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मंगलवार, 4 सितंबर 2012

जन्मकालीन अशुभ योग पीड़ा व निवारण



जन्मकालीन अशुभ योग
            पीड़ा व निवारण
पूर्व जन्म मे किए गये पूण्य व पापो का फल मनुष्य को निश्चयात्मक रूप से भोगना पडता हैं। लग्न कुंडली व अन्य पंचांग के जन्मगत योग केवल जातक के शुभाशुभ कर्मोंका मात्र संकेत है। इन कर्माे को तीन भागो में विभक्त किया गया है। संचित, प्रारब्ध और क्रियामाण। जन्मजन्मांतर की इस यात्रा मे वर्तमान जन्म तक किया गया कर्म संचित हैं जिसे एक साथ भोगना असंभव है। इन संचित कर्मा मे से जो कर्म वर्तमान जन्म मे भोगने के लिए तय कर दिए हैं वे प्रारब्ध एवं जो कर्म हम वर्तमान मे निरंतर कर रहे हैं वे कियामाण कर्म है। जन्मगत स्थिति इन्ही कर्मो को लेकर निर्धारित की जाती है।
कुण्डली मे शुभ लग्न एवं शुभ गृह योगो के होने पर भी कइ्र बार जातक को असफलताएं मिलमी हैं। वास्तव मे लग्नगत स्थिति अनुसार ही सफलता होने पर भी जातक को निराशा रहती हैं। इस स्थिति में जन्मगत स्थिति को ध्यान में रख अशुभ योगों का उपाय करना सफलता में वृद्धि करता हैं।
1 अमावस्याः अमावस्या को दर्श भी कहते है। अमावस्या में जन्म होने पर माता पिता व स्वयं की दरिद्रता यश ,धन , मान सम्मान में कमी आती हैं। अमावस्या भी दो प्रकार की होती हैं। इनमें से कुछ अर्थात सर्वथा चन्द्र रहित अमावस्या का जन्म हो तो अशुभ फल ज्यादा होता हैं। इसके निवारणार्थ सूर्य व चंद्र की शांति रूद्राभिषेक एवं घी सहित छायापात्र का दान करना चाहिए।
2 कृष्ण चतुर्दशीः कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में जन्म होने पर भी अशुभ फल मिलता हैं। पाराशर के अनुसार कृष्ण चतुर्दशी तिथि के 6 भाग कर उसमें किस भाग में जन्म अशुभ है उसके बारे में कहा गया है कि प्रथम षष्ठंाश में जन्म शुभ, द्वितीय में पिता का नाश, तृतीय में माता का नाश, चतुर्थ में मामा का नाश, पंचम में वंश का नाश तथा छठे भाग में धन व स्वयं को नष्ट करता है। इसमें भी गृह पूजन माता पिता व जातक का अभिषेक ब्राह्मण भोजन व छायापात्र का दान किसी कर्मकांडी से करवाने पर विशेष लाभ होता हैं।
3 क्रांति साम्य या महापात: क्रांति साम्य का आरंभ व अंत पंचांगों में सामान्यतया दिया रहता है। सूर्य व चंद्र की क्रांति समान होने पर अर्थात सूर्य व चंद्र जब जोडे में एक साथ 1,5,2,10,7,11,6,12,4,8,3,9 राशियों में हो तो क्रांति साम्य नामक महादोष होता है। इसका विचार मुर्हुत चिन्तामणि के अनुसार दिया है। इसी को गणना कर आरंभ व अंत गणित ज्योतिष द्वारा निकाला जाता है। इसमें भी जन्म अशुभ है। योग्य कमग्कांडी ब्राह्मण से शांति कर्म करवाएं।
4 यमघण्ट योग: रविवार के दिन मघा , सोमवार को विशाखा, मंगलवार को आद्रा, बुधवार को मूल, गुरूवार को कृतिका, शुक्रवार को रोहिणी व शनिवार को हस्त नक्षत्र होने पर यमघण्ट योग बनता है। यह योग भी किसी भी शुभ कार्य के लिए वर्जित होने के साथ जन्म में भी अशुभ है। योग्य कर्मकांडी लेकर शांति करवाएं।
5 दग्धादि योग: रविवार को 12, सोमवार को 11, मंगलवार को 5, बुधवार को 3, गुरूवार को 6 , शुक्रवार को 8, व शनिवार को 9 वीं तिथ होने पर दग्ध योग बनता है। इसमें भी जन्म होना अशुभ है। वार तिथ विशेष के देवता की पूजा अर्चना, रूद्राभिषेक व महामृत्युजंय जाप लाभकारी हैं।
6 व्यतिपात- वैधृति योग- सूर्य व चंद्र की क्रांति समान होने पर यदि दोनों एक अयन में हो तो व्यतिपात योग होता है। किसी योग्य कर्मकांडी से छायापात्र दान, रूद्राभिषेक व महामृत्युजंय जाप करायें।
7 सार्पशीर्ष- अमावस्या के दिन यदि अनुराधा नक्षत्र हो तो उसका तृतीय व चतुर्थ नक्षत्र चरण सार्पशीर्ष कहलाता है। यह स्थिति मार्गशीर्ष मास में बनती है। सार्पशीर्ष भी जन्म व शुभ कार्यो में वर्जित है। किसी योग्य आचार्य से सलाह लें।
8 एक जन्म नक्षत्र- यदि पिता व पुत्र, माता व पुत्री, दो भाईयों, दो बहिनों या भाई बहिनों का नक्षत्र एक ही हो तो कमजोर ग्रह स्थिति वाले को मुत्यु तुल्य कष्ट हेता है। सामान्यतया ऐसी स्थिति में प्रत्येक जातक को कुछ न कुछ कष्ट अवश्य रहता है। इसकी शांति हेतु नक्षत्र देवता के वैदिक मंत्र से पूजा कर, अभिषेक, ब्राह्मण भोजन, सामथ्र्य अनुसार दान दें। गणेश, अम्बिका पूजन, नवग्रह पूजन भी अवश्य करें या कराएं जिससे शुभ फलों की प्राप्ति हो सके।
9 स्ंाक्रांति- सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश का समय संक्रांति कहलाता है। स्पष्ट मान से 6 घण्टा 24 मिनट आगे व इतना ही समय पीछे मक संक्रांति का अशुभ प्रभाव विशेष रहता है। यदि संका्रति रविवार को हो तो घोरा, सोमवार ध्वांक्षी, मंगलवार महोदरी, बुधवार मन्दा, गुरूवार मन्दाकिनी, शुक्रवार को मिश्रा व शनिवार का राक्षसी नाम की संक्रांति होती है। इसमें भी जन्म होना जातक को परम अनिष्टाकारी है। इसमें भी नवग्रहों का यज्ञ विधि विधान से कर छायापात्र दान, अभिषेक, गोदान, स्वर्णदान व ब्राह्मण भोजन करने से शांति मिलती है।
10 भद्राकरण- भद्रा या विष्टिकरण में जन्म हो पर शुभ दिन लग्न में रूद्राभिषेक, पीपल पूजा व प्रदक्षिणा, सूर्य सूक्त, पुरूष सुक्त व गणपति मुक्ति का पाठ करने से जीवन में खुशहाली आती है।
11 सूर्यग्रहण- पृथ्वी सूर्य की, चंद्र पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा है। इस परिक्रमा के दौरान जब पृथ्वी और सूर्य के मध्य चंद्र आ जाता है तो पृथ्वी के कुछ भागों पर सूर्य का प्रकाश नही पहुंच पाता। सूर्य पर काली परछाई दिखने लगती है। इसे सूर्यग्रहण कीते है। सूर्य ग्रहण हमेशा अमावस्या को होता है। यदि अमावस्या के दिन समाप्ति समय में सूर्य चंद्र राहु केतु से 15 डिग्री 21 से कम अंतर पर हो तो सूर्य ग्रहण इससे अधिक व 18 डिग्री 27 के मध्य हो तो कभी कभार व ज्यादा अंतर होने पर सुर्यग्रहण नही होता है। इसका समय सामान्यतया प्रत्येक पंचांग में दिया हुआ रहता ह। इसमें जन्म होने से जातक को शारीरिक मानसिक व आर्थिक कष्ट के साथ मृत्यु भय भी होता है। किसी योग्य कर्मकांडी से सूर्य चंद्र व राहु की पूजा, नक्षत्रेश की पूजा व हवन करवाने से राहत मिलती हैं।
12 चन्द्रग्रहण- जब चंद्र एवं सूर्य के बीच पृथ्वी आ जाती है तो इस स्थिति में चंद्रग्रहण होता है। चंद्रग्रहण पूर्णिमा को होता है। इसमें पृथ्वी छाया के कारण चंद्र दिखाई नही देता है। इसका मान भी पंचांगों में दिया रहता है। इसकी भी शांति सुर्य, चंद्र व राहु की मूर्ति बनाकर पूजा हवन व नक्षत्र स्वामी की पूजा-अर्चना कर करवानी चाहिए।
13 गण्डान्त- तिथि, नक्षत्र व लग्न के भेद से तीन प्रकार का गण्डान्त होता है। पूर्णा तिथि व नंदा की संधि अर्थात पूर्णा तिथि 5,10,15 के अन्त की दो घडी व नंदा के प्रारंभ की 2 घडी कुल मिलाकर 4 घडी का तिथि गण्डांत समय अशुभ रहता है।    
           कर्क व सिंह लग्न, वृश्चिक व घनु लग्न, मीन व मेष लग्न की संधि का 24       मिनट का समय अर्थात कर्क लग्न के अन्तिम 12 मिनट व सिंह लग्न के प्रारंभ के 12 मिनट का समय लग्न गण्डंात कहलाता है। यह भी जन्म में शुभ नही है।
            रेवती व अश्विनी, ज्येष्ठा व मूल, आश्लेषा व मघा की संधि का 96 मिनट का समय अर्थात रेवती की अन्तिम 48 मिनट व अश्विनी प्रारंभ की 48 मिनट का समय नक्षत्र गण्डांत कहलाता है। इसमें जन्म होना भी अशुभ है।
    पाराशर के अनुसार इन गण्डांतों में जन्म होने पर सूतक निकल जाने के उपरांत पिता गण्डांत की शांति अवश्य कराए, इससे पहले पिता पुत्र का मुहं नही देखे। तिथि गण्ड में बैल का दान, नक्षत्र गण्ड में गोदान व लग्न गण्डांत में स्वर्ण दान से दोष निवारण होता है। गण्डांत के पूर्व भाग में जन्म होने पर पिता-पुत्र व अन्त भाग में जन्म होने पर माता-पुत्र का इकट्ठा अभिषेक करें जिससे शांति मिल सके।
14 त्रिखल जन्म- तीन पुत्र जन्म के बाद पुत्री का व तीन पुत्रियो के बाद पुत्र का जन्म त्रिखल जन्म कहलाता है। ऐसी स्थिति में माता पिता के कुल में अरिष्ट का भय रहता है। अरिष्ट निवारणार्थ शांति आवश्यक है।
15 प्रसव विकार- पाराशर के अनुसार समय से पूर्व/पश्चात हीनांग या अधिकांश सिर विहिन दो सिरवाला, जुडे हुए सिर या किसी अंग वाला, स्त्री में प्शु आकृति व प्शु में मानवाकृति वाला प्रसव, प्रसव विकार कहलाता है। जुडवां विजातिय प्रसव होने पर भी अनिष्ट होता है। गाय-भैंस का विकृत प्रसव होने पर किसी गरीब को दान में दे दे। स्त्री प्रसव विकार में दिनभर व्रत रखकर अगले दिन रूद्र सूक्त व शांति सूक्त का पाठ व किसी कर्मकांडी से शांति विधान करवाए।
             ग्रहों की नीच स्थिति में होने पर जन्म भी एक विकार है। सूर्य यदि तुला राशि में परम नीचांश पर हो तो हजार राजयोगों को नष्ट करता है। शनि से दुगुना मंगल, मंगल से दुगुना बुध,बुध से आठ गुना गुरू, गुरू से आठ गुना शुक्र, शुक्र से 16 गुना चंद्र व चंद्र से 32 गुना सूर्य बलवान होता है। अर्थात इसकी नीचता तीव्रतम अशुभकारी है। इस हेतु तुलास्थ सूर्य में सूर्य की मूर्ति का दान व वृश्चिक चंद्र में शिवार्चन व चंद्र मूर्ति दान करने से नीच गत प्रभाव दूर होता है।
16 मूलदोष- पाराशर के अनुसार मूल के प्रथम चरण में पिता का दूसरे चरण में माता का, तीसरे चरण में धन धान्य का चैथे चरण में धन लाभ होता है। पिता का अरिष्ट 1 वर्ष के भीतर माता का 3 वर्ष के भीतर धन नाश 2 वर्ष के भीतर व स्वयं का नाश एक वर्ष के भीतर होता है।
                  मतानुसार मूलवास पृथ्वी, पाताल व स्वर्ग में रहता है। वैशाख, ज्येष्ठ मार्गशीर्ष व फाल्गुन मास में पाताल आषाढ, आश्विन भाद्रापद व माघ मास में मूल वास स्वर्ग में रहता है। इनमें जन्म होने पर मध्यम कष्ट रहता है। शेष मासों में जन्म होने पर अरिष्ट तीव्र होता है। सूतक समाप्त होने पर मास या वर्ष के भीतर या शीघ्र जब भी मूल नक्षत्र पडे तब शांति करवा देनी चाहिए।
17 ज्येष्ठ- ज्येष्ठा गण्ड या गण्डान्त में उत्पन्न होने पर माता-पिता व स्वयं का नाश होता है। इसकी शांति हेतु इन्द्र प्रधान, अग्नि अधि व राक्षस को प्रत्यधि देवता समझकर शांति करना चाहिए।
18 अन्य गण्ड नक्षत्र- 1 आश्लेषा के प्रथम चरण में जन्म होने पर शुभ,द्वितीय चरण में धन हानि, तृतीय चरण में माता-पिता को कष्ट होता है। 2  मघा के प्रथम चरण में माता को कष्ट, द्वितीय चरण पिता कष्ट, तृतीय में सुख व चतुर्थ में शुभ रहता है। 3 रेवती के प्रथम चरण में राजपद प्राप्ति, द्वितीय में मंत्री पद , तृतीय में ऐश्वर्यवान, चतुर्थ में मान-सम्मान मिलता है।
गण्ड का अपवाद- 1 गण्ड नक्षत्र में चंद्र अग्नेश का युति दृष्टि सम्बन्ध हो।
2 रविवार व अश्विनी, रवि,बुधवार को ज्येष्ठा, रेवती हो तो गण्डदोष कम होता है।
3 अभिजित मूर्हुत मे जन्म हो।
4 चंद्र व वृह., बलवान हो, बलवान वृह., लग्नेश से शुभ सम्बन्ध बनाए।
5 दिन में मूल का दुसरा चरण रात में प्रथम चरण हो तो दोष प्रभावी होता है।
6 चंद्र बली होकर लग्न, लग्नेश से सम्बन्ध बनाए तो गण्डदोष में कुछ कमी अवश्य आती है लेकिन सूक्ष्म अशुभ प्रभाव रहता ही है। जिस प्रकार नीबू की एक बूंद ही दूध को खट्टा करने में काफी है उसी प्रकार इसका प्रभाव अत्यंत सूक्ष्म होने पर भी विद्यमान रहता है। अतः किसी योग्य कर्मकांडी से सलाह मशविरा कर उपाय करना चाहिए।
वागाराम परिहार
मु. पो. आमलारी
वाया-दांतराई
जिला- सिरोही
राजस्थान 307512                                        
Tel- 02972 276626
mo, 9001742766 E-mail: pariharastro444@gmail.com

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