। आजकल धन कि इच्छा प्रत्येक व्यक्ति को रहती है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार से धन कि प्राप्ति करना चाहता है। ज्योतिष मे इसी कारण धन भाव को मारक भाव माना गया है। जीवन साथी का धन भाव अर्थात अष्टम भाव भी मारक भाव माना गया है। मंगल एक पाप ग्रह है। इसलिए धन प्राप्ति के लिए पाप कार्य भी करवा सकता है। जब मंगली दोष धन भाव या अष्टम भाव मे स्थिति के कारण बनता हो तो ऐसी स्थिति मे दहेज कि पूर्ति नही कर पाने के कारण उसके साथ मारपीट भी कि जाती है। इस समय अल्पायु योग वाली कन्याओ को दहेज हत्या का सामना भी करना पडता है।

आपने समाचार पत्रो मे कई बार पढा होगा कि विवाह कि रस्म या पाणिग्रहण संस्कार के समय दहेज इच्छा पुरी नही होने के कारण बारात वापिस लौट गयी । दहेज मे मारुति न मिलने कारण बारात लौट जाना अब आम बात हो गई है। दहेज लेते समय व्यक्ति विशेष का उदाहरण देकर अपनी लालसा को सही बताने कि कोशिस करते है। दहेज के कारण कई बार युवति द्वारा पुलिस केस कर दिया जाता है। तो कई बार विवाह समारोह स्थल पर तोडफोड भी कर दी जाती है। अर्थात मंगली दोष कि ऐसी स्थिति विवाह मे कोई न कोई बाधा अवश्य उत्पन्न करती है। विवाह के पश्चात भी इनका जीवन परेशानियो भरा रहता है। ससुराल पक्ष द्वारा ताने मारकर परेशान किया जाना एक सामान्य बात है। इलेक्ट्कि करट देना ,गर्म चिमटे द्वारा शरीर को दागना जैसी कई अमानवीय यातना दि जाती है। कई बार ऐसा भी होता है। कि रसोई घर मे खाना बनाते समय आगे लगने से जलकर मृत्यु हो जाती है। इसका कारण दहेज हत्या न होने पर भी दहेज हत्या का आरोप लगा दिया जाता है। तो कई बार जानबुझकर केरोसीन डालकर हत्या कर दी जाती है। अर्थात दहेज न मिलने से ससुराल पक्ष द्वारा घृणित कार्य को अंजाम दे दिया जाता है।

जिस प्रकार किसी कन्या कि कुण्डली मे दहेल कि स्थिति बनती है। उस प्रकार का किसी पुरुष कि कुंडली मे होने पर कन्या पक्ष को धन देना पडता है। वर्तमान मे कई राज्यो मे स्त्री पुरुष अनुपात अर्थात लिंगानुपात समस्या बनता जा रहा है। एक हजार पुरुषो के मुकाबलो  आढ सौ स्त्रिया होने क कारण दुसरे राज्यो से युवतिया खरीद कर विवाह किया जा रहा है। तो कई लोगो द्वारा युवती के पिता को धन देकर विवाह सम्बंध तय किया जाता है। विवाह सम्बंध के पश्चात भी जब युवती के माता पिता को आवश्यकता पडने पर धन नही दिया जाता तो उसे घर पर बैढा दिया जाता है। उसे ससुराल नही भेजा जाता । अर्थात पुरुष कि कुंडली मे दहेज जिसे दापा भी कहते है। योग होने पर दाम्पत्य जीवन मे परेशानी होती रहती है।
जब किसी जन्मंाग चक्र मे मंगली दोष के साथ दहेज योग भी निर्मित हो रहा हो तो उसे किसी योग्य ज्योतिषि का मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त करना चाहिए । विशेष रुप से लग्न, द्वितिय एंव अष्टम भाव मे मंगल स्थिति बनाकर किसी पापग्रह से सम्बंध बनाए एंव वह पाप ग्रह धनेश या लाभेश बन रहा हो तो उन्हे इस प्रकार कि पीडा सहन करनी पड सकती है।

शनिवार, 27 जुलाई 2013

कालसर्प योग शांति के उपाय

कालसर्प के कारण किसी जातक को जब परेशानियो का सामना करना पडता है तो उसे कालसर्प कि शांति करना समझदारी है ।  इसके दोषो को दुर करने हेतु  कुछ विशेष रूप से करना करना पडता है कालसर्प के दोषो को दुर करने हेतु कुछ सामान्य उपाय दिण् ज रहे है जिसके करने पर जातक को अवश्य राहत प्राप्त होती है सामान्य परंतु प्रभावशाली उपाय:-
1.मोरपंख को अपने शयनकक्ष व कार्यालय मे रखे हो सके तो पर्स मे रखे

2.सुर्य ग्रहण ,चन्द्र ग्रहण ,अमावस्या अथवा नागपंचमी के दिन एक तांबे का बडा सर्प सुबह सुर्योदय से पहले शिवलिगं पर गुप्त रूप् से चढाए उसके पश्चात चांदी का रेगता हुआ सर्प बनाकर उसके मुख पर गोमेद व पुछ पर लहसुनिया जडवाकर रि पर से सात बार उतारकर बहते पवित्र ज लमे प्रवाहीत करे

3.तांबे के कलश मे काले तिल व सर्प सर्पीणी का जोडा रखकर कुछ जल भरकर अमावस्याा के दिन शिवलिग पर अर्पित करे

4.वर्ष मे एक बार बुधवारी अमावस्या या नागपंचमी के दिन व्रत रखकर राहु के मंत्रो का चतुर्गुणित जाप कराकर दशांश हवन करे

5.चतुर्गुणित जप करने मे असमर्थ हो तो दस माला राहु के मंत्रो का जाप कर 108 बार आहुति देवे इसके लिये दुर्वा को घी मे डुबोकर काले तिल व कपुर के साथ अर्पित करे

6. नवनाग स्त्रोत व सर्प सुक्त का प्रतिदिन चंदन कि अगतबत्ती जलाकर नौ बार पाठ करे
                       नवनाग स्त्रोत
अनंतं वासुकि शेषे पदमनाभे च कंबलम ।
शंखपाल धार्तराष्टंªª तंक्षक कालियं तथा ।ं।
एतानि नव नामानि नागानाम् च महात्मनाम ।
सायं काले पठेत्रित्यं प्रात: काले विशेषत:।।
तस्मै विषभय नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत ।




सर्प सुक्त 
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पाः शेषनाग पुरोगमाः।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
इंद्रलोकेषु ये सर्पाः वासुकि प्रमुखादयाः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
कद्रवेचाश्च ये सर्पा मातृभक्ति परायण ।
 नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
इंद्रलोकेषु ये सर्पाः तक्षका प्रमुखादयाः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
सत्यलोकेषु ये सर्पाः ककोटक प्रमुखादयाः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
पृथिव्यांचैव ये सर्पा साकेत वासिताः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
सर्वग्रोमेषु ये सर्पा वसंतिषु सच्छिता ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
ग्रामे वा यदी वारण्ये ये सर्पापुचरन्ति च ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
समुद्रतीरे यो सर्पाये सर्पाजल वासिनः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
रसातलेषु ये सर्पाः अनन्तादि महाबला ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।


7.गोमुत्र से दातँ साफ रखने एवं ताजा मुली का दान करने से भी शाति मिलती है

8.पाच सुखे जटा वाले नारियल सिर पर से सत बार उतारकर जल प्रवाह करने से राहत मिलती है

9.नागपेचमी के दिन वत रखकर उसी दिन नाग प्रतीमा की अगठी पुजा कर धारण करे

10. वर्ष मे एक बार रूद्राभिषेक करने से राहत प्रप्त होती है

11.घर के दरवाजे पर स्वास्तिक लगाए

12.शिव चरणामृत का पान सोमवार को करने से राहत मिलती है

13. प्रतिदिन स्नान के उपरान्त धुप दिप जलाकर नवनाग गायत्री मंत्र का 108 बार जाप करने से भी राहत प्राप्त हो ती है ।
मंत्र:-नवकुल नागाय विùहे विषदन्ताय धीमहि तन्नो सर्पः प्रचोदयात ।

14. यदि स्वप्र मे साप दिखाई देता हो एवं उससे भय बना रहता हो तो निम्र मंत्र का संध्याकाल मे 21 या 108 बार जाप दीप जलाकर करे ।
म्ंात्र:-नर्मदाये नमः प्रातर्नदाये नमो निशि ।
नमोस्तु नर्मदे तुभ्यं ़त्राहि मा विष सर्पतः ।।

15.भवन के मुख्यद्वार के नीचे चादी का पत्र दबने पर राहत मिलती है ।

16. चादी की दो कटोरी लेकर उसमे गंगाजल भरकर एक कटोरी को किसी शिव मंदिर या नाग देवता के मंदिर मे चढाए एवं दुसरी कटोरी अपने पुजा स्थल पर रखे इसमेज ल को सुखने नही दे ऐसा करने पर भी राहत मिलती है

17.पेतिदिन स्नान करने के उपरान्त भगवान शिव का ध्यान करते हुए शिव चालिसा का पाठ करे तो कालसर्प दोष से राहत प्राप्त होती है ।

18. कालसर्प दोष होने पर जातक को किसी शुभ दिवस से प्रारंभ कर प्रतिदिन नहा धोकर पवित्र होकर दुध मिश्रित जल शिवलिंग पर चढाते हुए निम्र का इक्कीस बार जाप करना चाहिए ।
मंत्र:- नागेंद्रहराय त्रिलोचनाय भस्मांगराय महेश्वराय ।
 नित्याय शुद्वाय दिगंबराय तस्मै व काराय नमः शिवाय ।।
इसके प्रभाव मे कालसर्प दोष का अशुभ प्रभाव कम होने लगता है ।
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कब बनता है कालसर्प कष्ट कारक


 1. चंद्र या सुर्य से राहु आठवे भाव मे हो ।

 2. जन्मकुडंली मे जातक की योनी सर्प हो

 3.  चंद्र ग्रहण एवं सुर्य ग्रहण जन्ंमाक मे हो

 4.   कालसर्प योग मे राहु आठवे या बारहवे भाव मे हो  

 5. ग्रहण योग मे चंद्र ग्रहण होने पर चंद्र मन एवं कल्पना का कारण होकर जब जातक का मन किसी कार्य मे नही लगेगा तो पतन निश्चित है । सुर्य ग्रहण होने पर जातक को आत्मिक रूप् से परेशानी अवश्य रहती है                                                                                                
   6  कालसर्प मे मंगल राहु का योग होने पर जातक कि तर्क शक्ति एवं निर्णय शक्ति प्रभावित होती है जातक मे आलस्य की भावना रहने से भी सुख प्राप्त नही हो पाता ।
                            
 7.     कालसर्प मे बुध राहु के योग से जडत्व योग का निर्माण होता है । बुध कमजोर भी हो तो जातक कि बौद्विक शक्ति कमजोर होगी बुद्विमान लोग ही जीवन मे सफलता प्राप्त कर पाते है बुद्विहीनता के कारण जातक पैतृक प्रभाव सम आर्थिक रूप से मजबुत होगा तो भी राहु काल या बुध दशा मे अपनाा सर्वस्व गवाा देगा ।                              
 8. कालसर्प मे वृह - राहु से चाडाल योग का लिर्माण होता है वृह ज्ञान एवं पुण्य का कारक है यदि जातक अपने शुभ प्रारब्ध के कारण सक्षम होगा तो अज्ञान एवं पाप प्रभाव के कारण शुभ प्रारब्ध को स्थिर नही रख पायेगा अर्थात अपने शुभ कर्माे मे कमी से जातक का विनाश निश्चित है                                                                                              
  9. कालसर्प मे शुक्र राहु योग से अमोत्वक योग का निर्माण होता है । इसके कारण जो शुक्र एवं लक्ष्मी का कारक है पे्रम मे कमी एवं लक्ष्मी ,भार्या का  अनादर सभी विफलताओ का मुल है                                                                                        
  10. कालसर्प मे शनि राहु योग से नंदि योग का निर्माण होता है शनि राहु दोनो पृथक्कताजनक एवं विच्छेदकारी ग्रह है इसलिए इनका प्रभाव जातक को निराशा कि ओर ले जायेगा                                                                                
  11. कालसर्प योग की स्थिति मे केन्द्र त्रिकोण मे पाप ग्रह स्थित हो                                      

  12.कालसर्प योग वाले जातक का जन्म गंडमुल नक्षत्र मे हो
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बुधवार, 24 जुलाई 2013

श्रावण मास मे करे भगवान शिव का अभिषेक और पूजन

(ज्योतिषाचार्य वागाराम परिहार)
श्रावण मास में पूजा करने से सभी देवताओं की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। इसमें कोई शंका नही हैं। श्रावण मासारंभ से मासांत तक शिव के दर्शन हेतु श्रद्धालु शिवालय अवश्य जाते है। श्रद्धालुओं में भक्ति भावना भी इसी मास में विशेष जागृत होती हैं। इस शिव पूजन के साथ-साथ उनकी कथा अर्थात् शिव पुराण का भी श्रवण करना चहिए। कई श्रद्धालु इस मास में व्रत रखते है उन्हें व्रत के साथ-साथ अपनी वाणी पर संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, सत्य वचन एवं अनैतिक कार्यो से दूर रहना चाहिए। धर्म,कर्म एवं दान के प्रति भी लोगों का विशेष रूझान देख जा सकता हैं।
           भगवान शंकर की विभिन्न फूलों से पूजन करने का भी भिन्न फल मिलता है। शिव पर कुछ पुष्प नहीं चढाने का निर्देश है-
           बन्धुकं केतकीं कुन्दं केसरं कुटजं जयाम्।
           शंकरे नार्पयेद्विद्वान्मालतीं युधिकामपि।।
       अर्थात् शंकर पर बन्धुकं, केतकी, कुन्द,मौलसरी, कोरैया, जयपर्ण, मालती तथा जुही ये पुष्प शंकर पर नहीं चढाए जाते हैं। बेलपत्र, शतपत्र एवं कमलपत्र से पूजन करने से लक्ष्मी कृपा, आक का पुष्प चढानें से मान-सम्मान में वृद्धि होती है। धतुरे के पुष्प चढाने से विष भय एवं ज्वर भय मिटता है कहा भी है-
’’ आक धतुरा चबात फिरे, विष खात शिव तेरे भरोसे। ‘‘  जवा पुष्प से सावन मास में शिव का पूजन करने से शत्रु का नाश होता है तो गंगा जल से अभिषेक करना मोक्ष प्रदाता माना गया है। साधारण जल से अभिषेक भी वर्षा की प्राप्ति करवाता है। दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करने से आत्मा को सुकुन मिलता है एवं संतान सुख प्राप्त होता है। तो लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने हेतु गन्ने के रस से या गुड मिश्रित जल अभिषेक करना शुभ माना जाता है। मधु या घी या दही से अभिषेक करने पर भी आर्थिक स्थिति मजबूत बनती है। रोगों से ग्रसित जातकों हेतु विशेष रूप से शुक्र से पीडित जातकों हेतु केवल दुध को अर्पित करना चाहिए। सूर्य एवं चंद्र कृत रोगों से मुक्ति हेतु शहद अर्पित करना विशेष विशेष लाभदायक है तो मंगल कृत रोगों से बचाव हेतु गुड मिले जल से अभिषेक करना चाहिए। बृहस्पति की कृपा हेतु हल्दी मिश्रित या दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करना उतम लाभ की प्राप्ति करता है। आप भी जिस ग्रह की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं। उसी ग्रह के अनुसार पूजन सावन मास में अवश्य करें। किसी कामना विशेष हेतु भी आप किसी विशेष प्रयोग को सावन मास में कर शिव कृपा प्राप्त कर सकते है।
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आपकी राषि, नक्षत्र और रोगोपचार



          भारतीय ज्योतिश में राषि एवं नक्षत्र का अपना विषेश महत्त्व है। किसी राषि एवं नक्षत्र के आधार पर रोगों का वर्णन प्राचीन आचार्यो ने किया है। बारह राषियों अर्थात् सत्ताईष नक्षत्रों को अंगों में स्थापित करने पर मानव षरीर की आकृति बनती है। नवग्रहों में चन्द्र सर्वाधिक गतिषील ग्रह है, इसलिये इसका मानव षरीर पर भी सर्वाधिक प्रभाव मान सकते हैं। हमारे षरीर का लगभग 70 प्रतिषत भाग जल है। ज्योतिश में जल का स्वामी चन्द्र को ही माना है, इसलिये भारतीय ज्योतिश में चन्द्र को महत्वपूर्ण स्थान देकर उसका जन्म समय जिस राषि या नक्षत्र में गोचर होता है, वही हमारी जन्मराषि या जन्म नक्षत्र माना जाता है। इस राषि या नक्षत्र के आधार पर जातक को कौन रोग हो सकता है एवं इस रोग से बचाव का सुलभ उपाय क्या होगा, इसकी जानकारी इस अध्याय में दी जा रही है। नक्षत्र के आराध्य अथवा उसके प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करके भी रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है:-
      1 अष्विनी:- वराह ने अष्विनी नक्ष्त्र का घुटने पर अधिकार माना है।  इसके पीडित होने पर बुखार भी   रहता है। यदि आपको घुटने से सम्बन्धित पीडा हो, बुखार आ रहा हो तो आप अपामार्ग की जड धारण करें। इससे आपको रोग की पीडा कम होगी।

      2   भरणी:- भरणी नक्षत्र का अधिकार सिर पर माना गया है। इसके पीडित होने पर पेचिष रोग होता        है। इस प्रकार की पीडा पर अगस्त्य की जड धारण करें।

3 कृतिका:- कृतिका नक्षत्र का अधिकार कमर पर है। इसके पीडित होने पर कब्ज एवं अपच की समस्या होती है। आपका जन्म नक्षत्र यदि कृतिका हो तथा कमर दर्द, कब्ज, अपच की षिकायत हो तो कपास की जड धारण करें।

4 रोहिणी:- रोहिणी नक्षत्र का अधिकार टांगों पर होता है। इसके पीडित होने पर सिरदर्द, प्रलाप, बवासीर जैसे रोग होते है। इस प्रकार की पीडा होने पर अपामार्ग या आंवले की जड धारण करें।

5 मृगषिरा:- मृगषिरा नक्षत्र का अधिकार आँखों पर है। इसके पीडित होने पर रक्त विकार, अपच,एलर्जी जैसे रोग होते है। ऐसी स्थिति में खैर की जड धारण करें।

6 आद्र्रा:- आद्र्रा नक्षत्र का अधिकार बालों पर है। इसके पीडित होने पर मंदाग्नि, वायु विकार तथा आकस्मिक रोग होते हैं। इससे प्रभावित जातकों को ष्यामा तुलसी या पीपल की जड धारण करनी चाहिये।

7 पुनर्वसु:- पुनर्वसु नक्षत्र का अधिकार अंगुलियों पर है। इसके पीडित होने पर हैंजा, सिरदर्द, यकृत रोग होते है। इन जातकों को आक की जड धारण करनी चाहिये। ष्वेतार्क जडी मिले तो सर्वोत्तम हैं।

8 पुश्य:- पुश्य नक्षत्र का अधिकार मुख पर है। स्वादहीनता, उन्माद, ज्वर इसके कारण होते है। इनसे पीडित जातकों को कुषा अथवा बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।

9 आष्लेशा:- आष्लेशा नक्षत्र का अधिकार नाखून पर है। इसके कारण रक्ताल्पता एवं चर्म रोग होते है। इनसे पीडित जातको को पटोल की जड धारण करनी चाहिये।

10 मघा:- मघा नक्षत्र का अधिकार वाणी पर है। वाणी सम्बन्धित दोश, दमा आदि होने पर जातक भृगराज या वट वृक्ष की जड धारण करें।

11 पूर्वाफाल्गुनी:- पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुप्तांग पर है। गुप्त रोग, आँतों में सूजन, कब्ज, षरीर दर्द होने पर कटेली की जड धारण करें।

12 उत्तराफाल्गुनी:- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुदा, लिंग, गर्भाषय पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित रोग मधुमेह होने पर पटोल जड धारण करें।

13 हस्त:- हस्त नक्षत्र का अधिकार हाथ पर होता है। हाथ में पीडा होने या षरीर में जलदोश अर्थात् जल की कमी, अतिसार होने पर चमेली या जावित्री मूल धारण करें।

14 चित्रा:- चित्रा नक्षत्र का अधिकार माथे पर होता है। सिर सम्बन्धित पीडा, गुर्दे में विकार, दुर्घटना होने पर अनंतमूल या बेल धारण करें।

15 स्वाति:- स्वाति नक्षत्र का अधिकार दाँतों पर है, इसलिये दंत रोग, नेत्र पीडा तथा दीर्घकालीन रोग होने पर अर्जुन  मूल धारण करें।

16 विषाखा:- विषाखा नक्षत्र का अधिकार भुजा पर है। भुजा में विकार, कर्ण पीडा, एपेण्डिसाइटिस होने पर गुंजा मूल धारण करें।

17 अनुराधा नक्षत्र का अधिकार हृदय पर है। हृदय पीडा, नाक के रोग, षरीर दर्द होने पर नागकेषर की जड धारण करें।

18 ज्येश्ठा:- ज्येश्ठा नक्षत्र का अधिकार जीभ व दाँतों पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित पीडा होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।

19 मूल:- मूल नक्षत्र का अधिकार पैर पर है। इसलिये पैरों में पीडा, टी.बी. होने पर मदार की जड धारण करें।

20 पूर्वाशाढा:- पूर्वाशाढा नक्षत्र का अधिकार जांघ, कूल्हों पर होता है। जाँघ एवं कूल्हों में पीडा,  कार्टिलेज की समस्या, पथरी रोग होने पर कपास की जड धारण करें।

21 उतराशाढा:-उतराशाढा नक्षत्र का अधिकार भी जाँघ एवं कूल्हो पर माना है। हड्डी में दर्द, फे्रक्चर होने, वमन आदि होने पर कपास या कटहल की जड धारण करें।

22 श्रवण:- श्रवण नक्षत्र का अधिकार कान पर होता है। इसलिये कर्ण रोग, स्वादहीनता होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।

23 धनिश्ठा:- धनिश्ठा नक्षत्र का अधिकार कमर तथा रीढ की हड्डी पर होता है। कमर दर्द, गठिया आदि होने पर भृंगराज की जड धारण करें।

24 षतभिशा:- षतभिशा नक्षत्र का अधिकार ठोडी पर होता है। पित्ताधिक्य, गठिया रोग होने पर कलंब की जड धारण करें।

25 पूर्वाभाद्रपद:- पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार छाती, फेफडों पर होता हैं। ष्वास सम्बन्धी रोग होने पर आम की जड धारण करें।

26 उतराभाद्रपद:- उतराभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार अस्थि पिंजर पर होता है। हांफने की समस्या होने पर पीपल की जड धारण करें।

27 रेवती:- रेवती नक्षत्र का अधिकार बगल पर होता है। बगल में फोडे-फुंसी या अन्य विकार होने पर महुवे की जड धारण करें।
          जब किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य पीडा हो तो आपको अपने जन्म नक्षत्र के प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करनी चाहिये। यदि आपको अपना जन्म नक्षत्र पता नहीं है तो आपको किस प्रकार की स्वास्थ्य पीडा है तथा वह षरीर के किस अंग से सम्बन्धित है अथवा वह रोग किसके अन्तर्गत आ रहा है, उससे सम्बन्धित वृक्ष की जडी ऊपर बताये अनुसार धारण करें तो आपको अवष्य अनुकूल फल की प्राप्ति होगी।
      आपकी राषि के अनुसार जडी धारण करके भी रोग के प्रकोप को कम कर सकते हैं। आप अपनी राषि अपने नाम के प्रथम अक्षर से जान सकते हैं। इस आधार पर:-
मेश राषि वालों को पित्त विकार, खाज-खुजली, दुर्घटना, मूत्रकृच्छ की समस्या होती है। मेश राषि का स्वामी ग्रह मंगल है। इन्हें अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये।
व्ृाष्चिक राषि वालों को भी उपरोक्त रोगों की ही समस्या होती हैं। इन्हें भी अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये
व्ृाशभ एवं तुला राषि वालों को गुप्त रोग, धातु रोग, षोथ आदि होते हैं। यदि आपकी राषि वृशभ अथवा तुला हो तो आपको सरपोंखा की जड धारण करनी चाहिये।
मिथुन एवं कन्या राषि वालों को चर्म विकार, इंसुलिन की कमी, भ्रांति, स्मुति ह्नास, निमोनिया, त्रिदोश ज्वर होता है। इन्हें विधारा की जड धारण करनी चाहिये।
कर्क राषि वालों को सर्दी-जुकाम, जलोदर, निद्रा, टी.बी. आदि होते हैं। इन्हें खिरनी की जड धारण करनी चाहिये।
सिंह राषि वालों को उदर रोग, हृदय रोग, ज्वर, पित्त सम्बन्धित विकार होते हैं। इन्हें अर्क मूल धारण करनी चाहिये। बेल की जड भी धारण कर सकते हैं।
धनु एवं मीन राषि वालों को अस्थमा, एपेण्डिसाइटिस, यकृत रोग, स्थूलता आदि रोग होते हैं। इन्हें केले की जड धारण करनी चाहिये।
मकर एवं कुंभ राषि वालों को वायु विकार, आंत्र वक्रता, पक्षाघात, दुर्बलता आदि रोग होते हैं। इन्हें बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।
  चन्द्र का कारकत्व जल हैं। इसलिये चन्द्र निर्बल होने पर जल चिकित्सा लाभप्रद सिद्ध होती हैं। हमारे षरीर में लगभग 70 प्रतिषत जल होता है। इसलिये षरीर की अधिकांष क्रियाओं में जल की सहभागिता होती है। जल चिकित्सा से जो वास्तविक रोग है, उसका उपचार तो होता ही है इसके साथ अन्य अंगों की षुद्धि भी होती है। इस कारण षरीर में भविश्य में रोग होने की सम्भावना भी कम होती है। जल एक अच्छा विलायक है। इसमें विभिन्न तत्त्व एवं पदार्थ आसानी से घुल जाते हैं जिससे रोग का उपचार आसानी से हो जाता है। जल चिकित्सा में वाश्प् स्नान, वमन,एनीमा, गीली पट्टी, तैरना, उशाःपान एवं अनेक प्रकार की चिकित्सायें हैं। दैनिक क्रियाओं में भी हम जल का उपयोग करते रहते हैं। लेकिन जब चन्द्र कमजोर एवं पीडित होकर उसकी दषा आये तभी जल के अनुपात में षारीरिक असंतुलन बनता है। हमारे षरीर में स्थित गुर्दे जल तत्त्वों का षुद्धिकरण करते हैं। जल की अधिकता होने पर पसीने के रूप में जल बाहर निकलता है जिससे षरीर का तापमान कम हो जाता है। इसलिये जल सेवन अधिक करने पर जोर दिया जाता है ताकि षरीर स्वस्थ रहे अर्थात् चन्द्र की कमजोरी स्वास्थ्य में बाधक न बने। इस प्रकार हमारे लिये चन्द्र महत्त्वपूर्ण ग्रह बन जाता है।            
                                                                                     ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                      मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                      जिला- सिरोही (राज.) 307512
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मंगलवार, 23 जुलाई 2013

गण्डमूल नक्षत्र


अष्विनी, आष्लेशा, मघा, ज्येश्ठा, मूल व रेवती ये 6 नक्षत्र सम्पूर्ण मान के गण्डमूल नक्षत्र कहलाते हैं। इनमेें जन्म होने पर अषुभ माना गया है। किस नक्षत्र के किस चरण में जन्म होने पर अषुभ फल किस रूप में प्राप्त होता हैं। इसकी जानकारी प्रस्तुत हैंः-
1 अष्विनी:- अष्विनी नक्षत्र का स्वामी केतु है। इसके प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के पिता को कश्ट की सम्भावना रहती है। जन्म के पष्चात् पिता को कुछ न कुछ चिन्ता अवष्य रहती है।

       द्वितीय चरण में जन्म होने पर सुख की प्राप्ति होती है। जातक को गण्डमूल दोश का प्रभाव नगण्य रहता है।
      तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक को राज्य स्तर पर अच्छे पद की प्राप्ति होती है। जातक का जीवन सुखमय व्यतीत होता है।

       चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक को राजकीय मान-सम्मान की प्राप्ति होती रहती है। जीवन समृद्ध रहता है।

         अर्थात् अष्विनी के प्रथम चरण में उत्पन्न जातक को गण्ड का प्रभाव अधिक रहता है। विषेशतया अष्विनी नक्षत्र प्रारम्भ के अर्थात् प्रथम चरण के प्रथम 48 मिनिट का समय विषेश कश्टदायक माना गया है। अष्विनी नक्षत्र यदि रविवार के दिन पड रहा हो तो गण्ड देाश कम हो जाता है।
2 आष्लेशा:- आष्लेशा नक्षत्र में उत्पन्न जातक अपनी सास के लिये कश्टदायक होता है, विषेश रूप से जब प्रथम चरण में जन्म नहीं हो। इस नक्षत्र में उत्पन्न जातक मानसिक रूप से कमजोर रहते है। इनको व्यावहारिक ज्ञान का अभाव होता है। यदि चन्द्रमा पर पापग्रहों का प्रभाव हो तो पागलपन, उन्माद की सम्भावना बढ जाती है।

      आष्लेशा नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न जातक आर्थिक रूप से सम्पन्न होता हैं। जीवन में धन सम्बन्धी समस्या कम ही रहती है।
      द्वितीय चरण में उत्पन्न जातक को आर्थिक हानि की सम्भावना अधिक रहती है। ऐसे जातकों को किसी प्रकार की जोखिम नहीं उठानी चाहिये। षेयर बाजार, लाॅटरी या अन्य में निवेष करते समय किसी विद्वान ज्योतिशी द्वारा परामर्ष अवष्य लें अन्यथा धन डूबने की आषंका बनती है।

      आष्लेशा के तृतीय चरण में उत्पन्न जातक माता के लिये कश्टकारी होता है। जातक के जन्म के पष्चात् माता का स्वास्थ्य कमजोर बना रहता है।

     चतुर्थ चरण में उत्पन्न जातक पिता के लिये कश्टकारक होते हैं। इसके कारण पिता को जीवन में अनेक परेषानियां उठानी पडती हैं।

      आष्लेशा नक्षत्र की औसत मान 60 घडी के अनुसार किस घडी में जन्म होने पर किस फल की सम्भावना अधिक रहती है, इसका विचार किया गया है। आष्लेशा नक्षत्र के प्रथम पांच घडी में जन्म होने पर उसे उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है। यहाँ एक घडी या घटी का मान 24 मिनट का समझें। छः से बारह घटी में जन्म होने पर पिता को कश्ट, तेरह से चैदह में मातृ कश्ट, पन्द्रह से सत्रह में जन्म होने पर धूर्त व लम्पट, अठटारह से इक्कीस घटी में जन्म होने पर बलवान, तीस से चालीस घटी में जन्म होने पर आत्महत्या करने वाला, इकतालिस से छियालिस घटी में जन्म होने पर बिना किसी प्रयोजन के भागदौड करने वाला, सैतालिस से पचपन में जन्म होने पर तपस्वी व अन्तिम पांच घटी में जन्म होने पर धननाषक होता है।

3 मघा:- मघा नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक की माता को कश्ट रहता है। जन्म के पष्चात् माता का स्वास्थ्य कमजोर रहता हैं।

       द्वितीय चरण में जन्म होने पर पिता को कश्ट रहता है। जातक के कारण उसके पिता को हर समय कुछ न कुछ परेषानी बनी रहती है।

      तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक का जीवन सुखमय व्यतीत होता है। जातक को जीवन में आवष्यकतानुसार धन प्राप्त होता रहता है।

      चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक को धन लाभ की सम्भावना अच्छी रहती है। ऐसा जातक उच्च षिक्षा प्राप्त करता है। अपनी बुद्धि एवं विद्या के कारण मान-सम्मान भी प्राप्त होता है।

4 ज्येश्ठा:- ज्येश्ठा नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के बडे भाई को कश्ट होता है।

       द्वितीय चरण में जन्म होने पर छोटे भाई को कश्ट होता है।

       ज्येश्ठ नक्षत्र के तृतीय चरण में जन्म होने पर माता को एवं चतुर्थ चरण में जन्म होने पर स्वयं को कश्ट होता है।

        यदि रविवार या बुधवार के दिन पडने वाले ज्येश्ठा नक्षत्र को जन्म हो तो कश्ट की सम्भावना कम हो जाती है।

5 मूल:- मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के पिता को कश्ट होता है। कन्या जातक को चैपाये जानवरों, किसी वाहन से दुर्घटना की सम्भावना रहती है।

         द्वितीय चरण में जातक की माता को कश्ट रहता है। कन्या का जन्म होने पर वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती है।

       तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक को आर्थिक रूप से परेषानी उठानी पडती है। कन्या का जन्म होने पर वह पिता के लिये कश्टकारी होती है।

        चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक सुखी रहता है लेकिन कन्या का जन्म हो तो माता के लिये कश्टकारक हेाती है। चतुर्थ चरण में उत्पन्न जातक या जातिका अपने ससुर के लिये कश्टकारक होती हैं।
     
  मूल नक्षत्र में उत्पन्न बालक एवं कन्या का घटी अनुसार षुभाषुभ

प्रथम 5 घटी 5 घटी 8 घटी 8 घटी 2 घटी 8 घटी 2 घटी 10 घटी 6 घटी 6 घटी
राज्य प्राप्ति पितृ कश्ट धन हानि कामचोर घात राज्य लाभ अल्पायु सुख व्यर्थ भ्रमण अल्पायु

6  रेवती नक्षत्र:- रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर राज्य की तरफ से मान-सम्मान एवं धन-लाभ की प्राप्ति, द्वितीय चरण जन्म होने पर राजकीय सेवा , सुख-षांति, तृतीय चरण में जन्म होने पर धन लाभ, सुख-षांति एवं चतुर्थ चरण में जन्म होने पर अत्यन्त कश्टमय जीवन व्यतीत होता है।

    रेवती नक्षत्र यदि बुधवार या रविवार के दिन पडे एवं उस दिन जन्म हो तो गण्डदोश कम हो जाता है। गण्ड नक्षत्रों में जन्म होने पर कब दोश का प्रभाव रहता है। इसके बारे मे आप इस प्रकार जान सकते हैं:-

1 अष्विनी नक्षत्र रविवार के दिन पडे एवं ज्येश्ठा व रेवती षनिवार या बुधवार को पडे तो गण्डदोश कम होता है।

2 गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा का लग्नेष या षुभग्रह से सम्बन्ध हो।

3 गण्ड नक्षत्र होने पर चन्द्रमा किसी षुभ भाव में हो।

 गण्ड नक्षत्र की षांति सूतक समाप्त होने पर करें।
यदि उस समय सम्भव न हो तो पुनः जब नक्षत्र आये तब षांति करें।
इसके अतिरिक्त जब सम्भव हो तब षीघ्र ही षांति कर लेनी चाहिये अन्यथा विवाह से पूर्व षांति अवष्य करें।
       जिस गण्ड नक्षत्र में जन्म हो उसके स्वामी ग्रह के मंत्र का जाप करना गण्डदोश षांति में सहायक होता है। बुध एवं केतु के नक्षत्र में जन्म लेने पर गण्डदोश बनता है। इसलिये जीवन में गण्डमूल प्रभाव कम हो, इसके निवारणार्थ गणपति उपासना करनी चाहिये। जातक स्वयं बुध एवं केतु के मंत्रों का जाप कर सकता हैं। इसकी विषिश्ट षांति हेतु किसी कर्मकाण्डी से परामर्ष कर सकते हैं। ब्राह्मण भोजन, गाय का दान, वस्त्र दान आदि जन्म नक्षत्र वाले दिन अपनी सामथ्र्य अनुसार करने पर भी गण्ड प्रभाव कम होता हैं।
                                                                                     ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                     मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                     जिला- सिरोही (राज.) 307512
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कहाँ हैं द्वादश ज्योतिर्लिंग?

 
(ज्योतिषाचार्य वागाराम परिहार)
भगवान शंकर के भक्तों के लिये उनके द्वादशज्योतिर्लिंगों का दशर्न मोक्ष प्राप्ति से कम नहीं है। इन द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन का अर्थ है, भगवान् शिव के सभी विशिष्ट रूपों का दर्शन। भगवान् शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों के मन्दिरोें को लेकर जनमानस में ही नहीं, वरन् पुराणों में भी मतभेद हैं। कई ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों के रूप में जाने जाते है, लेकिन वास्तव में कौनसे ज्योतिर्लिंग ही भगवान् शिव के वास्तविक द्वादश ज्ष्योतिर्लिंग है और वे कहाँ स्थिति है, यह बताना ही इस लेख का प्रमुख उद्देश्य है। द्वादश ज्ष्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में निम्नलिखित स्तोत्र प्रसिद्ध है:
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोक्ङारममलेश्वरम्।।
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशक्ङरम्।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारूकावने।
सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं च शिवालये।।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरूत्थाय यः पठेत्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलों भवेत्।।
इस आधार पर सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल, मल्लिकार्जुन, उज्जैन के श्रीमहाकालेश्वर, श्रीओंकारेश्वर और श्रीअमलेश्वर या श्रीममलेश्वर, हिमालय में श्रीकेदारनाथ, डाकिनी प्रदेश के श्रीभीमशंकर, वाराणसी के श्रीविश्वनाथ, गौतमीतट पर श्रीत्र्यम्बकनाथ, श्रीवैद्यनाथ, श्रीनागेश्वर, सेतुबन्ध के श्रीरामेश्वरम् और श्रीघुश्मेश्वर ज्योतिर्लिगों में सम्मिलित हैं।
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सोमवार, 22 जुलाई 2013

श्रावण मास के सोमवार व्रत

श्रावण मास में भगवान शिवशंकर की पूजा अर्चना का बहुत अधिक महत्व है। भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए श्रावण मास में भक्त लोग उनका अनेकों प्रकार से पूजन अभिषेक करते हैं। भगवान भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होने वाले देव हैं। वह प्रसन्न होकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करते हैं।

श्रावण मास में पूजा करने से सभी देवताओं की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। इसमें कोई शंका नही हैं। श्रावण मासारंभ से मासांत तक शिव के दर्शन हेतु श्रद्धालु शिवालय अवश्य जाते है। श्रद्धालुओं में भक्ति भावना भी इसी मास में विशेष जागृत होती हैं। इस शिव पूजन के साथ.साथ उनकी कथा अर्थात् शिव पुराण का भी श्रवण करना चहिए। कई श्रद्धालु इस मास में व्रत रखते है उन्हें व्रत के साथ.साथ अपनी वाणी पर संयमए ब्रह्मचर्य का पालनए सत्य वचन एवं अनैतिक कार्यो से दूर रहना चाहिए। धर्मएकर्म एवं दान के प्रति भी लोगों का विशेष रूझान देख जा सकता हैं।

बारह मासों का नामाकरण शुक्ल पूर्णिमा के दिन चंद्र की नक्षत्रगत स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है। श्रावण मास का नामकरण भी श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में चंद्र की स्थिति के कारण किया गया है। श्रवण नक्षत्र का स्वामी चंद्र है। वारों में में सोमवार भी इसी आधार पर शिवपूजन हेतु उपयुक्त माना है। श्रद्धालु पूरे मास नही ंतो सोमवार के दिन शिवालय इसी आस्था के कारण जाता है। सावन मास में रूद्राभिषेक करनाए रूद्राक्ष माला धारण करना एवं ओम नमः शिवाय का जाप करना अत्यन्त लाभकारी बनता है। इस मास में सोमवार व्रत तो अधिकांशतया करते है लेकिन अन्य वारों का व्रत भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

इस मास के रविवार का व्रत सूर्य व्रतए सोमवार का रोटकए मंगल का मंगलागौरीए बुधवार का बुध व्रतए गुरूवार का बृहण् व्रतए शुक्रवार का जींवतिका व्रत व शनिवार का व्रत हनुमान व्रत कहलाता है। इस प्रकार मास के प्रत्येक वार का व्रत अत्यन्त शुभदायक बनता है। इस मास में स्त्रियां तिथि एवं वारानुसार अलग.अलग व्रत रखती है एवं मासांत में रक्षाबंधन के दिन स्त्रियां अपने भाई को रक्षासुत्र बांधकर अपने जीवन की रक्षा हेतु वचन भी प्राप्त करती हैं। प्रत्येक तिथि के व्रत अनुसार तिथि विशेष के देवता का पूजन भी किया जाता है।
श्रावण मास के समस्त सोमवारों के दिन व्रत लेने से पूरे साल भर के सोमवार व्रत का पुण्य मिलता है। सोमवार के व्रत के दिन प्रातः काल ही स्नान ध्यान के उपरांत मंदिर श्री गणेश जी की पूजा के साथ शिव पार्वती और नंदी बैल की पूजा की जाती है। इस दिन प्रसाद के रूप में जल, दूध, दही, शहद, घी,चीनी बनाकर भगवान का पूजन किया जाता है।

रात्रिकाल में घी और कपूर सहित धूप की आरती करके शिव महिमा का गुणगान किया जाता है। लगभग श्रावण मास के सभी सोमवारों को यही प्रक्रिया अपनाई जाती है।

सुहागन स्त्रियों को इस दिन व्रत रखने से अखंड सौभाग्य ऐवम पति पुत्र का सुख मिलता है। विद्यार्थियों को सोमवार का व्रत रखने से और शिव मंदिर में जलाभिषेक करने से विद्या और बुद्धि की प्राप्ति होती हैएपरीक्षा परिणाम अछा रहता है। बेरोजगार और अकर्मण्य जातकों को रोजगार मिलने से मान प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है।
सदगृहस्थ नौकरी पेशा या व्यापारी को श्रावण के सोमवार व्रत करने से धन धान्य और लक्ष्मी की वृद्धि होती है। प्रौढ़ तथा वृद्ध जातक अगर सोमवार का व्रत रख सकते हैं तो उन्हें इस लोक और परलोक में सुख सुविधा और आराम मिलता है। सोमवार के व्रत के दिन गंगाजल से स्नान करना और देवालय तथा शिव मंदिर में जल चढ़ाना आज भी उत्तर भारत में कांवड़ परंपरा का सूत्रपात करती हैं।
अविवाहित महिलाएं अनुकूल वर के लिए श्रावण के सोमवार का व्रत धारण कर सकती हैं। सुहागन महिला अपने पति एवं पुत्र की रक्षा के लिएए कुंवारी कन्या इच्छित वर प्राप्ति के लिए एवं अपने भाईए पिता की उन्नति के लिए पूरी श्रद्धा के साथ व्रत धारण करती हैं। श्रावण व्रत कुल वृद्धि के लिएए लक्ष्मी प्राप्ति के लिएए सम्मान के लिए भी किया जाता है।

इस व्रत में माता पार्वती और शिवजी का पूजन किया जाता है। शिवजी की पूजाण्अराधना में गंगाजल से स्नान और भस्म अर्पण का विशेष महत्त्व है। पूजा में धतूरे के फूलोंए बेलपत्रए धतूरे के फलए सफेद चन्दनए भस्म आदि का प्रयोग अनिवार्य है।

सुबह स्नान कर सफेद वस्त्र धारण कर काम क्रोध आदि का त्याग करें। सुगंधित श्वेत पुष्प लाकर भगवान का पूजन करें। नैवेद्य में अभिष्ट अन्न के बने हुए पदार्थ अर्पण करें।

निम्न मंत्र से संकल्प लें.
   मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं सोमव्रतं करिष्येश्

शिव का ध्यान मंत्र .
श्ध्यायेन्नित्यंमहेशं रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्‌।
पद्मासीनं समंतात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्ववंद्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्‌॥
इन मंत्रो से पूजा व हवन करें। ऐसा करने से सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं।

1 ऊँ नमः शिवाय
2  ओम नमो दशभुजाय त्रिनेत्राय पन्चवदनाय शूलिने। श्वेतवृषभारुढ़ाय सर्वाभरणभूषिताय। उमादेहार्धस्थाय नमस्ते सर्वमूर्तयेनमः 





रविवार, 21 जुलाई 2013

शिव को प्रिय है श्रावण मास


                                       (ज्योतिषाचार्य वागाराम परिहार)
         श्रावण मास में पूजा करने से सभी देवताओं की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। इसमें कोई शंका नही हैं। श्रावण मासारंभ से मासांत तक शिव के दर्शन हेतु श्रद्धालु शिवालय अवश्य जाते है। श्रद्धालुओं में भक्ति भावना भी इसी मास में विशेष जागृत होती हैं। इस शिव पूजन के साथ-साथ उनकी कथा अर्थात् शिव पुराण का भी श्रवण करना चहिए। कई श्रद्धालु इस मास में व्रत रखते है उन्हें व्रत के साथ-साथ अपनी वाणी पर संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, सत्य वचन एवं अनैतिक कार्यो से दूर रहना चाहिए। धर्म,कर्म एवं दान के प्रति भी लोगों का विशेष रूझान देख जा सकता हैं।
           बारह मासों का नामाकरण शुक्ल पूर्णिमा के दिन चंद्र की नक्षत्रगत स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है। श्रावण मास का नामकरण भी श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में चंद्र की स्थिति के कारण किया गया है। श्रवण नक्षत्र का स्वामी चंद्र है। वारों में में सोमवार भी इसी आधार पर शिवपूजन हेतु उपयुक्त माना है। श्रद्धालु पूरे मास नही ंतो सोमवार के दिन शिवालय इसी आस्था के कारण जाता है। सावन मास में रूद्राभिषेक करना, रूद्राक्ष माला धारण करना एवं ओम नमः शिवाय का जाप करना अत्यन्त लाभकारी बनता है। इस मास में सोमवार व्रत तो अधिकांशतया करते है लेकिन अन्य वारों का व्रत भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस मास के रविवार का व्रत सूर्य व्रत, सोमवार का रोटक, मंगल का मंगलागौरी, बुधवार का बुध व्रत, गुरूवार का बृह. व्रत, शुक्रवार का जींवतिका व्रत व शनिवार का व्रत हनुमान व्रत कहलाता है। इस प्रकार मास के प्रत्येक वार का व्रत अत्यन्त शुभदायक बनता है। इस मास में स्त्रियां तिथि एवं वारानुसार अलग-अलग व्रत रखती है एवं मासांत में रक्षाबंधन के दिन स्त्रियां अपने भाई को रक्षासुत्र बांधकर अपने जीवन की रक्षा हेतु वचन भी प्राप्त करती हैं। प्रत्येक तिथि के व्रत अनुसार तिथि विशेष के देवता का पूजन भी किया जाता है।
           भगवान शंकर की विभिन्न फूलों से पूजन करने का भी भिन्न फल मिलता है। शिव पर कुछ पुष्प नहीं चढाने का निर्देश है-
           बन्धुकं केतकीं कुन्दं केसरं कुटजं जयाम्।
           शंकरे नार्पयेद्विद्वान्मालतीं युधिकामपि।।
       अर्थात् शंकर पर बन्धुकं, केतकी, कुन्द,मौलसरी, कोरैया, जयपर्ण, मालती तथा जुही ये पुष्प शंकर पर नहीं चढाए जाते हैं। बेलपत्र, शतपत्र एवं कमलपत्र से पूजन करने से लक्ष्मी कृपा, आक का पुष्प चढानें से मान-सम्मान में वृद्धि होती है। धतुरे के पुष्प चढाने से विष भय एवं ज्वर भय मिटता है कहा भी है-
’’ आक धतुरा चबात फिरे, विष खात शिव तेरे भरोसे। ‘‘  जवा पुष्प से सावन मास में शिव का पूजन करने से शत्रु का नाश होता है तो गंगा जल से अभिषेक करना मोक्ष प्रदाता माना गया है। साधारण जल से अभिषेक भी वर्षा की प्राप्ति करवाता है। दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करने से आत्मा को सुकुन मिलता है एवं संतान सुख प्राप्त होता है। तो लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने हेतु गन्ने के रस से या गुड मिश्रित जल अभिषेक करना शुभ माना जाता है। मधु या घी या दही से अभिषेक करने पर भी आर्थिक स्थिति मजबूत बनती है। रोगों से ग्रसित जातकों हेतु विशेष रूप से शुक्र से पीडित जातकों हेतु केवल दुध को अर्पित करना चाहिए। सूर्य एवं चंद्र कृत रोगों से मुक्ति हेतु शहद अर्पित करना विशेष विशेष लाभदायक है तो मंगल कृत रोगों से बचाव हेतु गुड मिले जल से अभिषेक करना चाहिए। बृहस्पति की कृपा हेतु हल्दी मिश्रित या दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करना उतम लाभ की प्राप्ति करता है। आप भी जिस ग्रह की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं। उसी ग्रह के अनुसार पूजन सावन मास में अवश्य करें। किसी कामना विशेष हेतु भी आप किसी विशेष प्रयोग को सावन मास में कर शिव कृपा प्राप्त कर सकते है।
         शिव रूद्री के पाठ का संकल्प लेकर शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर  ’’ ओम नमः शिवाय ‘‘ का जाप करना चाहिए। शिव रूद्री का एक पाठ करने से बाल ग्रहों की शांति होती है। तीन पाठ से उपद्रवों का शमन, पांच रूद्री पाठ से नवग्रह शांति, सात से अनिष्ट की आशंक, अनावश्यक भय नहीं रहता । नौ रूद्री पाठ करने से सर्व शांति एवं ग्यारह रूद्री पाठ से उच्चाधिकारियों के अनुकूल प्रभाव रहते हैं अर्थात् उनका वशीकरण होता है। नौ रूद्रों से एक महारूद्र तुल्य फल की प्राप्ति होती है। एक महारूद्र से जीवन में शांति, राज्य कृपा, लोगोें का मित्रवत व्यवहार , स्वास्थ्य रक्षा एवं चारों पुरूषार्थो की प्राप्ति होती है। तीन महारूद्र करने से आपकी कोई भी एक मनोकामना भगवान शिव अवश्य पूर्ण करते है। बार-बार कठिन परिश्रम करने के उपरान्त भी यदि प्रतियोगिता में सफलता नहीं मिल रहीं,सरकारी नौकरी की आस छुटती हुई दिखे तो पांच महारूद्र इस सावन मास में किसी विद्वान कर्मकाण्डी से कराए या स्वयं करे आपको शिव शंकर सफलता का द्वार अवश्य दिखाएगें। यदि आप किसी भी प्रकार की आधि-व्याधि से पीडित है तो सावन मास में नौ महारूद्र करना आपके ग्रह दोषों को शांत कर रोगों से मुक्ति की राह अवश्य दिखाएगें। शिव भक्तों एवं श्रद्धालुओं को अवश्य ही सावन मास का लाभ उठाना चाहिए। श्रावण मासांत  पूर्णिमा को उपनयन करना भी अति श्रेष्ठ माना गया है। उसी अवस्था में उपनयन का निषेध बताया गया है जब बृहस्पति या शुक्र अस्त हो। इसके अलावा पूर्णिमा में सभी वेदपाणी उपनयन कर सकते है।यदि आपकी भी कोई कामना है तो भोले के दरबार में आप भी सावन मास में दस्तक अवश्य दे। आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेगें।
                                ।। इति।।

                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                      मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                      जिला- सिरोही (राज.) 307512
मो. 9001742766
                                 


आपकी राशि, नक्षत्र और रोगोपचार



          भारतीय ज्योतिश में राशि एवं नक्षत्र का अपना विेेशेष महत्त्व है। किसी राशि एवं नक्षत्र के आधार पर रोगों का वर्णन प्राचीन आचार्यो ने किया है। बारह राशियों अर्थात् सत्ताईष नक्षत्रों को अंगों में स्थापित करने पर मानव शरीर की आकृति बनती है। नवग्रहों में चन्द्र सर्वाधिक गतिशिल ग्रह है, इसलिये इसका मानव शरीर पर भी सर्वाधिक प्रभाव मान सकते हैं। हमारे षरीर का लगभग 70 प्रतिषत भाग जल है। ज्योतिश में जल का स्वामी चन्द्र को ही माना है, इसलिये भारतीय ज्योतिश में चन्द्र को महत्वपूर्ण स्थान देकर उसका जन्म समय जिस राषि या नक्षत्र में गोचर होता है, वही हमारी जन्मराषि या जन्म नक्षत्र माना जाता है। इस राषि या नक्षत्र के आधार पर जातक को कौन रोग हो सकता है एवं इस रोग से बचाव का सुलभ उपाय क्या होगा, इसकी जानकारी इस अध्याय में दी जा रही है। नक्षत्र के आराध्य अथवा उसके प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करके भी रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है:-
      1 अष्विनी:- वराह ने अष्विनी नक्ष्त्र का घुटने पर अधिकार माना है।  इसके पीडित होने पर बुखार भी   रहता है। यदि आपको घुटने से सम्बन्धित पीडा हो, बुखार आ रहा हो तो आप अपामार्ग की जड धारण करें। इससे आपको रोग की पीडा कम होगी।
      2   भरणी:- भरणी नक्षत्र का अधिकार सिर पर माना गया है। इसके पीडित होने पर पेचिष रोग होता        है। इस प्रकार की पीडा पर अगस्त्य की जड धारण करें।
3 कृतिका:- कृतिका नक्षत्र का अधिकार कमर पर है। इसके पीडित होने पर कब्ज एवं अपच की समस्या होती है। आपका जन्म नक्षत्र यदि कृतिका हो तथा कमर दर्द, कब्ज, अपच की षिकायत हो तो कपास की जड धारण करें।
4 रोहिणी:- रोहिणी नक्षत्र का अधिकार टांगों पर होता है। इसके पीडित होने पर सिरदर्द, प्रलाप, बवासीर जैसे रोग होते है। इस प्रकार की पीडा होने पर अपामार्ग या आंवले की जड धारण करें।
5 मृगषिरा:- मृगषिरा नक्षत्र का अधिकार आँखों पर है। इसके पीडित होने पर रक्त विकार, अपच,एलर्जी जैसे रोग होते है। ऐसी स्थिति में खैर की जड धारण करें।
6 आद्र्रा:- आद्र्रा नक्षत्र का अधिकार बालों पर है। इसके पीडित होने पर मंदाग्नि, वायु विकार तथा आकस्मिक रोग होते हैं। इससे प्रभावित जातकों को ष्यामा तुलसी या पीपल की जड धारण करनी चाहिये।
7 पुनर्वसु:- पुनर्वसु नक्षत्र का अधिकार अंगुलियों पर है। इसके पीडित होने पर हैंजा, सिरदर्द, यकृत रोग होते है। इन जातकों को आक की जड धारण करनी चाहिये। ष्वेतार्क जडी मिले तो सर्वोत्तम हैं।
8 पुश्य:- पुश्य नक्षत्र का अधिकार मुख पर है। स्वादहीनता, उन्माद, ज्वर इसके कारण होते है। इनसे पीडित जातकों को कुषा अथवा बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।
9 आष्लेशा:- आष्लेशा नक्षत्र का अधिकार नाखून पर है। इसके कारण रक्ताल्पता एवं चर्म रोग होते है। इनसे पीडित जातको को पटोल की जड धारण करनी चाहिये।
10 मघा:- मघा नक्षत्र का अधिकार वाणी पर है। वाणी सम्बन्धित दोश, दमा आदि होने पर जातक भृगराज या वट वृक्ष की जड धारण करें।
11 पूर्वाफाल्गुनी:- पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुप्तांग पर है। गुप्त रोग, आँतों में सूजन, कब्ज, षरीर दर्द होने पर कटेली की जड धारण करें।
12 उत्तराफाल्गुनी:- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुदा, लिंग, गर्भाषय पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित रोग मधुमेह होने पर पटोल जड धारण करें।
13 हस्त:- हस्त नक्षत्र का अधिकार हाथ पर होता है। हाथ में पीडा होने या षरीर में जलदोश अर्थात् जल की कमी, अतिसार होने पर चमेली या जावित्री मूल धारण करें।
14 चित्रा:- चित्रा नक्षत्र का अधिकार माथे पर होता है। सिर सम्बन्धित पीडा, गुर्दे में विकार, दुर्घटना होने पर अनंतमूल या बेल धारण करें।
15 स्वाति:- स्वाति नक्षत्र का अधिकार दाँतों पर है, इसलिये दंत रोग, नेत्र पीडा तथा दीर्घकालीन रोग होने पर अर्जुन  मूल धारण करें।
16 विषाखा:- विषाखा नक्षत्र का अधिकार भुजा पर है। भुजा में विकार, कर्ण पीडा, एपेण्डिसाइटिस होने पर गुंजा मूल धारण करें।
17 अनुराधा:- अनुराधा नक्षत्र का अधिकार हृदय पर है। हृदय पीडा, नाक के रोग, षरीर दर्द होने पर नागकेषर की जड धारण करें।
18 ज्येश्ठा:- ज्येश्ठा नक्षत्र का अधिकार जीभ व दाँतों पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित पीडा होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।
19 मूल:- मूल नक्षत्र का अधिकार पैर पर है। इसलिये पैरों में पीडा, टी.बी. होने पर मदार की जड धारण करें।
20 पूर्वाशाढा:- पूर्वाशाढा नक्षत्र का अधिकार जांघ, कूल्हों पर होता है। जाँघ एवं कूल्हों में पीडा,  कार्टिलेज की समस्या, पथरी रोग होने पर कपास की जड धारण करें।
21 उतराशाढा:-उतराशाढा नक्षत्र का अधिकार भी जाँघ एवं कूल्हो पर माना है। हड्डी में दर्द, फे्रक्चर होने, वमन आदि होने पर कपास या कटहल की जड धारण करें।
22 श्रवण:- श्रवण नक्षत्र का अधिकार कान पर होता है। इसलिये कर्ण रोग, स्वादहीनता होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।
23 धनिश्ठा:- धनिश्ठा नक्षत्र का अधिकार कमर तथा रीढ की हड्डी पर होता है। कमर दर्द, गठिया आदि होने पर भृंगराज की जड धारण करें।
24 षतभिशा:- षतभिशा नक्षत्र का अधिकार ठोडी पर होता है। पित्ताधिक्य, गठिया रोग होने पर कलंब की जड धारण करें।
25 पूर्वाभाद्रपद:- पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार छाती, फेफडों पर होता हैं। ष्वास सम्बन्धी रोग होने पर आम की जड धारण करें।
26 उतराभाद्रपद:- उतराभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार अस्थि पिंजर पर होता है। हांफने की समस्या होने पर पीपल की जड धारण करें।
27 रेवती:- रेवती नक्षत्र का अधिकार बगल पर होता है। बगल में फोडे-फुंसी या अन्य विकार होने पर महुवे की जड धारण करें।
          जब किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य पीडा हो तो आपको अपने जन्म नक्षत्र के प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करनी चाहिये। यदि आपको अपना जन्म नक्षत्र पता नहीं है तो आपको किस प्रकार की स्वास्थ्य पीडा है तथा वह षरीर के किस अंग से सम्बन्धित है अथवा वह रोग किसके अन्तर्गत आ रहा है, उससे सम्बन्धित वृक्ष की जडी ऊपर बताये अनुसार धारण करें तो आपको अवष्य अनुकूल फल की प्राप्ति होगी।
      आपकी राषि के अनुसार जडी धारण करके भी रोग के प्रकोप को कम कर सकते हैं। आप अपनी राषि अपने नाम के प्रथम अक्षर से जान सकते हैं। इस आधार पर:-
मेश राषि वालों को पित्त विकार, खाज-खुजली, दुर्घटना, मूत्रकृच्छ की समस्या होती है। मेश राषि का स्वामी ग्रह मंगल है। इन्हें अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये।
व्ृाष्चिक राषि वालों को भी उपरोक्त रोगों की ही समस्या होती हैं। इन्हें भी अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये
व्ृाशभ एवं तुला राषि वालों को गुप्त रोग, धातु रोग, षोथ आदि होते हैं। यदि आपकी राषि वृशभ अथवा तुला हो तो आपको सरपोंखा की जड धारण करनी चाहिये।
मिथुन एवं कन्या राषि वालों को चर्म विकार, इंसुलिन की कमी, भ्रांति, स्मुति ह्नास, निमोनिया, त्रिदोश ज्वर होता है। इन्हें विधारा की जड धारण करनी चाहिये।
कर्क राषि वालों को सर्दी-जुकाम, जलोदर, निद्रा, टी.बी. आदि होते हैं। इन्हें खिरनी की जड धारण करनी चाहिये।
सिंह राषि वालों को उदर रोग, हृदय रोग, ज्वर, पित्त सम्बन्धित विकार होते हैं। इन्हें अर्क मूल धारण करनी चाहिये। बेल की जड भी धारण कर सकते हैं।
धनु एवं मीन राषि वालों को अस्थमा, एपेण्डिसाइटिस, यकृत रोग, स्थूलता आदि रोग होते हैं। इन्हें केले की जड धारण करनी चाहिये।
मकर एवं कुंभ राषि वालों को वायु विकार, आंत्र वक्रता, पक्षाघात, दुर्बलता आदि रोग होते हैं। इन्हें बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।
  चन्द्र का कारकत्व जल हैं। इसलिये चन्द्र निर्बल होने पर जल चिकित्सा लाभप्रद सिद्ध होती हैं। हमारे षरीर में लगभग 70 प्रतिषत जल होता है। इसलिये षरीर की अधिकांष क्रियाओं में जल की सहभागिता होती है। जल चिकित्सा से जो वास्तविक रोग है, उसका उपचार तो होता ही है इसके साथ अन्य अंगों की षुद्धि भी होती है। इस कारण षरीर में भविश्य में रोग होने की सम्भावना भी कम होती है। जल एक अच्छा विलायक है। इसमें विभिन्न तत्त्व एवं पदार्थ आसानी से घुल जाते हैं जिससे रोग का उपचार आसानी से हो जाता है। जल चिकित्सा में वाश्प् स्नान, वमन,एनीमा, गीली पट्टी, तैरना, उशाःपान एवं अनेक प्रकार की चिकित्सायें हैं। दैनिक क्रियाओं में भी हम जल का उपयोग करते रहते हैं। लेकिन जब चन्द्र कमजोर एवं पीडित होकर उसकी दषा आये तभी जल के अनुपात में षारीरिक असंतुलन बनता है। हमारे षरीर में स्थित गुर्दे जल तत्त्वों का षुद्धिकरण करते हैं। जल की अधिकता होने पर पसीने के रूप में जल बाहर निकलता है जिससे षरीर का तापमान कम हो जाता है। इसलिये जल सेवन अधिक करने पर जोर दिया जाता है ताकि षरीर स्वस्थ रहे अर्थात् चन्द्र की कमजोरी स्वास्थ्य में बाधक न बने। इस प्रकार हमारे लिये चन्द्र महत्त्वपूर्ण ग्रह बन जाता है।            
                                                                                     ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                     मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                     जिला- सिरोही (राज.) 307512
मो. 9001742766