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रविवार, 30 सितंबर 2012

मंगली दोष एंव दहेज



परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
जिला- सिरोही (राज.) 307512
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 मंगल दोष सम्बंधित अधिक जानकारी हेतु आप मेरे द्वारा लिखित  पुस्तक मंगल दोष पीड़ा एवम परिहार का अध्धयन करे 
वर्तमान मे मंगली दोष  चिर परिचित शब्द है। विवाह वार्ता के समय इन दो शब्दो का मायाजाल या आंतक आपने कई बार देखा होगा । यदि कहा जाए कि 50 प्रतिशत रिश्ते इन दो दोषो के कारण अपने अंतिम चरण मे जाकर टुटते है तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी ! कई बार युवती के माता -पिता अपनी लाडली के योग्य रिश्ते की चाह मे अपना सुख -चैन खो बेठते है परंतु दहेज रूपी शेषनाग उन्हे जीवन भर डसने की कोशिस करता रहता है ! दहेज ईच्छा पुरी न करने पर अपनी संतान के साथ ससुराल पक्ष का व्यवहार बिगड जाता है ! कई बार कन्या को शारीरिक यातनाएं भी दी जाती है !
        मंगली दोष एवं दहेज का परस्पर घनिष्ठ संबंध है ! मंगल को ऋण का अचल संपन्ति का कारक ग्रह माना जाता है ! जब किसी युवक के जन्मांग मे मंगल धन -लाभ का कारक होकर ससुराल भाव से संबंध बनाए तो उसे ससुराल से धन की प्राप्ति  हो जाती है। यहि मंगल जब कमजोर हो तो उसे ससुराल से धन कि प्राप्ति कम हो जाती है। आजकल धन कि इच्छा प्रत्येक व्यक्ति को रहती है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार से धन कि प्राप्ति करना चाहता है। ज्योतिष मे इसी कारण धन भाव को मारक भाव माना गया है। जीवन साथी का धन भाव अर्थात अष्टम भाव भी मारक भाव माना गया है। मंगल एक पाप ग्रह है। इसलिए धन प्राप्ति के लिए पाप कार्य भी करवा सकता है। जब मंगली दोष धन भाव या अष्टम भाव मे स्थिति के कारण बनता हो तो ऐसी स्थिति मे दहेज कि पूर्ति नही कर पाने के कारण उसके साथ मारपीट भी कि जाती है। इस समय अल्पायु योग वाली कन्याओ को दहेज हत्या का सामना भी करना पडता है।
आपने समाचार पत्रो मे कई बार पढा होगा कि विवाह कि रस्म या पाणिग्रहण संस्कार के समय दहेज इच्छा पुरी नही होने के कारण बारात वापिस लौट गयी । दहेज मे मारुति न मिलने कारण बारात लौट जाना अब आम बात हो गई है। दहेज लेते समय व्यक्ति विशेष का उदाहरण देकर अपनी लालसा को सही बताने कि कोशिस करते है। दहेज के कारण कई बार युवति द्वारा पुलिस केस कर दिया जाता है। तो कई बार विवाह समारोह स्थल पर तोडफोड भी कर दी जाती है। अर्थात मंगली दोष कि ऐसी स्थिति विवाह मे कोई न कोई बाधा अवश्य उत्पन्न करती है। विवाह के पश्चात भी इनका जीवन परेशानियो भरा रहता है। ससुराल पक्ष द्वारा ताने मारकर परेशान किया जाना एक सामान्य बात है। इलेक्ट्कि करट देना ,गर्म चिमटे द्वारा शरीर को दागना जैसी कई अमानवीय यातना दि जाती है। कई बार ऐसा भी होता है। कि रसोई घर मे खाना बनाते समय आग लगने से जलकर मृत्यु हो जाती है। इसका कारण दहेज हत्या न होने पर भी दहेज हत्या का आरोप लगा दिया जाता है। तो कई बार जानबुझकर केरोसीन डालकर हत्या कर दी जाती है। अर्थात दहेज न मिलने से ससुराल पक्ष द्वारा घृणित कार्य को अंजाम दे दिया जाता है।
जिस प्रकार किसी कन्या कि कुण्डली मे दहेज कि स्थिति बनती है। उस प्रकार का किसी पुरुष कि कुंडली मे होने पर कन्या पक्ष को धन देना पडता है। वर्तमान मे कई राज्यो मे स्त्री पुरुष अनुपात अर्थात लिंगानुपात समस्या बनता जा रहा है। एक हजार पुरुषो के मुकाबलो  आढ सौ स्त्रिया होने क कारण दुसरे राज्यो से युवतिया खरीद कर विवाह किया जा रहा है। तो कई लोगो द्वारा युवती के पिता को धन देकर विवाह सम्बंध तय किया जाता है। विवाह सम्बंध के पश्चात भी जब युवती के माता पिता को आवश्यकता पडने पर धन नही दिया जाता तो उसे घर पर बैढा दिया जाता है। उसे ससुराल नही भेजा जाता । अर्थात पुरुष कि कुंडली मे दहेज जिसे दापा भी कहते है। योग होने पर दाम्पत्य जीवन मे परेशानी होती रहती है।
जब किसी जन्मंाग चक्र मे मंगली दोष के साथ दहेज योग भी निर्मित हो रहा हो तो उसे किसी योग्य ज्योतिषि का मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त करना चाहिए । विशेष रुप से लग्न, द्वितिय एंव अष्टम भाव मे मंगल स्थिति बनाकर किसी पापग्रह से सम्बंध बनाए एंव वह पाप ग्रह धनेश या लाभेश बन रहा हो तो उन्हे इस प्रकार कि पीडा सहन करनी पड सकती है।

विजयादशमी का महत्व



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भारतीय धर्म शास्त्रो के अनुसार-
                           आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये।
                           स कालो विजयो ज्ञेयः सर्वकार्यार्थ सिद्धये।।
      अर्थात आश्विन शुक्ल दशमी को सायंकाल तारा उदय होने के समय विजयकाल रहता है। इसलिए इसे विजयादशमी कहा जाता है।
      विजयादशमी का दुसरा नाम दशहरा भी है। भगवान श्री राम की पत्नी सीता को जब अहंकारी एवं अधर्मी रावण अपहरण कर ले गया। तब नारद मुनि के निर्देशानुसार भगवान श्री राम ने नवरात्र व्रत कर नौ दिन भगवती दुर्गा की अर्चना कर प्रसन्न कर वर प्राप्त कर रावण की लंका पर चढाई की। इसी आश्विन शुक्ल दशमी के दिन राम ने रावण का वध कर विजय प्राप्त की थी। तब से इसे विजयादशमी के रूप में
मनाया जाने लगा।
       भगवान राम के पूर्वज रघु ने विश्वजीत यज्ञ किया था। इस यज्ञ के पश्चात अपनी सम्पूर्ण सम्पति का दान कर एक पर्णकुटिया मे रहने लगे। इस समय रघु के पास कौत्स आया। जिसने रघु से चैदह करोड स्वर्ण मुद्राओ की मांग की। क्योकि कौत्स को गुरू दक्षिणा चुकाने हेतु चैदह करोड स्वर्ण मुद्राओ की आवश्यकता थी। तब रघु ने कुबेर पर आक्रमण कर दिया। इस पर कुबेर ने इसी दिन अश्मंतक व शमी के पौधो पर स्वर्ण मुद्राओ की वर्षा कर दी। जिसे लेकर कौत्स ने गुरू दक्षिणा चुकाई। शेष मुद्राए जनसामान्य ने अपने उपभोग के लिए ली। इसी उपलक्ष्य मे यह पर्व मनाया जाता है।
        महाभारत में वर्णन है कि दुर्योधन ने पांडवो को जुएं मे हराकर बारह वर्ष का वनवास दिया था एवं तेरहवा वर्ष अज्ञातकाल का था। इस वर्ष मे यदि कौरव पांडवो को खोज निकालते तो पुनः बारह वर्ष का वनवास व एक वर्ष का अज्ञातवास का सामना करना पडता। इस अज्ञात काल मे पांडवो ने राजा विराट के यहां नौकरी की थी। अर्जून इस काल मे वृहन्नला के वेष मे रह रहा था। जब गौ रक्षा के लिए घृष्टधुम्न ने कौरव सेना पर आक्रमण करने की योजना बनाई तब अर्जून ने शमी वृक्ष से अपने अस्त्र-शस्त्र उतारकर कौरव सेना पर विजय इसी दिन प्राप्त की थी। इसी कारण भी विजयादशमी का पर्व प्रचलित हो गया।
        इस प्रकार से देखा जाए तो विजयादशमी का पर्व मुख्यतः विजय दिवस के रूप में  मनाया जाता है। आश्विन मास के नवरात्र मे देश के अधिकांश भागो मे रामलीला का आयोजन होता है। रामलीला का अन्त रावण दहन के साथ ही हो जाता है। रावण दहन के साथ मेघनाद व कुंभकर्ण के भी पुतले बनाकर जलाए जाते है। गुजरात मे नवरात्र के अवसर पर गरबा नृत्य का आयोजन किया जाता है।
        विजयादशमी का पर्व राज परिवार मे सीमा उल्लंघन कर मनाया जाता था। परंतु समय चक्र के साथ राजतांत्रिक व्यवस्था का स्थान लोकतंत्र ने ले लिया। अब यह उत्सव आमजन भी विशेष उत्साह एवं उल्लास के साथ मना रहा है। वास्तव मे यह उत्सव बुराई के अन्त स्वरूप मनाया जाता है। यह पर्व असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक है तो अन्याय पर न्याय की जीत,अधर्म पर धर्म की जीत, दुष्कर्मो पर सत्कर्मो की जीत का प्रमुख है। यह पर्व हमे सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। सत्य चाहे कितना भी कडवा हो, हमेशा उसी का अनुसरण करना चाहिए। क्योकि यह सनातन सत्य है कि हमेशा शुभ कर्मो की ही जीत होती है। इसे विजय पर्व भी कहा जाता है।
          ज्योतिष शास्त्र मे इसे अबुझ मुर्हुत की संज्ञा दी गई है। इस दिन किया गया कोई भी कार्य अवश्य सफल रहता है। किसी भी प्रकार के शुभ कर्म के लिए इस पर्व का अवश्य उपयोग करना चाहिए।
                                                                                 परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
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शनिवार, 29 सितंबर 2012

मंगली दोष और प्रेम विवाह


  मंगल दोष के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए आप मेरे द्वारा लिखित पुस्तक .....मंगल दोष -पीड़ा और परिहार का अध्धयन करे 
विवाह योग्य आयु होते ही युवक युवती सोचने लगते है कि उनका विवाह किन परिस्थियो मे एवं किसके साथ सम्पन्न होगा। वर्तमान समय मे अधिकांश युवक युवती अपनी पसंद के अनुसार ही विवाह करना चाहते है। कहते है। कि जोडियां स्वर्ग मे तय होती है। एंव अपने पूर्व जन्म के  कर्मो  के अनुसार ही यहा इस जन्म मे जीवन साथी कि प्राप्ति होती हैं। किसी जातक का जीवन साथी कैसा होगा । उसका विवाह प्रेम विवाह होगा या नही । इसके बारे मे भी जानकारी जन्म कुण्डली से प्राप्त कि जा सकती है। जन्मांग चक्र मे विवाह कारक भावो पर पाप ग्रहो का प्रभाव होने पर विवाह मे समस्या आती रहती है।
विवाह मे किसी प्रकार कि समस्या आने पर मंगल को दोषी ठहराया जाता है। परंतु मंगल कि तरह अन्य सभी ग्रह भी अपनी रिथति के अनुसार विवाह मे बांधा उत्पन्नं कर सकते है। नवग्रहो मे शुक्र को प्रेम का कारक माना जाता है।इसलिए प्रेम विवाह के लिए सप्तम भाव व सप्तमेश का शुक्र के साथ सम्बंध होना कुछ अनुकुलता प्रदान करता है। जन्मांग चक्र मे पंचम भाव को प्रेम का भाव माना जाता है। जब पंचम भाव भावेश का सप्तम भाव भावेश से सम्बधं होता है। तब प्रेम विवाह कि संभावना बनती है। अर्थात अन्तर्जातीय विवाह होता है। सुर्य एवं वृह को सात्विक ग्रह माना जाता है। जब जन्मंाग  प्रेम   मे  विवाह का योग उपस्थित होता है तब इन योगकारक ग्रहो पर सूर्य एवं वृह का प्रभाव
 होने पर  विवाह अपनी पंसद के अनुसार  अपनी ही जाति  मे सम्पन्न होता है। लेकिन ऐसा सुर्य एव वृह कें कमजोर होने पर संभव होता है। यदि  बलवान हो तो घर वालो कि स्वीकृति नही मिल पाती है।
मंगल दोष होने पर भी प्रेम विवाह कि संभावना बनती है। मैने अनेक कुण्डलियो का अध्ययन करने के पश्चात पाया है। कि जब मंगल दोष उपस्थित होता है। एव जन्मांग मे मंगल बलवान होकर  स्थित हो तो प्रेम विवाह कि इच्छा मन मे जागृत होने लगती है। मंगल दोष से ग्रसित जातक अधिकतर अपनी पसंद के अनुसार जीवन साथी का चयन करना चाहते है। लेकिन हरेक मंगली दोष से ग्रसित जातक का प्रेम विवाह हो जाए । ऐसा भी नही होता है। जब किसी के मन मे प्रेम विवाह भी इच्छा होने लगे एंव उसका प्रेम विवाह नही हो अर्थात अपने मन पसंद जीवन साथी कि प्राप्ति नही हो तो मंगल शत्रु राशि नीच राशि एव वक्री अवस्था मे देखा गया है। यदि मंगल कमजोर हो एव उस पर सूर्य वृह का प्रभाव भी बन रहा हो तो प्रेम विवाह मे अवश्य परेशानिया उपस्थित होती है।
मंगली दोष के कारण जब मन पंसंद जीवन साथी कि प्राप्ति मे बाधा उत्पन्न हो तो उन्हे किसी योग्य ज्योतिषि के मार्ग दर्शन मे वैदिक उपायो को करना चाहिए ताकि विवाह मे आने वाली बाधाए दुर हो सके । इसी प्रकार मंगल शुक्र   भी प्रेम विवाह कि संभावना बनाता है। पंरतु मंगल शुक्र की युति होने पर प्रेम विवाह मे परेशानिया अवशय रहती हैं। इस युति के होने पर उसके चरित्र मे दोष कि संभावना भी बनती है। जब यह युति हो एव दोनो ग्रह कमजोर हो तो किसी के साथ कुछ समय तक प्रेम रहता है। लेकिन अंतत प्रेम विवाह नही हो पाता । मंगल शुक्र कि युति होने पर इनमे परस्पर अंतर जितना कम होता जाएगा उतना ही चरित्र का हनन होता जाएगा । यदि इस पर सूर्य वृह का प्रभाव नही हो तो चारित्र संबधी दोष अवश्य बढ जाता है। यदि इस युति पर राहु केतु का प्रभाव हो तो दोष बढ जाता है। एव उसके विवाह मे परेशानिया बढती हि जाती है। इस प्रकार कि स्थिति मे जातक को अपने चरित्र पर विशेष ध्यान रखना चाहिए । इसके साथ वैदिक उपायो को अवश्य करना चाहिए ।

राशिफल माह अक्टूबर 2012



मेष राशि:
इस माह आपको अपने कार्य व्यवसाय में पूर्ण सावधानी बरतनी होगी। आपको इस माह में वाहन चलाते समय विशेष सावधानी रखने की जरूरत है। साझेदारी में किए गए कार्यो से आपको इा माह नुकसान की संभावना बन रही है। परिवार में भी इस माह अशांति रहने की संभावना है। आपसी वैर-विरोध के कारण आपको मानसिक परेशानी बनती है। जीवनसाथी के स्वास्थ्य को लेकर भी आप कुछ परेशानी अनुभव करेंगे। संतान पक्ष की तरफ से आपको शुभ समाचार प्राप्त होंगे। इस माह आप किसी दूर प्रदेश की यात्रा पर जा सकते हैं। यदि यात्रा व्यापारिक प्रयोजन को लेकर बनती है तो आपको सावधानी रखने की जरूरत हैं। विद्यार्थियों के लिए यह मास संघर्ष भरा रहेगा। परिवार में अपने से बडे लोगों की तरफ से आपको कुछ परेशानी रहेगी। आकस्मिक खर्च के कारण आप पर आर्थिक बोझ बढ़ सकता है। मित्र वर्ग की तरफ से अपेक्षित सहयोग प्राप्त हेगा।
उपाय: बजरंग बाण का प्रतिदिन पांच बार पाठ करें। चीटियों को बूरा डालें। अपने कार्यस्थल पर अभिमंत्रित व्यापार वृद्धि महायंत्र की स्थापना करें। वाहन चलाते समय सावधानी रखें। वाहन दुर्घटनानाशक कवच को अपने वाहन पर लगाकर धूप-दीप दिखायें।
वृषभ राशि:
वृषभ राशि वालों को इस माह अपने स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस माह आपको अपने खान-पान पर विशेष ध्यान देना चाहिए। लोगों के विरोध के कारण आपको कुछ परेशानी उठानी पडे़गी। इस माह आपके कार्य व्यवसाय में उतार-चढ़ाव की संभावना बन रही है। कार्य व्यवसाय में माल की खराबी या किसी धोखे के कारण भी आपको कुछ हानि उठानी पड़ सकती है। आपको अग्नि से इस माह सावधानी रखनी चाहिए। समस्याओं के बावजूद आकस्मिक लाभ के कारण कुछ राहत अनुभव करेंगे। इस माह आपको स्त्री वर्ग से सावधानी रखनी चाहिए। महिलाओं को इस माह आपसी विवाद के कारण कुछ परेशानियां रहेंगी। अपने परिवार में किसी वृद्ध पुरूष के स्वास्थ्य को लेकर परेशानी रह सकती है। विद्यार्थियों को इस माह मनोरंजन की अधिकता के कारण पढ़ाई में व्यवधान आ सकता है। जीवनसाथी के स्वास्थ्य को लेकर भी परेशान रह सकते है। राज्य की तरफ से आपको कुछ राहत प्राप्त होगी।
उपाय: इस माह आपको श्रीयंत्र धारण करना चाहिए। स्फटिक श्रीयंत्र को स्थापित कर पूजा अर्चना करें तो विशेष लाभदायक रहेगा। गरीब व अनाथ बच्चों की सेवा करें।
मिथुन राशि:
आपके लिए अक्टूबर का महीना मित्रों के वैर-विरोध के कारण समस्यादायक बन रहा है। नौकर वर्ग की तरफ से आपको परेशानी रहेंगी। यदि आप किसी को अपने पास नौकरी के लिए रख रहे है तो पहले उसके बारे में ठीक से जांच-पड़ताल अवश्य करें। अपने कार्य व्यवसाय में वृद्धि का विचार कुछ समय के लिए दें। अपने अनुजों के स्वास्थ्य को लेकर कुछ परेशान रह सकते है। इस माह आपको पूर्वार्द्ध में आकस्मिक लाभ की प्राप्ति संभव है। संतान के स्वास्थ्य को लेकर परेशान रह सकते है। कार्य व्यवसाय को लेकर भी कुछ परेशानी हो सकती है। इस माह आर्थिक समस्या उतरार्द्ध में बनेगी। खर्च में कमी के उपरांत भी परेशानी रहेगी। शत्रु वर्ग के कारण मानसिक तनाव में आएंगे। इस कारण आर्थिक हानि का योग बन रहा है। माह में आकस्मिक दुर्घटना के कारण हानि उठानी पड़ सकती है। आपको कोई भी कार्य सोच समझकर एवं किसी सलाहकर की मदद के उपरांत ही करना चाहिए।
उपाय: बजरंग बाण का पाठ करें। प्रतिदिन सूर्य देव को अध्र्य देकर आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। बृहस्पति मंत्र का नित्य पांच माला जप करन लाभदायक बनता है।
कर्क राशि:
कर्क राशि वालों को इस माह कुछ राहत प्राप्त होगी। आपके कार्य व्यवसाय में संघर्ष के साथ सुधार होगा। कार्य व्यवसाय में अपेक्षित लाभ की प्राप्ति होगी परन्तु माह के उतरार्द्ध में खर्च की अधिकता रहेगी। इस समय आपको लाभ प्राप्ति में भी कमी रहेगी। माह के उतरार्द्ध में आर्थिेक रूप् से परेशान होना पड़ सकता है। इस माह आपको संतान की गलत आदतों के कारण परेशान होना पड़ सकता है। अपने आत्मविश्वास में कमी के कारण परेशान रह सकते हैं। माह के उतरार्द्ध में अपने पिता के स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखें। इष्ट मित्रों की तरफ से अपेक्षित सहयोग की प्राप्ति नहीं होगी। विरोधी पक्ष से आकस्मिक धोखे की संभावना बन रही है। संपति के क्रय-विक्रय के लिए व्यर्थ भगदौड़ करनी पड़ सकती है। आपको प्रेम प्रसंग में धोखा मिल सकता है। इस समय वाहन चलाते समय  अथवा किसी यात्रा पर जाने पर अपेक्षित सावधानी रखनी चाहिए। आकस्मिक दुर्घटना का योग इस माह बन रहा है। इस समय आपको माता के स्वास्थ्य का भी विशेष ध्यान रखना है। माता के स्वास्थ्य को लेकर लापरवाही न बरते, अन्यथा बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
उपाय: इस माह आपको चीटियों को शुक्रवार के दिन शक्कर बुरा खिलाना चाहियें। कुते को तदूंर की मीठी रोटी खिलायें। महामृत्युंजय कवच धारण करें।
सिंह राशि:
सिंह राशि वालों को इस माह के पूर्वार्द्ध में कार्य व्यवसाय अच्छा रहेगा व उससे लाभ भी मिलेगा। कार्य व्यवसाय मंे वृद्धि एवं विस्तार बनाने के लिए आप परिश्रम भी करेंगे। परिवारवालों की तरफ से आपको लाभ की प्राप्ति होगी। इष्ट मित्रों का सहयोग बना रहेगा। लोगों की तरफ से आंतरिक विरोध होगा। पीठ पीछे बुराई के कारण आप परेशानी अनुभव करेंगे। अचल सम्पति में विरोध के कारण भी परेशानी रहेगी। माह के उतरार्द्ध में आलस्य बनेगा। आत्मविश्वास में कमी के कारण भी आपका कार्य व्यवसाय प्रभावित होगा। जीवनसाथी से प्रेममय संबंध बनाने की कोशिश करें। धार्मिक कार्य, पूजा पाठ में वृद्धि होगी। इस माह अनावश्यक तर्क वितर्क से बचने की कोशिश करनी चाहिए। बिना सोचे-समझे किसी भी प्रकार का निर्णय नहीं लें। स्वास्थ्य की दृष्टि से माह का उतरार्द्ध आपके लिए परेशानीदायक  बना रहेगा। इस समय अपने चिकित्सक की राय अवश्य लें। राज्य कर्मचारियों को इस माह के उतरार्द्ध में स्थानान्तरण का सामना करना पड़ सकता है। अपने कर्म के प्रति पूर्णतया ईमानदार रहें। भ्रष्टाचार के आरोप आप पर लग सकते हैं, इसलिए सावधानी रख अच्छे समय का इंतजार करना चाहिए।
उपाय: नित्य प्रति सूर्य भगवान को अध्र्य देवें। आदित्य हृदय स्तोत्र एवं श्रीसूक्त का पाठ करना लाभदायक रहेगा।
कन्या राशि:
 इस माह आपको कार्य व्यवसाय से अपेक्षित सफलता प्राप्त होगी। इस समय आकस्मिक लाभ की प्राप्ति का योग बन रहा है। कार्य व्यवसाय अच्छा होने के उपरांत भी अपने भाग्य में कमी महसुस होगी किन्तु आत्म्विश्वास में वृद्धि होगी। आपमें महत्वाकांक्षा की भावना जागृत होगी। इस माह शेयर बाजार से आपको लाभ प्राप्ति की संभावना बन रही है। शेयर बाजार में निवेश करना आपके लिए लाभदायक रहेगा। इस समय आपकी रूचि मनोरंजन के कार्यो में बनी रहेंगी। विलासिता पर आपके खर्च की अधिकता रहेगी। संतान पक्ष की तरफ से आपको खुशखबरी प्राप्त हो सकती है। इस माह भूमि भवन की प्राप्ति भी होगी। भवन में साजो-सामान को लेकर खर्च कर सकते हैं। इस माह लेखन के प्रति रूचि बढे़गी परन्तु काॅपीराइट नियमों का उल्लघंन करने के कारण आपको कुछ समस्या हो सकती है। इस माह आपको प्रेम प्रसंग के कारण भी निराशा रहेगी। आप शत्रु पक्ष का शमन करने में समर्थ होंगे। इस माह आपकी आर्थिक स्थिति में कुछ परेशानी बनती है। अचल सम्पति में इस माह निवेश नहीं करना चाहिये।
उपाय: शनि के मंत्र का जाप करें। इस माह शुक्रवार के दिन चीटियों को बूरा डालें। स्फटिक माला धारण करें।
तुला राशि:
इस माह आपको कुछ राहत प्राप्त होगी। आपके कार्य व्यवसाय में उतार चढाव बना रहेगा। अपने भाग्योदय के कारण कुछ प्रसन्नता रहेगी। अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिये। इस समय ज्वर विकार एवं जमीन जायदाद के कारण परेशानी रह सकती है। वाहन चलाते समय सावधानी बरतें, अन्यथा आकस्मिक दुर्घटना का सामना करना पड़ सकता है। संतान के कारण परेशान रह सकते है। शेयर बाजार में निवेश करना आपके लिये परेशानी का कारण बन सकता है। इस माह आपको आकस्मिक समस्या का सामना करना पड़ सकता है। साझेदार के कारण लाभ की प्राप्ति बनी रहेगी। संगीत एवं नृत्य के क्षेत्र में कार्य करने वालों के लिये यह माह परेशानीदायक बन रहा है। अपने इष्ट मित्रों का अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने के कारण भी आप परेशान रह सकते है। माता-पिता का कमजोर स्वास्थ्य आपके लिये परेशानी का कारण बन रहा है। आपकी आर्थिक स्थिति सामान्य रहेगी। परिवार में विवाद होने के पश्चात् भी शांति बनी रहेगी। इस माह आपको अपनी वाणी पर नियंत्रण करना चाहिये अन्यथा व्यर्थ वाद-विवादों का सामना करना पड़ सकता है।
उपाय: इस समय शनि मंत्र का जाप करें। सूर्य भगवान को अध्र्य देकर आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। श्रीयंत्र धारण करना एवं पूजा उपासना लाभदायक रहेगी।
वृश्चिक राशि:
आपके लिये यह मास मिश्रित फलदायक बन रहा है। आपके स्वास्थ्य में ताजगी एवं सुधार होगा। मानसिक रूप से आपको इस माह कुछ परेशान होना पडेगा। इस माह आप कोई भी निर्णय जल्दबाजी में नही लें अन्यथा परेशानी उठानी पड़ सकती है। इस माह के पूर्वार्द्ध में आपको कठिन संघर्ष के पश्चात् सामान्य सफलता ही प्राप्त हेगी। आपके कार्य व्यवसाय में कोई न कोई अवरोध बना रहेगा। इष्ट मित्रों के असहयोगात्मक व्यवहार के कारण भी आप परेशान रहेंगे। लोगों से विवाद की स्थिति बन रही है। माह के उतरार्द्ध में आपको कार्य व्यवसाय में समस्या बढ़ जायेगी। इस समय खर्च में अधिकता के कारण भी आप परेशान रह सकते है। परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य को लेकर आपको समस्या बन रही है। राज्य की तरफ से चार्जशीट अथवा स्थानांतरण का सामना करना पड़ सकता है। साझेदारी में लाभ की प्राप्ति सामान्य रहेगी। विद्यार्थियों के लिये यह समय कठिन परीक्षा का है। नृत्य एवं संगीत के क्षेत्र में कार्य करने वालों को भी परेशानी उठानी पडेगी।
उपाय: शनि मंत्र ओम प्रां प्रीं प्रौं सः शन्यै नमः का जाप करें। सूर्य भगवान को अध्र्य देकर आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। गोमेद धारण करें।
धनु राशि:
धनु राशि वालों को इस माह आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। इस माह का पूर्वार्द्ध कुछ राहत भरा रहेगा परन्तु उतरार्द्ध में आर्थिक स्थिति कमजोर होगी। इस माह आपके कार्य व्यवसाय में संघर्ष बना रहेगा। माह के पूर्वार्द्ध में राज्य पक्ष की तरफ से धन एवं मान-सम्मान की प्राप्ति होगी। इस माह साझेदारी से आपको लाभ प्राप्त होगा। अपने कार्य व्यवसाय में वृद्धि के लिये कर्ज लेना पड़ सकता है। माह के उतरार्द्ध में परिवार एवं इष्ट मित्रों का सहयोग नहीं मिल पायेगा। शत्रु पक्ष के कारण कुछ परेशानी अवश्य बनी रहेगी। इस माह अपने स्वास्थ्य की नर्मी के कारण आप परेशान रह सकते हैं। इस समय यात्रा करते समय आपको सावधानी बरतनी चाहिए। खर्च में अधिकता बन रही है। संतान पक्ष पर आपको खर्च करना पड़ सकता है। शेयर बाजार में निवेश से अपेक्षित लाभ की प्राप्ति नहीं हो पायेगी। नृत्य-संगीत के क्षेत्र में कार्य करने वालों को उतरार्द्ध में कुछ समस्या बनती है। इस माह जमीन जायदाद में विवाद के कारण कोर्ट-कचहरी जाना पड़ सकता है। प्रेम प्रसंग के कारण बदनामी उठानी पड़ सकती है। माह के उतरार्द्ध में माता-पिता के कमजोर स्वास्थ्य के कारण परेशान हो सकते है। अपनी वाणी एवं आचार-विचार को अच्छा रखें।
उपाय: हनुमान चालिसा का पाठ करें। सूर्य भगवान को अध्र्य देवें। केसर का तिलक लगायें।
 मकर राशि:
मकर राशि वालों को इस माह कार्य व्यवसाय में संघर्ष बना रहेगा,परन्तु संघर्ष के पश्चात् लाभ की अपेक्षित प्राप्ति होगी। इस माह आप उदर विकार के कारण कुछ परेशान रह सकते है। संतान पक्ष के कारण भी परेशान रहेगी। वाद विवाद की स्थिति भी बन रही है। इस समय आपको प्रेम प्रसंग के कारण निराशा हो सकती है। प्रेम प्रसंग को लेकर विवादों का सामना भी करना पड़ सकता है। शेयर बाजार में निवेश करना आपके लिये हानिकारक बन रहा है। इसलिये निवेश करने बचें वरना आपको धोखा,आकस्मिक हानि उठानी पड़ सकती ह। इस माह आपकी अचल सम्पति में इस माह आप अपने कार्य का विस्तार सुदूर क्षेत्र में कर सकते है। इष्ट मित्रों एवं भाईयों का अपेक्षित सहयोग प्राप्त होता रहेगा। ज्योतिष क्षेत्र में कार्यरत लोगों को कुछ राहत प्राप्त होगी। खिलाडियों के लिये भी यह मास शुभ रहेगा। संगीत,नृत्य के क्षेत्र में कार्य करने वालों को कुछ संघर्ष करना पडेगा। इस माह जीवनसाथी से अनबन रह सकती है। इस माह अनिद्रा के कारण कुछ परेशानी हो सकती है। अपने खान-पान पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
उपाय: शुक्रवार के दिन चीटियों को बूरा डालें। कटेहला धारण करें। शनि मंत्र ओम शं शन्यै नमः का जाप करें।
कुंभ राशि:
आपके लिये यह माह परेशानीदायक बन रहा है। आपको पूर्णतः सावधानी बरतनी चाहिये। इस माह आपको साझेदार की तरफ से निराश होना पड़ सकता है। साझेदार से मधुर संबंध बनाने की कोशिश करें। अन्यथा साझेदारी टूट सकती है। आप अपने स्वयं के कार्य को किसी भी प्रकार से करते रहें्रे। इस माह आपकी आर्थिक स्थिति में भी उतार-चढाव बन रहा है। इसके उपरांत भी आपमें आत्मविश्वास की कमी होगी। अपने माता-पिता के स्वास्थ्य को लेकर परेशानी बनी रहेगी। शेयर बाजार में निवेश करने से लाभ की प्राप्ति होगी। संतान पक्ष की तरफ से भी खुशखबरी प्राप्त होगी। इस माह आप प्रेम प्रसंग को लेकर उत्साहित रहेंगे। नृत्य एवं संगीत के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को लाभ प्राप्ति होगी। इष्ट मित्रों का अपेक्षित सहयोग मिलने से भी आपके काम बनते जायेंगे। आपके आर्थिक स्थिति में सामान्य वृद्धि ही रहेगी। इस समय आप पारिवारिक मतभेद को लेकर परेशान रह सकते है। अपनी वाणी को मधुर बनाने की कोशिश करें। राज्य पक्ष की तरफ से भी परेशानियां बनी रहेंगी।
उपाय: सूर्य भगवान को अध्र्य देवें एवं आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। श्रीयंत्र की पूजा-अर्चना करें। बृहस्पति यंत्र धारण करें।
मीन राशि:
मीन राशि वालों के लिये इस माह भी कोई विशेष राहत प्राप्त नहीं होगी। इस माह कार्य व्यवसाय में अत्यंत संघर्ष रहेगा। धन की कमी के कारण परेशान रहेंगे परन्तु कर्ज द्वारा धन की व्यवस्था हो जायेगी। इस माह आपको संतान पक्ष की तरफ से भी परेशानी रहेगी। प्रेम प्रसंग के कारण बदनामी भी झेलनी पड़ सकती है। यदि आप कोई नया कार्य शुरू करना चाहें तो आपको शुभ समय का इंतजार करना चाहिये अन्यथा परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। राज्य पक्ष की तरफ से भी माह में परेशानियां उठानी पडें़गी। आप पर रिश्वतखोरी का आरोप भी लग सकता है, इसलिये सतर्क होकर ईमानदारी से कार्य करना चाहिये। नृत्य एवं संगीत के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को परेशानी रहेगी। इष्अ मित्रों का अपेक्षित सहयोग नही मिलने से आपको महत्वपूर्ण निर्णय सोच-समझकर लेना चाहियें। वात विकार के कारण परेशानी हो सकती है। जीवनसाथी के स्वास्थ्य में सामान्य सुधार होगा। इस माह आपको यात्रा करते समय सावधान रहना चाहिये अन्यथा दुर्घटना का सामना करना पड़ सकता है।
उपाय: शनि मंत्र ओम शं शन्यै नमः का जाप करें। सूर्य भगवान को अध्र्य देवें एवं आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। बुधवार को गाय को हरा चारा खिलायें।


कैसे मनाए विजयादशमी



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       विजयादशमी का पर्व  प्राचीन  काल से ही पूरे भारत वर्ष मे धुमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व रावण पर राम की विजय के प्रतीक रूप  में  मुख्यतया मनाया जाता है। इस दिन रावण,मेघनाद व कुंभकर्ण का पुतला बनाकर उन्हे जलाने की परंपरा मुख्य रूप से सर्वत्र प्रचलित है। इस दिन अपराजिता पूजन व शमी पुजन विशेष रूप से कई स्थानो पर किया जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार जब दशमी नवमी से संयुक्त हो तो अपराजिता देवी का पुजन दशमी को उतर पूर्व दिशा में अपरान्ह के समय विजय एवं कल्याण की कामना के लिए किया जाना चाहिए।
     धर्मसिन्धु के अनुसार अपराजिता पूजन के लिए अपरान्ह में गांव के उतर पूर्व की ओर जाकर एक स्वच्छ स्थल को गोबर से लीपना चाहिए। फिर चंदन से आठ कोण दल बनाकर संकल्प करना चाहिए- ’ मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्धयर्थ अपराजिता  पूजन करिष्ये। इसके पश्चात उस आकृति के बीच मे अपराजिता का आह्वान करना चाहिए। इसके दाहिने एवं बाये जया एवं विजया का आह्वान करना चाहिए। एवं साथ ही क्रिया शक्ति को नमस्कार एवं उमा को नमस्कार करना चाहिए। इसके पश्चात  अपराजितायै नमः जयायै नमः, विजयायै नमः मंत्रो के साथ षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। इसके पश्चात यह प्रार्थना करनी चाहिए। ’ हे देवी, यथाशक्ति मैने जो पुजा अपनी रक्षा के लिए की है। उसे स्वीकार कर आप अपने स्थान को जा सकती है।
      इस प्रकार अपराजिता पूजन के पश्चात उतर पूर्व की ओर शमी वृक्ष की तरफ जाकर पुजन करना चाहिए। शमी का अर्थ शत्रुओ का नाश करने वाला होता है। शमी पूजन के लिए इस मंत्र का पाठ करना चाहिए-
                  प्रार्थना मंत्र-
                           शमी शमयते पापं शमी लोहितकण्टका।
                           धारिष्यर्जुन बाणानां रामस्य प्रियवादिनी।।
                           करिष्यमाणयात्रायां  यथाकाल सुखं मया।
                           तत्र निर्विघ्नकत्र्रीत्वंभव श्रीरामपूजिते।।
अर्थ- शमी पापो का शमन करती है। शमी के कांटे तांबे के रंग के होते है। यह अर्जून के बाणो को धारण करती है। हे शमी,राम ने तुम्हारी पुजा की है। मै यथाकाल विजययात्रा पर निकलुंगा। तुम मेरी इस यात्रा को निर्विघ्न कारक व सुखकारक करो।
        इसके पश्चात शमी वृक्ष के नीचे चावल, सुपारी व तांबे का सिक्का रखते है। फिर वृक्ष की प्रदक्षिणा कर उसकी जड के पास की मिट्टी व कुछ पते घर लेकर आते है।
       भगवान राम के पूर्वज रघु ने विश्वजीत यज्ञ कर अपनी सम्पूर्ण धन संपति दान कर पर्ण कुटिया  में रहने लगे। इसी समय  कौत्स  को चौदह  करोड स्वर्ण मुद्राओ की आवश्यकता गुरू दक्षिणा के लिए पडी। तब रघु ने कुबेर पर आक्रमण कर दिया तब कुबेर ने शमी एवं अश्मंतक पर स्वर्ण मुद्राओ   की वर्षा की थी तब से शमी व अश्मंतक की पुजा की जाती है। अश्मंतक के पत्र घर लाकर स्वर्ण मानकर लोगो मे बांटने का रिवाज प्रचलित हुआ।
        अश्मंतक पुजा समय निम्न मंत्र बोलना चाहिए-
                              अश्मंतक महावृक्ष महादोष निवारणम्।
                              इष्टानां दर्शनं देहि कुरू शत्रुविनाशनम्।।
अर्थात हे अश्मंतक महावृक्ष तुम महादोषो का निवारण करने वाले हो, मुझे मेरे मित्रो का दर्शन कराकर शत्रु का नाश करो।
     इस प्रकार विजयादशमी का पर्व मनाने से सुख समृद्धि प्राप्त होकर विजय की प्राप्ति होती है।
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दुर्गा सप्तशती से करे अपनी मनोकामना पूर्ति



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        नवरात्र शक्ति आराधना का पर्व है। इस समय माता दुर्गा की पुजा उपासना करने से जातक को धर्म,अर्थ,काम की प्राप्ति होती है। चारों पुरूषार्थो की प्राप्ति के लिए दो सप्तशती का पाठ किया जाता है। मद्भागवत गीता से मोक्ष की प्राप्ति होती है। शेष तीनो पुरूषार्थो की प्राप्ति दुर्गा सप्तशती के पाठ से संभव है। वर्तमान में देखा जाए तो आम जनमानस इन तीन पुरूषार्थ की प्राप्ति के लिए हमेशा प्रयत्न करता रहता है। इसलिए इनकी प्राप्ति के लिए नवरात्र काल से उतम समय ओर कोई नही है। इसलिए अपनी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इस नवरात्र में दुर्गा सप्तशती का पाठ अवश्य करे।
    दुर्गा सप्तशती मार्कडेय पुराण का एक अंश है। इसमे 700 मंत्र है। जिसमे  उच्चाटन के 200 मंत्र, स्तंभन के 200 मंत्र,मारण कर्म के 90, मोहन कर्म के 90,विद्वेषण के 60 और वशीकरण के 60मंत्र है। दुर्गा सप्तशती मे 535 श्लोक,57 उवाच, 42 अर्धश्लोक और पांचवे अध्याय के 66 अवदानो को एक-एक मंत्र मानकर कुल 700 मंत्र बनते है। इसी कारण इसे दुर्गा सप्तशती कहा जाता है।
      दुर्गा सप्तशती पाठ का प्रारंभ करने से पूर्व उचित मुर्हुत देखकर पाठ प्रारंभ करना चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करे। यदि लाल रंग के वस्त्र एवं आसन हेतु लाल रंग का ऊनी कंबल मिल जाए तो उतम है। फिर आसन शुद्धि क्रिया कर आसन पर बैठ जाए। इसके लिए निम्न मंत्र का जाप कर जल हाथ में लेकर अपने चारो ओर जल छिडक दे। तिलक लगाना, शिखा बंधन कर पुर्वाभिमुख बैठ जाए। फिर चार बार आचमन कर इनका जाप करे।
 ओम ऐं आत्मतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
 ओम ह्में विद्यातत्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
  ओम क्लीं शिवतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
      ओम ऐं ह्में क्लीं सर्वतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा।
इसके पश्चात प्राणायाम, प्रणाम कर संकल्प लेकर देवी दुर्गा का ध्यान करके पुस्तक की पुजा करे।
                 पुजा मंत्र-
                           ओम नमो दैव्ये महादैव्ये शिवाये सततं नमः।
                           नमः प्रकृत्यै भद्राय नियताः प्रणताः स्मृतामः।।
फिर योनि मुद्रा प्रदर्शन कर भगवती को प्रणाम करना चाहिए। इसके पश्चात मूल नवार्ण मंत्र से पीठादि में आधार शक्ति की स्थापना करके पुस्तक को विराजमान इसके बाद शापोद्धार करे।
               शापोद्धार मंत्र-
                          ओम  ह्रीं  क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरू कुरू स्वाहा।
इस मंत्र का पाठ प्रारंभ एवं अंत मे सात बार जाप करे। इसके बाद उत्कीलन मंत्र का जाप आदि एवं अंत मे इक्कीस बार करे।
              उत्कीलन मंत्र-
                         ओम श्रीं क्लीं  ह्रीं  सप्तशती चण्डिके उत्कीलनं कुरू कुरू स्वाहा।
इसके पश्चात मृतसंजीवनी मंत्र का जाप सात-सात बार करे।
               मंत्र-
                    ओम  ह्रीं ह्रीं  वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनी विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापयं क्रीं  ह्रीं ह्रीं  वं स्वाहा।
इसके पश्चात माता दुर्गा का ध्यान करते हुए दुर्गासप्तशती का पाठ करने से आपकी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है।
      यदि आप किसी विशेष प्रयोजन हेतु दुर्गा सप्तशती का पाठ करना चाहे तो अपने प्रयोजन से संबंधित अध्याय का पठन करे। इस अध्याय पठन के आदि एवं अन्त मे बटुक भैरव के अष्टोतरशत नाम का पाठ  करे। क्योकि शास्त्रो के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन आवश्यक एवं शीघ्र फलदायक माना गया है। दुर्गा सप्तशती के अध्याय कामना पूर्ति के अनुसार-
प्रथम अध्याय का पाठ हर प्रकार की समस्या के समाधान के लिए।
दुसरे अध्याय का पाठ कोर्ट, कचहरी एवं शत्रुनाश हेतु।
तीसरे अध्याय का पाठ दुश्मनों से छुटकारे हेतु।
चतुर्थ अध्याय का पाठ शक्ति दर्शन हेतु।
पंचम अध्याय का पाठ भक्ति भावना, षठे अध्याय का पाठ दुःख,भय,शोक नाश हेतु, सप्तम अध्याय का पाठ किसी विशेष मनोकामना हेतु, अष्टम अध्याय का पाठ मोहन कर्म हेतु, नवम अध्याय का पाठ संतान सुख, गुमशुदा व्यक्ति या वस्तु की प्राप्ति हेतु, दशम अध्याय का पाठ भी नवम के समान ही फलदायक है। एकादश अध्याय का पाठ भौतिक सुख एवं कार्य व्यवसाय में प्रगति हेतु, द्वादश अध्याय का पाठ मान सम्मान एवं तेरहवे अध्याय का पाठ भक्ति भाव हेतु किया जाता है। आप भी अपनी इच्छानुसार पाठ कर अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति इस नवरात्र में अवश्य करे।
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

कैसे हुआ माँ दुर्गा का प्राकट्य


         
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 मार्कंडेय  पुराण के अनुसार दुर्गा अपने पूर्व जन्म   में प्रजापति दक्ष की कन्या सती के रूप में उत्पन्न हुई थी। सती का विवाह भगवान शंकर से हुआ था। शास्त्रों के अनुसार दक्ष भगवान शिव से प्रसन्न नही थे। एक बार दक्ष ने अपने यहां एक बहुत बडे यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में प्रजापति दक्ष ने सभी देवताओं को आमंत्रित किया परंतु भगवान शिव को आमंत्रण नही भेजा। माता सती अपने पिता का यज्ञ देखने की बहुत इच्छुक थी। इसलिए सती के अनुरोध पर भगवान शंकर ने सती को अपने पिता के घर जाकर देखने की अनुमति दे दी।
      जब माता सती अपने पिता दक्ष के घर पहुंची तो माता सती ने महसुस किया की उसे कोई भी आदर और प्रेमभाव से नही बुला रहा है। अपने पति भगवान शंकर का भी तिरस्कार किया जा रहा है। जब स्वयं अपने पिता दक्ष के मुंह से भगवान शंकर के लिए अपमान जनक शब्द कहे तो सती को बहुत क्रोध आया। उन्हे अपने       पति भगवान शंकर का अपमान सहन नही हुआ। इसी कारण उन्होने यज्ञ में कुदकर अपने आप को भस्म कर डाला। इस  के कुछ काल पश्चात दुर्गम नाम का अत्याचारी दैत्य ने  ब्रह्माजी की कठोर तपस्या कर उन्हे प्रसन्न कर दिया। जब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर दुर्गम से इच्छित वर मांगने को कहा तो उसने मनचाहा वर प्राप्त कर लिया।
    दुर्गम ने इस मनचाहे वरदान के बल पर चारो वेदो को छुपा दिया। इसके पश्चात वह लोगो पर अत्याचार करने लगा। ऋषि-मुनियों के हवनादि कृत्यो में भी बाधाएं डालने लगा। इससे धार्मिक एवं याज्ञिक   क्रियाएं कमजोर होने लगीै। जिससे देवगणो को भी चिंता होने लगी। कई वर्षो तक ऐसा चलते रहने से अकाल पडने लगा। जल की धाराएं सुखने लगी तो कुछ धाराओं के जल को इसने अपने आसुरी शक्तियों के प्रभाव से सुखा दिया। इससे दुःखित होकर देवता और ऋर्षि मुनि एकत्रित होकर ब्रह्माजी के पास गए। एवं ब्रह्माजी से इन परेशानियो का अंत करने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि मैने ही दुर्गम को वरदान दिया है इसलिए मैं तो विवश हूँ। इसलिए आप सभी आद्या शक्ति स्वरूपा भगवती जी के पास जाओं। वही तुम्हे इस कष्ट से मुक्ति दिला सकती है। इस पर सभी देवगण और ऋर्षिमुनि भगवती के पास आकर अपने दुःखो का निवारण करने की प्रार्थना की। माता भगवती इनकी बातों को सुनकर करूणा से भर आई। मुनियो के दुःख से संतप्त होकर माता की आंखो से अश्रु जल की हजारो धाराए बहने लगी। जिससे नदियो और समुद्र में अथाह जल भर गया। उस जल से पृथ्वी के सभी प्राणी तृप्त हो गए। देवी भगवती ने सभी के लिए उचित भोजन की व्यवस्था की। भगवती ने शत नैत्रो से ऋर्षि मुनियो को देखा था। इसलिए वे शताक्षी भी कहलाई। ऋर्षि मुनियो ने भगवती से अनुरोध किया कि जिस प्रकार से माता आपने शुम्भ-निशुम्भ, चण्ड-मुण्ड, रक्तबीज का वध करके हमे संकट से बचाया था। उसी प्रकार आप दुर्गम असुर का वध करके हमारी रक्षा करें। तब भगवती ने कहा कि आप सभी निश्चिंत रहै। मैं आप सभी की रक्षा करूंगी एवं आपका कल्याण करूंगी। इस प्रकार के आश्वासन से सभी अपने अपने लोको को लौटकर आंनद से रहने लगे। सर्वत्र शांति एवं निर्भयता को देखकर दुर्गम को घोर आश्चर्य हुआ। जब दुर्गम ने इसका पता लगाया तो उसे ज्ञात हुआ कि यह सब भगवती के कारण हुआ है। इस पर उसने तत्काल अपनी विशाल सेना को एकत्रित कर देवलोक पर आक्रमण कर दिया।
       देवी भगवती ने देवलोक और समस्त सृष्टि को बचाने के लिए दुर्गमासुर से युद्ध करने लगी। उसी समय तेजबल से युक्त दस देवियां देवी के शरीर से निकली एवं असंख्य मात्रिकाये भी प्रकट हो गयी। ये सभी शक्तियां चमकवान एवं तेजबल से युक्त दिखाई दे रही थी जिन्होने देखते ही देखते दुर्गमासुर की विशाल सेना का नाश कर डाला। इसके बाद देवी ने अपने तीक्ष्ण नोंक वाले त्रिशुल से दुर्गमासुर का वध कर दिया। देवी भगवती ने महादैत्य दुर्गमासुर का वध किया। इसी कारण से वह दुर्गा रूप में पुजी जाने लगी। इसके पश्चात वेदों का उद्धार करके देवताओं को लौटा दिया।
     ऋर्षि मुनियों और देवताओं के स्मरण करने से देवी अयोनिजारूप में शक्ति प्रकट हुई। वे अपने हाथों में बाण कमल,पुष्प,शाक-मूल धारण किए हुए थी। इसी शाक-मूल से उन्होने संसार का भरण पोषण किया। इसीलिए इनका एक नाम शाकंभरी भी पडा। देवी भागवत के अनुसार जिससे ऐश्वर्य और पराक्रम की प्राप्ति होती है, वही शक्ति है। कहा भी है-
                            ऐश्वर्य च या शक्ति पराक्रम एव च।
                            तत्स्वरूपा तयोर्दात्री सा शक्ति प्रकीर्तिता।।
इस प्रकार देवी शक्ति अर्थात दुर्गा का प्राकट्य हुआ।
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बुधवार, 26 सितंबर 2012

नवरात्र में करे दुर्गा के नवरूपो की पूजा


     
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नवरात्र शब्द दो शब्दों नव़ + रात्र से मिलकर बना है। जिसका अर्थ नौ दिव्य अहोरात्र से है। शास्त्रों के अनुसार नवरात्री का पर्व वर्ष में चार बार आता है। ये चार नवरात्रीयां बासंतिक,आषढीय,शारदीय व माघीय है जिसमें से दो नवरात्री शारदीय व बासंतिक जनमानस में विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसी कारण शेष दो नवरात्री आषाढी व माघीय को गुप्त नवरात्री कहा जाता है। कल्कि पुराण के अनुसार चैत्र नवरात्र जनसामान्य के पुजन हेतु उतम मानी गई है। गुप्त नवरात्र साधको के लिए उतम मानी है। शारदीय नवरात्र राजवंश के लिए उतम मानी गई है।  भगवान श्री राम ने शारदीय नवरात्र का विधि विधान से पुजन कर लंका विजय प्राप्त की थी। लंकिन समय चक्र के साथ राजपरिवार प्रथा बंद होकर अब आमजन भी शारदीय नवरात्र को अति उत्साह से मनाता आ रहा है एवं माता दुर्गा को प्रसन्न करने के अनेक उपाय भी करता आ रहा है।
   नवरात्र में माता दुर्गा के नव स्वरूपो की पुजा करने का विशेष विधान है। ये नव स्वरूपो तीन देवियो पार्वती,लक्ष्मी और सरस्वती के तीन-तीन रूप है। जिसमे से प्रथम तीन दिनों में पार्वती के तीन रूपों की पुजा की जाती है। इससे अगले तीन दिनो में लक्ष्मी के तीनो रूपो की व शेष तीन दिनो में सरस्वती के तीन रूपो की पुजा की जाती है। इन तीन महाशक्तियों को संयुक्त रूप से दुर्गा कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार ये नवस्वरूप-
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघंटेति कुष्माण्डेति चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कंदमातेति षष्ठ कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रिती महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता।
उक्तन्येतानि नामानि ब्रह्मणैन महात्मना।।
अर्थात दुर्गा के इन स्वरूपो की नव दिन में क्रमशः पुजा कर नवदुर्गा की कृपा प्राप्ति की जाती है। आइये नवदुर्गा के इन नौ रूपो की क्रमशः पुजा विधान के बारे में जानकारी प्राप्त करे-
1 शैलपुत्री- प्रथम नवरात्री को दुर्गा के शैलपुत्री रूप की पुजा की जाती है। दुर्गा के इस रूप का महत्व अधिक है। इस दिन उपासक अपने मन को मुलाधार चक्र में स्थित करते है। फिर इस वंदना मंत्र का 108 बार जाप करने से शैलपुत्री की कृपा प्राप्त होती है।
 मंत्र- वंदे वांछितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम ।
           वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्।।
दुर्गा का प्रथम रूप पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कही जाती है। इनकी साधना कर साधक मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।
2 ब्रह्मचारिणी- द्वितीय नवरात्री को माता के ब्रह्मचारिणी स्वरूप की पुजा की जाती है। इस दिन साधक को अपना मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित करना चाहिए। जिससे इन्हे अनंत फल की प्राप्ति होती है। इस दिन साधक को निम्न वंदना मंत्र का जाप 108 बार करना चाहिए।
        वंदना मंत्र-
                     दधाना करपदमाभ्यामक्षमाला कमण्डलु।
                     देवी प्रसीदमयि ब्रह्मचारिण्यनुतमा।।
दुर्गा के इस रूप ने भगवान शंकर की कठोर तपस्या करके भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त किया था। इसीलिए इन्हे तपश्चारिणी भी कहा जााता है। इनके कर कमलो में अक्षमाला एवं कमंडल रहता है।
3 श्री चंद्रघंटा- तृतीय नवरात्र के दिन माता के चंद्रघंटा स्वरूप की पुजा की जाती है। माता चंद्रघंटा की पुजा करने से समस्त सांसारिष्ठ कष्टो से मुक्ति मिल जाती है। इस दिन साधक को निम्न मंत्र का 108 बार जाप करना चाहिए।
                    वंदना मंत्र-
                             पिण्डजप्रवरारूढा़ चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
                             प्रसादं तनुते मद्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता।।
इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचन्द्र होने से इन्हे चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। मणिपुर चक्र इनकी साधना से जाग्रत होकर अहंकार का नाश होता है एवं निरोगता प्रदान कर ऐश्वर्यदायक बनती है।
4 श्री कूष्मांडा देवी- नवरात्र के चतुर्थ दिन माता के कूष्मांडा स्वरूप की पूजा की जाती है। इस दिन साधक को मन अनाहत चक्र में स्थित करने से मनुष्य त्रिविध तापो से मुक्त होता है। इस दिन साधक को निम्न वंदना मंत्र का जाप 108 बार अवश्य करना चाहिए।
                  वंदना मंत्र-
                             सूरासम्पूर्ण कलशं रूधिराप्लुतमेव च ।
                            दधानां हस्त पदमाभ्यां कुष्मांडा शुभदाळस्तु में।।
माता के इस रूप के उदर से ब्रह्मण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हे कूष्मांडा कहा जाता है। मां कूष्मांडा अपने भक्तों पर कृपा दृष्टि रखकर सुख संपति प्रदान करती है।
5 स्कंद माता- नवरात्र के पांचवे दिन स्कंद माता की पूजा की जाती है। इनकी पूजा से विशुद्ध चक के जाग्रत होने पर प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ साधक को स्वत ही मिल जाती है। इस दिन साधक को निम्न मंत्र का 108 बार जाप करना चाहिए।
                 वंदना मंत्र-
                          सिंहासनागता नित्यं पदमाश्रितकरद्वयां।
                          शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी।।
श्री स्कंद अर्थात कुमार कार्तिकेय की माता होने के कारण इन्हे स्कंदमाता कहा जाता है। श्री स्कंद माता सिंहासन पर विराजमान वं कमल पुष्प् से सुशोभित है। इसकी पुजा सदा शुभ रहती है एवं साधक का कल्याण करती है।
6 श्री कात्यायनी- नवरात्र के छठे दिन माता के कात्यायनी स्वरूप की पुजा की जाती है। इस दिन साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होता है। इस दिन साधक को निम्न मंत्र का 108 बार जाप करना चाहिए।
                   वंदना मंत्र-
                            चंद्रहासोज्जवलकरा शार्दूलवर वाहना।
                            कात्यायनी शुभं दद्यादेवि दानवघातिनी।।
महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री रूप में जन्म लिया। इसलिए इन्हे कात्यायनी कहा जाती है। इनकी पुजा करने से श्रेष्ठ वर एवं सुख संपति की प्राप्ति होती है।
7 कालरात्रि- सातवे नवरात्र को माता के कालरात्रि स्वरूप की पुजा की जाती है। इनकी पुजा करके सहस्त्रार चक्र के जाग्रत होने से प्राप्त होने वाली सिद्धिया जातक को प्राप्त होती है। इस दिन निम्न वंदना मंत्र का 108 बार जाप करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
                  वंदना मंत्र-
                           एकवेणी जपाकर्ण पूरानग्ना खरास्थिता।
                          लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त शरीरिणी।।
                          वामपादोल्ल सल्लोहलताकष्टक भूषणा।
                          वर्धनमुर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी।।
काल का नाश करने के कारण इन्हे कालरात्रि कहा जाता है। इनकी उपासना से साणक के समस्त दुःखो का नाश हो जाता है।
8 महागौरी- नवरात्र के आठवे दिन माता के महागौरी स्वरूप की पूजा करनी चाहिए। इस दिन निम्न मंत्र का 108 बार जाप कर माता को प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिए।
                  वंदना मंत्र-
                          श्वेत वृषे समारूढा श्वेताम्बर धरा शुचिः।
                          महागौरी शुभं दद्यान्त्र महादेव प्रमोददा।।
माता के इस स्वरूप का वर्ण अत्यंत गौर है। इसीलिए इन्हे महागौरी कहा जाता है। इनकी उपासना से साधक के असंभव कार्य भी संभव हो जाते है।
9 सिद्धिदात्री- नवरात्र के अंतिम नवे दिन माता के सिद्धिदात्री स्वरूप की पुजा करनी चाहिए। इस दिन निम्न मंत्र का 108 बार जाप करने से साधक को समस्त प्रकार की सिद्धिया प्राप्त हो जाती है। समस्त सिद्धियो को देने वाली होने से इन्हे सिद्धिदात्री कहा जाता है।
                   वंदना मंत्र-
                            सिद्धगंधर्वयक्षदौर सुरैरमरेरवि।
                            सेव्यमाना सदाभूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
इस स्वरूप की आराधना के साथ ही नवरात्र की समाप्ति होती है। शारदीय नवरात्र के इस दिन रामनवमी एवं दसवे दिन को विजयादशमी के रूप में मनाकर असत्य पर सत्य , अधर्म पर धर्म एवं बुराईयों पर अच्छाईयों की विजय के रूप में मनाया जाता है।                        
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नवरात्री में कैसे करे माँ दुर्गा को प्रसन्न


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संपूर्ण ब्रह्मण्ड का संचालन करने वाली जो शक्ति है। उस शक्ति को शात्रो ने आद्या शक्ति की संज्ञा दी है। देवी सुक्त के अनुसार-
या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।।
अर्थात जो देवी अग्नि,पृथ्वी,वायु,जल,आकाश और समस्त प्राणियों में शक्ति रूप में स्थित है, उस शक्ति को नमस्कार, नमस्कार, बारबार मेरा नमस्कार है। इस शक्ति को प्रसन्न करने के लिए नवरात्र काल का अपना विशेष महत्व है। मां दुर्गा को प्रसन्न करने हेतु नवरात्र में निम्न बातो का विशेष ध्यान रखना चाहिए। नवरात्र  में साधक को व्रत रखकर माता दुर्गा की उपासना करनी चाहिए। माता दुर्गाकी उपासना से सभी सांसारिक कष्टो से मुक्ति सहज ही हो जाती है।
नवरात्रि में घट स्थापना के बाद संकल्प लेकर पुजा स्थान को गोबर से लेप लीपकर वहां एक बाजट पर लाल कपडा बिछाकर उस पर माता दुर्गा की प्रतिमा या चित्र को स्थापित कर पंचोपचार पुजा कर धुप-दीप एवं अगरबती जलाए। फिर आसन पर बैठकर रूद्राक्ष की माला सें किसी एक मंत्र का यथासंभव जाप करे। पुजन काल एवं नवरात्रि में विशेष ध्यान  रखने योग्य बाते-
1- दुर्गा पुजन में लाल रंग के फुलो का उपयोग अवश्य करे। कभी भी तुलसी,आंवला,आक एवं मदार के फुलों का प्रयोग नही करे। दुर्वा भी नही चढाए।
2- पुजन काल में लाल रंग के आसन का प्रयोग करे। यदि लाल रंग का उनी आसन मिल जाए तो उतम अन्यथा लाल रंग काल कंबल प्रयोग कर सकते है।
3- पुजा करते समय लाल रंग के वस्त्र पहने एवं कुंकुंम का तिलक लगाए।
4- नवरात्र काल में दुर्गा के नाम की ज्योति अवश्य जलाए। अखण्ड ज्योत जला सकते है तो उतम है। अन्यथा सुबह शाम ज्योत अवश्य जलाए।
5- नवरात्र काल में नौ दिन व्रत कर सके तो उतम अन्यथा प्रथम नवरात्र चतुर्थ नवरात्र एवं होमाष्टमी के दिन उपवास अवश्य करे।
6- नवरात्र काल में नव कन्याओं को अन्तिम नवरात्र को भोजन अवश्य कराए। नव कन्याओं को नव दुर्गा को मान कर पुजन करे।
7- नवरात्र काल में दुर्गा सप्तशती का एक बार पाठ पुर्ण मनोयोग से अवश्य करना चाहिए।
नवरात्री में जाप करने हेतु विशेष मंत्र-
1 ओम दुं दुर्गायै नमः
2 ऐं ह्मीं क्लीं चामुंडाये विच्चै
3 ह्मीं श्रीं क्लीं दुं दुर्गायै नमः
4 ह्मीं दुं दुर्गायै नमः
5 ग्रह दोष निवारण हेतु नवदुर्गा के भिन्न भिन्न रूपों की पुजा करने से अलग-अलग ग्रहों के दोष का निवारण होता है। कोई ग्रह जब दोष कारक हो तो-
सूर्य दोष कारक होने पर नवदुर्गा के शैलपुत्री स्वरूप की पुजा करनी चाहिए। दस महा विधाओं में से मातंगी महाविधा की उपासना लाभदायक करनी है।
चंद्र दोष कारक होने पर नवदुर्गा के कुष्मांडा के स्वरूप की पुजा करनी चाहिए।दश महाविधाओं में भुवनेश्वरी की उपासना चंद्रकृत दोषो को दुर करत़ी ळें
मंगलदोष कारक होने पर नवदुर्गा के स्कंदमाता स्वरूप की पुजा करनी चाहिए। दश महाविधाओं में बगलामुखी की उपासना मंगलकृत दोषों को दुर करती है।
बुध दोष कारक होने पर नवदुर्गा के कात्यायनी स्वरूप की पुजा करनी चाहिए। दश महाविधाओं में षोडशी की उपासना बुध की शांति करती है।
वृहस्पति दोष कारक होने पर नवदुर्गा के महागौरी स्वरूप की उपासना करनी चाहिए। दश महाविधाओं में तारा महाविद्या की उपासना गुरू ग्रह के दोषो को दुर करती है।
शुक्र दोष कारक होने पर नवदुर्गा के सिद्धीदात्री स्वरूप की पुजा करनी चाहिए। दश महाविद्याओं में कमला महाविद्या की उपासना शुक्र दोषो को कम करती है।
शनि दोषकारक होने पर नवदुर्गा के कालरात्रि स्वरूप पुजा करनी चाहिए। दश महाविद्याओं में काली महाविद्या की उपासना शनि दोष का शमन करती है।
राहु दोषकारक होने पर नवदुर्गा के ब्रह्मचारिणी स्वरूप पुजा करनी चाहिए। दश महाविद्याओं में छिन्नमस्ता की उपासना लाभदायक रहती है।
केतु दोष कारक होने पर नवदुर्गा के चंद्रघंटा स्वरूप की पुजा करने से दोष दुर होता है। दश महाविद्याओं में धुमावती की उपासना केतु दोष नाशक है।
  इस प्रकार आप नवरात्र में दुर्गा पुजा, उसके स्वरूप की पुजा कर सुख, शांति एवं समृद्धि प्राप्त कर
सकते है।                                                           परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

आखिर क्या हैं श्राद्ध एवम पितृ दोष


               
वागा राम परिहार
परिहार ज्योतिष अनुसन्धान केंद्र 
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      शास्त्रो में मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण कहे गए है। देव ऋण ,ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इसमें से पितृ ऋण के निवारण के लिए पितृ यज्ञ का वर्णन किया गया है। पितृ यज्ञ का दुसरा नाम ही श्राद्ध कर्म है। श्रद्धायंा इदम् श्राद्ध। अर्थात पितरो के उदेश्य से जो कर्म श्रद्धापूर्वक किया जाए,वही श्राद्ध है। महर्षि बृहस्पति के अनुसार जिस कर्म विशेष में अच्छी प्रकार से पकाए हुए उत्तम व्यंजन को दुग्ध घृत और शहद के साथ श्रद्धापूर्वक पितरो के उदेश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए वही श्राद्ध है।
        भारतीय संस्कृति में माता पिता को देवता तुल्य माना जाता है। इसलिए शास्त्र वचन है कि पितरो के प्रसन्न होने पर सारे देव प्रसन्न हो जाते है। ब्रह्मपूराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरो के अलावा ब्रह्म, इन्द्र, रूद्र, अश्विनी कुमार, सुर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव, एवं मनुष्यगण को भी प्रसन्न कर देता है।  मृत्यु के पश्चात हमारा स्थूल शरीर तो यही रह जाता है। परंतु सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा मनुष्य के शुभाशुभ कर्मो के अनुसार किसी लोक विशेष को जाती है। शुभकर्मो से युक्त आत्मा अपने प्रकाश के कारण ब्रह्मलोक, विष्णुलोक एवं स्वर्गलोक को जाती है। परंतु पापकर्म युक्त आत्मा पितृलोक की ओर जाती है। इस यात्रा में उन्हे भी शक्ति की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हम पिंड दान द्वारा करते है।
                      कैसे जाने पितृऋण एवं पितृदोष
         संतान की उत्पति में गुणसुत्र का अत्यधिक महत्व है। इन्ही गुणसुत्रो के अलग-अलग संयोग से पुत्र एवं पुत्री की प्राप्ति होती है। शास्त्रो में पुत्र को श्राद्ध कर्म का अधिकारी मुख्यतः माना गया है। पिता के शुक्राणु से जीवात्मा माता के गर्भ मे प्रवेश करती है। उस जीवांश में 84 अंश होते है। जिसमे 28 अंश शुक्रधारी पुरूष अर्थात पिता के होते है। ये 28 अंश पिता के स्वंय के उपार्जित होते है एवं शेष अंश पूर्व पूरूषो के होते है। उसमे से 21 अंश पिता, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामह के, 6 अंश चतुर्थ पुरूष, 3 अंश पंचम पुरूष व 1 अंश षष्ठ पुरूष का होता है। इस प्रकार सात पीढीयो तक के सभी पूर्वजो के रक्त का अंश हमारे शरीर में विद्यमान होने से हम अपने पूर्वजो के ऋणी है अर्थात हम पर पितृ ऋण रहता है। इसलिए उनको पिंडदान करना चाहिए।
         पितृदोष होने पर परिवार एवं परिवार जनो को विचित्र प्रकार की घटनाओ का सामना करना पडता है। ऐसे परिवार मे रोग का प्रकोप बना रहता है। किसी एक के स्वस्थ होने पर दुसरा बीमार हो जाता है। कई बार रोग का पता ही नही चल पाता रोगी को थोडी राहत महसुस होती है फिर रोग का पुनः प्रकोप होता रहता है। कई बार इनके कार्य व्यवसाय मे भी अवरोध की स्थिति बनकर घाटा उठाना पडता है। इनके परिवार मे भी मतभेद की स्थिति बनती है। आपस मे कलह के कारण जीवन तनावपूर्ण हो जाता है। इन सभी प्रकार की अप्रत्भाशित घटनाओ के पीछे पितृदोष ही मुख्य रूप से होता है। इसकी जानकारी जन्मपत्रिका एवं प्रश्न कुंडली के द्वारा जान सकते है। वृह को मुख्य रूप से इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है। यदि जन्मांग में वृह निर्बल, अशुभ, वक्री, अस्त, होकर स्थित हो तो उस जातक के पितर उससे अप्रसन्न रहते है। ऐसे जातक को किस पितर के प्रकोप के कारण इस प्रकार की परेशानियां आ रही है। इसके लिए प्रश्नकुंडली के अष्टक एवं द्वादश भाव में स्थित ग्रह से पता लगाया जा सकता है। प्रत्येक ग्रह को किसी रिश्तेदार का प्रतिनिधि माना जाता है। इसमे सूर्य का पिता का कारक, चंद्र को माता, मंगल को छोटा भाई, बुध को बहन, बुआ, मौसी, वृह को बडे भाई एवं पत्रिका शुक्र को पत्नी का कारक माना जाता है। राहु एवं केतु को प्रेत योनि मे गए पितरो का प्रतिनिधि माना है। इस प्रकार प्रश्न कुंडली में स्थिति के अनुसार पितर दोष के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते है। इसके पश्चात कुशल देवज्ञ से शांति कर्म की व्यवस्था करवा सकते है।
              श्राद्ध पक्ष में शांति का वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय महत्व                                      
        सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार पितृ लोक चंद्रमा के उपर स्थित है। जब सुर्य कन्या राशि में स्थित होता है तब चंद्र पृथ्वी के सबसे ज्यादा समीप स्थित होता है। इसलिए इस समय हमारे पितर जो वायनीय शरीर धारण किए हुए है। पृथ्वी लोक पर आकर तर्पण व पिेंडदान की आशा करते है। यह समय आश्विन मास का कृष्ण पक्ष होता है। इस समय शीत ऋतु का प्रारंभ होता है इसलिए चंद्रमा पर रहने वाले पितरो के लिए यह समय अनुकूल रहता है। पृथ्वी लोक का एक मास चंद्र का एक अहोरात्र होता है। अमावस्या को सुर्य चंद्र के ठीक उपर स्थित होता है। इसलिए इस समय पितरो का मध्यान्ह होता है। व अष्टमी  को इसके दिन का उदय होता है। इसलिए चंद्र के उध्र्व भाग पर निवास करने वाले पितरो के लिए आश्विन कृष्ण पक्ष उत्तम रहता है।                                                                                                                                                                                                  
           हिन्दु धर्म शास्त्रो के अनुसार हमारा शरीर 27 प्रकार के तत्वो से बना होता है। इसमे से दस तत्व स्थूल रूप में पंच महाभूत, अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, एवं आकाश एवं पांच कर्मेन्दिया है। शेष सत्रह तत्व सूक्ष्म शरीर का निमार्ण करती है। मृत्यु होने पर शरीर स्थूल शरीर का अस्तित्व तो समाप्त हो जाता है परंतु सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व इस संसार मे बना रहता है। मृत्यु के पश्चात दक्षगात्र एवं षोडशी सपिण्डन तक मृत व्यक्ति प्रेत संज्ञा में रहता है। इसके पश्चात वह पितरो में सम्मिलित हो जाता है। यह सुक्ष्म शरीर आसक्ति के कारण अपने परिवार के निकट ही भटकता रहता है। जीवन में प्रत्येक व्यक्ति की कुछ इच्छाएं अधुरी रह जाती हैे। इन्ही इन्छाओं की पूर्ति के लिए वह भटकता रहता है। विशेष रूप से श्राद्ध पक्ष मे पितृलोक से वायवीय रूप में पृथ्वी पर श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते है। एवं ब्राह्मणो के साथ वायु रूप में भोजन ग्रहण करते है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार जिस परिवार में श्राद्ध कर्म नही होता। वहां दुःख क्लेश एवं राकग का प्रकोप होता है। इन्हे कई प्रकार की परेशानियो का सामना पडता है। ऐसे नास्तिक पुरूषो के पितर प्यास से व्याकुल होकर देह से निकलने वाले अपवित्र जल से प्यास बुझाते है। इन नास्तिक लोगो के बारे में आदित्य पुराण में तो कहा गया है। कि इनके अतृप्त पितर इनका ही रक्त पीने को विवश होते है। श्राद्ध काल के पश्चात पितर अपने-अपने लोक को चले जाते है।
                     श्राद्ध में अमावस्या का महत्व                                                                                                
        अमावस्या का अपना अलग ही महत्व है। इसे सर्व पितृ अमावस्या भी कहते है। जिस तिथि विशेष को किसी की मृत्यु होती है। उसके परिवारजन उस तिथि विशेष को श्राद्ध करते है। लेकिन मृतक की तिथि का पता नही होने पर अमावस्या के दिन उसका श्राद्ध किया जा सकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि सूर्य की सहस्त्र किरणो में से अभा नामक किरण मुख्य है जिसके तेज से सूर्य समस्त लोको को प्रकाशित करता है। इसी अभा में तिथि विशेष को चंद्र निवास करते है। इसलिए अमावस्या का अपना विशेष महत्व है।
शास्त्रो के अनुसार श्राद्ध काल में पितर वायवीय रूप में पृथ्वी लोक पर आ जाते है एवं अमावस्या के दिन दरवाजे पर उपस्थित हो जाते है। एवं श्राद्ध की कामना करते है। इसलिए श्राद्ध करने पर पितर तृप्त होकर आशीर्वाद प्रदान करते है। इस दिन सूर्यास्त तक वे श्राद्ध की कामना करते है। सूर्यास्त के पश्चात वे निराश होकर अपने-अपने लोक को चले जाते है। ऐसे नास्तिक लोगो के पितर दीर्घ श्वास छोडते हुए दारूण शाप देकर अपने लोक को लौट जाते है।
            आखिर कैसे पहुंचता है। पितृरो तक श्राद्ध का भोजन  
          श्राद्ध काल में परिवारजनो द्वारा दिए जाने वाले हव्य-कव्य पदार्थ आखिर उनको कैसे प्राप्त होते है। यह एक विचारणीय प्रश्न है। शास्त्रो के अनुसार मनुष्य अपने कर्म के अनुसार विभिन्न प्रकार के फलो का भोग करता है। इन्ही कर्मो के अनुसार उसे मृत्यु के पश्चात कोई योनि प्राप्त होती है। कर्मफलो के अनुसार ही उसे स्वर्ग नरक एवं पुनःजन्म की प्राप्ति होती है। शास्त्रो का निर्देश है कि श्राद्धकर्ता के तीन पीढीयो तक के पितरो को शीत, तपन, भुख, प्यास का होता है। पर स्वयं कर्म न कर सकने के कारण अपनी भुख-प्यास मिटा सकने में असमर्थ  होते है। इसी कारण सृष्टि के आदि काल से ही श्राद्ध का विधान प्रचलन में है। भगवान श्री राम के श्राद्ध करने का वर्णन करते हुए कहा है कि जब भगवान श्री राम को वनवास में अपने पिता राजा दशरथ के स्वर्गारोहण की सूचना मिली तब उन्होने उसी समय दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके तर्पण किया और कहा कि मेरे पूज्य पिता राजाओ के शिरोमणी महाराज आज मेरा दिया हुआ यह निर्मल जल आपको पितृ लोक मे अक्षय रूप से प्राप्त हों                                                                                
      श्राद्ध काल में यमराज प्रेत एवं पितरो को वायु रूप में पृथ्वी लोक पर जाने की अनुमति देते है। वे श्राद्ध भाग ग्रहण कर सके। देवलोक व पितर लोक के पितर तो श्राद्ध काल में आमंत्रित ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर अपना भाग ग्रहण कर लेते है पंरतु जो पितर किसी अन्य योनि में जन्म ले चुके है।उन्हे उनका भाग दिव्य पितर ग्रहण करते है। ये दिव्य पितर उन्हे अपनी योनि के अनुसार भोग प्राप्ति कराकर तृप्त करते है। श्राद्ध में पितर के नाम गोत्र एवं मंत्र का उच्चारण करने से श्राद्ध भाग संबंधित पितर अपनी योनि के अनुसार प्राप्त हो जाता है। अपने शुभ कर्मो के अनुसार जो पितर देव योनि को प्राप्त करते उन्हे अमृत एवं गंध रूप में प्राप्त होता है। श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उससे पिशाच योनि में स्थित पितर तृप्त होते है। इन्हे रूधिर रूप में भी भोजन प्राप्त होता है। स्नान करने से भीगने वाले वस्त्रो से जो जल धरती पर गिरता है उससे वृक्ष योनि में गए पितर तृप्त होते है। गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में यक्ष योनि प्राप्त होने पर पेय रूप मेें एवं दानव योनि में गए पितरो को मांस के रूप में भोजन प्राप्त होता है।
         श्राद्ध काल में ब्राह्मण द्वारा आचमन किए जाने वाले जल से पशु, कृमि व कीट योनि में गए पितर तृप्त होते है। पशु योनि में गए पितरो को तृण रूप में भोजन की प्राप्ति होती है। सर्प योनि में गए पितरो को वायु रूप में एवं जो पितर मनुष्य यानि प्राप्त कर चुके है उन्हे श्राद्ध के अन्न व पिण्ड से तृप्ति होती है। इस प्रकार श्राद्ध का भाग ग्रहण कर श्राद्ध काल समाप्त होने पर अपने अपने लोक को वापिस चले जाते है। इन्ही पितरो के आशीर्वाद से श्राद्ध कर्ता को सुख, सम्पति, यश, एवं राज्य की प्राप्ति भी होती परंतु श्राद्ध नही करने वाले मनुष्यो के पितर अतृप्त होकर दीर्घ श्वास छोडते हुए श्राद्ध काल के पश्चात शाप देकर अपने लोक को लौट जाते है। इसी कारण इन्हे कई प्रकार की परेशानियो का सामना करना पडता है।
                    किस तिथि पर किसका श्राद्ध करे
         भारतीय संस्कृति के अनुसार पितृपक्ष मंे तपर्ण व श्राद्ध करने से पितर आशीर्वाद प्रदान करते है जिसमे हमारे घर सुख शांति एवं समृद्वि बनी रहती है। हिन्दु पंचाग के अनुसार वर्ष में जिस तिथि को किसी पितर की मृत्यु हुई। पितृ पक्ष में उसी तिथि को उस पितर के निमिन्त श्राद्ध संम्पन करते है। कई बार किसी पितर की मृत्यु तिथि याद नही रहती। उस पितर के लिए भी विशेष तिथि बताई गई है, उस विशेष तिथि में उस पितर का श्राद्ध करने से उसकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है। ये प्रमुख तिथियां इस प्रकार है।                      
 आश्विन कृष्ण प्रतिपदा-यह तिथि नाना नानी के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। यदि नाना नानी के परिवार में श्राद्ध करने वाला कोई नही हो एवं उनकी मृत्यु तिथि भी ज्ञात नही हो तो इस तिथि को उनका श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है एवं घर में सुख शांति एवं समृद्धि बढती है।
आश्विन कृष्ण पंचमी- इस तिथि में परिवार के उन पितरो का श्राद्ध करना चाहिए जिनकी अविवाहित अवस्था में ही मृत्यु हुई हो। इसी कारण इसे कुंवारा पितर पंचमी भी कहते है।
आश्विन कृष्ण नवमी- यह तिथि माता एवं परिवार की अन्य महिलाओं के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। इसी कारण इसे मातृ पितर नवमी भी कहते है। इस दिन श्राद्ध करने से परिवार की सभी दिवंगत महिलाओं की आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
एकादशी व द्वादशी-आश्विन कृष्ण एकादशी व द्वादशी को उन पितरो का श्राद्ध किया जाता है जिन्होने संन्यास ले लिया हो। इस दिन इनका श्राद्ध करने से इनकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
आश्विन कृष्ण चतुर्दशी- इस तिथि को  उन पितरो का श्राद्ध किया ताजा है। जिनकी अकाल मृत्यु हो। इस तिथि को उन पितरो श्राद्ध किया जाता है। जिन्होने आत्महत्या की हो या जिनकी किसी के द्वारा हत्या की गई हो। इस तिथि को इनका श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
आश्विन कृष्ण अमावस्या- इस तिथि को सर्व पितृ अमावस्या भी कहते है। इस दिन सभी पितरो का श्राद्ध किया जाता है। यदि श्राद्ध में किसी पितर का श्राद्ध नही किया गया हो तोेेेे उसका श्राद्ध इस दिन करने से उसकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है। यदि भूलवश किसी का श्राद्ध हो पाए तो इस दिन उस पितर का श्राद्ध कर सकते है।
               श्राद्ध में क्यो कराते है कौओ को भोजन                                                  
       श्राद्ध पक्ष में पितरो को प्रसन्न करने के लिए श्रद्धा से पकवान बनाकर अपने पितरो को भोग अर्पित करते है। इस समय कौओ को बुलाकर भी प्राचीन समय से ही श्राद्ध का भोजन कराते आ रहे है। भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि हमारे पितर वायवीय रूप में उपस्थित होकर श्राद्ध भोजन से तृप्त होकर हमे आर्शीवाद प्रदान करते है। हमारे धर्मशास्त्रो ने कौए को देवपुत्र माना है। धर्मशास्त्रो के अनुसार सर्वप्रथम इन्द्र के पुत्र ज्यंत ने ही कौए का रूप धारण किया। इसी ने माता सीता को चोंच मारकर घायल कर दिया था। तब भगवान राम नं तिनके से ब्रह्मास्त्र चलाकर जयंत की आंख फोड दी थी। जब उसने अपने इस कर्म की माफी मांगी तो भगवान राम ने वरदान दिया कि तुम्हे श्राद्ध काल मे जो भोजन श्राद्ध कर्म के निमित खिलाया जाएगा। वह पितरो को प्राप्त होगा। उसी समय से श्राद्ध में कौओं को भोजन कराया जाता है।
     वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार कौए को एक ही आंख से दिखाई देता है। इसे आप इस प्रकार भी मान सकते है कि जिस प्रकार कौआ एक ही आंख से सबको समभाव से देखता है उसी प्रकार हमारे पितर भी हमारी अच्छाईयों को देखकर हमसे संतुष्ट रहे एव ंहमे आर्शिवाद प्रदान करे।
गया श्राद्ध को सर्वश्रेष्ठ क्यों माना जाता है
       पितृ पक्ष में गया में श्राद्ध करने के लिए लोगो की भीड उमड पडती है। यहां श्राद्ध करने से पितरो को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। ऐसी मान्यता है। इस मान्यता के पीछे भी धार्मिक कारण है।
        हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार प्राचीन काल में गयासुर नाम का शक्तिशाली असुर भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसकी तपस्या से सभी देवगण चिंतित होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु सभी देवगण को लेकर गयासुर के पास उसकी तपस्या भंग करने के लिए एवं भगवान ने प्रसन्न होकर गयासुर से वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर गयासुर ने स्वयं को देवी देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा। भगवान ने तथास्तु कह  दिया । इससे ऐसी स्थिति हो गई कि घोर पापी भी गयासुरके दर्शन व स्पर्श से स्वर्ग में जाने लगे। इस पर धर्मराज चिंतित हुए। उनकी इस दशा से देवताओं ने मिलकर छलपूर्वक एक योजना बनाई। जिसमें यज्ञ के नाम पर गयासुर से संपूर्ण शरीर मांग लिया।गयासुर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर उतर की पांव एवं दक्षिण की तरफ मुख कर लेट गया। उसका शरीर पांच कोस में फैला हुआ था। इसलिए उस क्षेत्र का नाम गया पड गया। गयासुर के पुण्य प्रभाव के कारण ही वह तीर्थ क्षेत्र बन गया। वहां पर पिण्डदान करने से पितरो की आत्मा को शांति एवं स्वर्ग प्राप्ति की मान्यता के कारण ही गया श्राद्ध को सर्वश्रेष्ठ माना है। यहां पर विष्णु पद मंदिर, फल्गु नदी किनारे अक्षय वट, नागकुंड,पांडुशिला, नौकुट,ब्रह्मेनी वैतरणी,मंगलागौरी,रामकुंड,सीताकुंड,रामशिला,प्रेतशिला आदि स्थानो पर पिंडदान करना श्रेष्ठ माना जाता है।
कैसे करे श्राद्ध
       भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के सोलह दिन को श्राद्ध काल अथवा पितृ पक्ष कहा जाता है। इस समय पितरो की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म करने का विधान प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। श्राद्ध काल में पितरो को तर्पण एवं पिंडदान करने से वे प्रसन्न होकर आर्शीवाद देते है जिससे हमारे घर में सुख शांति एवं समृद्धि बनी रहती है।
     श्राद्ध काल में बिना दक्षिणा के श्राद्ध व्यर्थ माना जाता है। फिर भी सामथ्र्य नही होने पर काले तिल व जल अर्पित करने से भी पितर तृप्त होकर प्रसन्न होकर आर्शीवाद प्रदान करते है। इस हेतु दोपहर के पश्चात कुतुप काल में दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बायां घुटना जमीन पर लगाकर साफा दाहिने कंधे पर रखकर काला तिल व जल हथेली में लेकर अपने पितरो का उच्चारण करते हुए पितृ तीर्थ से तीन जलांजलिया देने से पितर तृप्त होकर आर्शीवाद प्रदान करते है। अंगुठा व तर्जनी के मध्य का क्षेत्र पितृ तीर्थ कहा जाता है।
         श्राद्ध काल मंे पिंडदान व नारायण बली भी अपनी सामथ्र्य के अनुसार लोग करते है। धनवान लोगो को इस दिन योग्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर धन,आभूषण,वस्त्र एवं अन्न का दान करना चाहिए। ब्राह्मण को भो कराकर भोज्य सामग्री यथा आटा,फल,गुड,शक्कर,शाक दक्षिण के साथ भी प्रदान करने से पितृ प्रसन्न होकर आर्शीवाद प्रदान करते है। गरीब व्यक्ति एक मुट्ठी काले तिल का दान कर भी श्राद्ध कर सकते है।
       श्राद्ध करने में यदि इस प्रकार से आपको परेशानी हो तो गाय को चारा एवं कौओं को भोजन अपने पितरो को याद करते हुए कराए। इन सब प्रकार से असमर्थ होने पर सूर्य देव को प्रणाम कर प्रार्थना करे कि मैं श्राद्ध कर्म हेतु जरूरी धन एवं साधन नही होने से अपने पितरो का श्राद्ध करने में असमर्थ हुँ। इसलिए आप मेरे पितरो तक मेरी भावनाओं एवं प्रेममय प्रणाम पहुंचा कर उनको तृप्त करे। इस प्रकार आप अपनी सामथ्र्य के अनुसार श्राद्ध कर्म कर पितरो की आत्मा को शांति प्रदान कर उनका आर्शीवाद प्राप्त कर सकते है।
       श्राद्ध काल में इन मंत्रो का जाप करना पितृदोष की शांति करता है। इन्हे श्राद्ध काल में प्रतिदिन 108 बार जाप करना चाहिए-
   मंत्र - ओम सर्व पितृ प्रं प्रसन्नो भव ओम
        ओम ह्में क्लीं ऐं सर्व पितृभ्यो स्वात्म सिद्धये ओम फट्।
श्राद्ध मे किन बातो का रखे ध्यान
       पितरो की आत्मा की शांति हेतु श्राद्ध कर्म का विशेष् महत्व है। श्राद्ध कर्म में आपको निम्न बातो का विशेष ध्यान रखना चाहिए जिससे पितर जनो की आत्मा को शांति प्रदान हो एवं आपको शुभफलो की प्राप्ति हो सके।
श्राद्ध के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। श्राद्धकर्ता को तन एवं मन दोनो से पवित्र रहना चाहिए।
श्राद्ध में मामा,भाणजा,गुरू,ससुर,नाना,जमाता,दौहित्र,वधु,ऋत्विज्ञ एवं यज्ञकर्ता इनको भोजन कराना शुभ रहता है।
पितरो को सोना,चांदी एवं तांबे के बर्तन अत्यंत प्रिय है। इसलिए जहां तक संभव हो इनके बर्तनो में भोजन कराए। अन्यथा दोना-पतल में भोजन कराए। लोहे एवं लोहे के अंश वाले बर्तनो में भोजन नही करे।
श्राद्धपिंडो को गौ,ब्राह्मण या बकरी को खिलाना चाहिए।
श्राद्ध कर्म में गेहुँ,मुंग,जौ,धान,आंवला,चिरौजी,वेर,मटर,तिल,आम,बेल,सरसो तेल का प्रयोग करना शुभ रहता है।
श्राद्धकर्ता को पान सेवन ,तेल मालिश,पराये अन्न का सेवन नही करना चाहिए।
श्राद्ध कर्म में चना,कुलथी,काले उडद,मूली,खीरा,कचनार,काला नमक,लौकी,बैगन,प्याज,लहसुन,सुपारी,सिंघाडा,जामुन,गाजर,कुम्हडा का सेवन करना चाहिए।
श्राद्ध में श्रीखड,चंदन,खस,कर्पूर का प्रयोग करना चाहिए।
श्राद्ध में कमल,मालती,जुही,चम्पा,तुलसी का प्रयोग उतम रहता है। जबकि बेलपत्र,कदम्ब,मौलसिरी,आदि का प्रयोग नही करना चाहिए।
श्राद्ध में भोजन के समय वार्तालाप नही करे।
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आखिर कैसे पहुंचता हैपितरो तक श्राद्ध का भोजन


       
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          श्राद्ध काल में परिवारजनो द्वारा दिए जाने वाले हव्य-कव्य पदार्थ आखिर उनको कैसे प्राप्त होते है। यह एक विचारणीय प्रश्न है। शास्त्रो के अनुसार मनुष्य अपने कर्म के अनुसार विभिन्न प्रकार के फलो का भोग करता है। इन्ही कर्मो के अनुसार उसे मृत्यु के पश्चात कोई योनि प्राप्त होती है। कर्मफलो के अनुसार ही उसे स्वर्ग नरक एवं पुनःजन्म की प्राप्ति होती है। शास्त्रो का निर्देश है कि श्राद्धकर्ता के तीन पीढीयो तक के पितरो को शीत, तपन, भुख, प्यास का अनुभव होता है। पर स्वयं कर्म न कर सकने के कारण अपनी भुख-प्यास मिटा सकने में असमर्थ  होते है। इसी कारण सृष्टि के आदि काल से ही श्राद्ध का विधान प्रचलन में है। भगवान श्री राम के श्राद्ध करने का वर्णन करते हुए कहा है कि जब भगवान श्री राम को वनवास में अपने पिता राजा दशरथ के स्वर्गारोहण की सूचना मिली तब उन्होने उसी समय दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके तर्पण किया और कहा कि मेरे पूज्य पिता राजाओ के शिरोमणी महाराज आज मेरा दिया हुआ यह निर्मल जल आपको पितृ लोक मे अक्षय रूप से प्राप्त हों                                                                                
      श्राद्ध काल में यमराज प्रेत एवं पितरो को वायु रूप में पृथ्वी लोक पर जाने की अनुमति देते है। वे श्राद्ध भाग ग्रहण कर सके। देवलोक व पितर लोक के पितर तो श्राद्ध काल में आमंत्रित ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर अपना भाग ग्रहण कर लेते है पंरतु जो पितर किसी अन्य योनि में जन्म ले चुके है।उन्हे उनका भाग दिव्य पितर ग्रहण करते है। ये दिव्य पितर उन्हे अपनी योनि के अनुसार भोग प्राप्ति कराकर तृप्त करते है। श्राद्ध में पितर के नाम गोत्र एवं मंत्र का उच्चारण करने से श्राद्ध भाग संबंधित पितर अपनी योनि के अनुसार प्राप्त हो जाता है। अपने शुभ कर्मो के अनुसार जो पितर देव योनि को प्राप्त करते उन्हे अमृत एवं गंध रूप में प्राप्त होता है। श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उससे पिशाच योनि में स्थित पितर तृप्त होते है। इन्हे रूधिर रूप में भी भोजन प्राप्त होता है। स्नान करने से भीगने वाले वस्त्रो से जो जल धरती पर गिरता है उससे वृक्ष योनि में गए पितर तृप्त होते है। गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में यक्ष योनि प्राप्त होने पर पेय रूप मे एवं दानव योनि में गए पितरो को मांस के रूप में भोजन प्राप्त होता है।
         श्राद्ध काल में ब्राह्मण द्वारा आचमन किए जाने वाले जल से पशु, कृमि व कीट योनि में गए पितर तृप्त होते है। पशु योनि में गए पितरो को तृण रूप में भोजन की प्राप्ति होती है। सर्प योनि में गए पितरो को वायु रूप में एवं जो पितर मनुष्य यानि प्राप्त कर चुके है उन्हे श्राद्ध के अन्न व पिण्ड से तृप्ति होती है। इस प्रकार श्राद्ध का भाग ग्रहण कर श्राद्ध काल समाप्त होने पर अपने अपने लोक को वापिस चले जाते है। इन्ही पितरो के आशीर्वाद से श्राद्ध कर्ता को सुख, सम्पति, यश, एवं राज्य की प्राप्ति भी होती परंतु श्राद्ध नही करने वाले मनुष्यो के पितर अतृप्त होकर दीर्घ श्वास छोडते हुए श्राद्ध काल के पश्चात शाप देकर अपने लोक को लौट जाते है। इसी कारण इन्हे कई प्रकार की परेशानियो का सामना करना पडता है।

श्राद्ध पक्ष में शांति का वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय महत्व


                 
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        सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार पितृ लोक चंद्रमा के उपर स्थित है। जब सुर्य कन्या राशि में स्थित होता है तब चंद्र पृथ्वी के सबसे ज्यादा समीप स्थित होता है। इसलिए इस समय हमारे पितर जो वायवीय  शरीर धारण किए हुए है। पृथ्वी लोक पर आकर तर्पण व पिंडदान की आशा करते है। यह समय आश्विन मास का कृष्ण पक्ष होता है। इस समय शीत ऋतु का प्रारंभ होता है इसलिए चंद्रमा पर रहने वाले पितरो के लिए यह समय अनुकूल रहता है। पृथ्वी लोक का एक मास चंद्र का एक अहोरात्र होता है। अमावस्या को सुर्य चंद्र के ठीक उपर स्थित होता है। इसलिए इस समय पितरो का मध्यान्ह होता है। व अष्टमी  को इसके दिन का उदय होता है। इसलिए चंद्र के उध्र्व भाग पर निवास करने वाले पितरो के लिए आश्विन कृष्ण पक्ष उत्तम रहता है।                                                                                                                                                                                                  
           हिन्दु धर्म शास्त्रो के अनुसार हमारा शरीर 27 प्रकार के तत्वो से बना होता है। इसमे से दस तत्व स्थूल रूप में पंच महाभूत, अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, एवं आकाश एवं पांच कर्मेन्दिया है। शेष सत्रह तत्व सूक्ष्म शरीर का निमार्ण करती है। मृत्यु होने पर शरीर स्थूल शरीर का अस्तित्व तो समाप्त हो जाता है परंतु सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व इस संसार मे बना रहता है। मृत्यु के पश्चात दक्षगात्र एवं षोडशी सपिण्डन तक मृत व्यक्ति प्रेत संज्ञा में रहता है। इसके पश्चात वह पितरो में सम्मिलित हो जाता है। यह सुक्ष्म शरीर आसक्ति के कारण अपने परिवार के निकट ही भटकता रहता है। जीवन में प्रत्येक व्यक्ति की कुछ इच्छाएं अधुरी रह जाती है। इन्ही इन्छाओं की पूर्ति के लिए वह भटकता रहता है। विशेष रूप से श्राद्ध पक्ष मे पितृलोक से वायवीय रूप में पृथ्वी पर श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते है। एवं ब्राह्मणो के साथ वायु रूप में भोजन ग्रहण करते है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार जिस परिवार में श्राद्ध कर्म नही होता। वहां दुःख क्लेश एवं रोग  का प्रकोप होता है। इन्हे कई प्रकार की परेशानियो का सामना पडता है। ऐसे नास्तिक पुरूषो के पितर प्यास से व्याकुल होकर देह से निकलने वाले अपवित्र जल से प्यास बुझाते है। इन नास्तिक लोगो के बारे में आदित्य पुराण में तो कहा गया है। कि इनके अतृप्त पितर इनका ही रक्त पीने को विवश होते है। श्राद्ध काल के पश्चात पितर अपने-अपने लोक को चले जाते है।इसलिए श्राद्ध कालमें पिंडदान एवम शांति कर्म अवश्य करना चाहिए   

श्राद्ध कर्म से होती है पितृदोष शांति


          
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      शास्त्रो में मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण कहे गए है। देव ऋण ,ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इसमें से पितृ ऋण के निवारण के लिए पितृ यज्ञ का वर्णन किया गया है। पितृ यज्ञ का दुसरा नाम ही श्राद्ध कर्म है। श्रद्धायंा इदम् श्राद्ध। अर्थात पितरो के उदेश्य से जो कर्म श्रद्धापूर्वक किया जाए,वही श्राद्ध है। महर्षि बृहस्पति के अनुसार जिस कर्म विशेष में अच्छी प्रकार से पकाए हुए उत्तम व्यंजन को दुग्ध घृत और शहद के साथ श्रद्धापूर्वक पितरो के उदेश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए वही श्राद्ध है।
        भारतीय संस्कृति में माता पिता को देवता तुल्य माना जाता है। इसलिए शास्त्र वचन है कि पितरो के प्रसन्न होने पर सारे देव प्रसन्न हो जाते है। ब्रह्मपूराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरो के अलावा ब्रह्म, इन्द्र, रूद्र, अश्विनी कुमार, सुर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव, एवं मनुष्यगण को भी प्रसन्न कर देता है।  मृत्यु के पश्चात हमारा स्थूल शरीर तो यही रह जाता है। परंतु सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा मनुष्य के शुभाशुभ कर्मो के अनुसार किसी लोक विशेष को जाती है। शुभकर्मो से युक्त आत्मा अपने प्रकाश के कारण ब्रह्मलोक, विष्णुलोक एवं स्वर्गलोक को जाती है। परंतु पापकर्म युक्त आत्मा पितृलोक की ओर जाती है। इस यात्रा में उन्हे भी शक्ति की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हम पिंड दान द्वारा करते है।
                      कैसे जाने पितृऋण एवं पितृदोष
         संतान की उत्पति में गुणसुत्र का अत्यधिक महत्व है। इन्ही गुणसुत्रो के अलग-अलग संयोग से पुत्र एवं पुत्री की प्राप्ति होती है। शास्त्रो में पुत्र को श्राद्ध कर्म का अधिकारी मुख्यतः माना गया है। पिता के शुक्राणु से जीवात्मा माता के गर्भ मे प्रवेश करती है। उस जीवांश में 84 अंश होते है। जिसमे 28 अंश शुक्रधारी पुरूष अर्थात पिता के होते है। ये 28 अंश पिता के स्वंय के उपार्जित होते है एवं शेष अंश पूर्व पूरूषो के होते है। उसमे से 21 अंश पिता, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामह के, 6 अंश चतुर्थ पुरूष, 3 अंश पंचम पुरूष व 1 अंश षष्ठ पुरूष का होता है। इस प्रकार सात पीढीयो तक के सभी पूर्वजो के रक्त का अंश हमारे शरीर में विद्यमान होने से हम अपने पूर्वजो के ऋणी है अर्थात हम पर पितृ ऋण रहता है। इसलिए उनको पिंडदान करना चाहिए।
         पितृदोष होने पर परिवार एवं परिवार जनो को विचित्र प्रकार की घटनाओ का सामना करना पडता है। ऐसे परिवार मे रोग का प्रकोप बना रहता है। किसी एक के स्वस्थ होने पर दुसरा बीमार हो जाता है। कई बार रोग का पता ही नही चल पाता रोगी को थोडी राहत महसुस होती है फिर रोग का पुनः प्रकोप होता रहता है। कई बार इनके कार्य व्यवसाय मे भी अवरोध की स्थिति बनकर घाटा उठाना पडता है। इनके परिवार मे भी मतभेद की स्थिति बनती है। आपस मे कलह के कारण जीवन तनावपूर्ण हो जाता है। इन सभी प्रकार की अप्रत्भाशित घटनाओ के पीछे पितृदोष ही मुख्य रूप से होता है। इसकी जानकारी जन्मपत्रिका एवं प्रश्न कुंडली के द्वारा जान सकते है। वृह को मुख्य रूप से इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है। यदि जन्मांग में वृह निर्बल, अशुभ, वक्री, अस्त, होकर स्थित हो तो उस जातक के पितर उससे अप्रसन्न रहते है। ऐसे जातक को किस पितर के प्रकोप के कारण इस प्रकार की परेशानियां आ रही है। इसके लिए प्रश्नकुंडली के अष्ट एवं द्वादश भाव में स्थित ग्रह से पता लगाया जा सकता है। प्रत्येक ग्रह को किसी रिश्तेदार का प्रतिनिधि माना जाता है। इसमे सूर्य का पिता का कारक, चंद्र को माता, मंगल को छोटा भाई, बुध को बहन, बुआ, मौसी, वृह को बडे भाई एवं पत्रिका शुक्र को पत्नी का कारक माना जाता है। राहु एवं केतु को प्रेत योनि मे गए पितरो का प्रतिनिधि माना है। इस प्रकार प्रश्न कुंडली में स्थिति के अनुसार पितर दोष के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते है। इसके पश्चात कुशल देवज्ञ से शांति कर्म की व्यवस्था करवा सकते है।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

पितृदोष कारण और निवारण


           पितृदोष कारण और निवारण
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परिवार में किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत परिवारजनों द्वारा जब उसकी इच्छाओं एवं उसके द्वाराछुटे अधुरे कार्यों को परिवारजनों द्वारा पुरा नही किया जाता। तब उसकी आत्मा वही भटकती रहती है एवं उन कार्यो को पुरा करवाने के लिए परिवारजनों पर दबाव डालती है। इसी कारणपरिवार में शुभ कार्यो में कमी एवं अशुभता बढती जाती है। इन अशुभताओं का कारण पितृदोष माना गया है। इसके निवारण के लिए श्राद्धपक्ष में पितर शांति एवं पिंडदान करना शुभ रहता हैं। भारतीय धर्म शास्त्रों के अनुसार    ’’पुन्नाम नरकात् त्रायते इति पुत्रम‘‘ एवं ’’पुत्रहीनो गतिर्नास्ति‘‘ अर्थात पुत्रहीन व्यक्तियों की गति नही होती व पुत नाम के नरक से जो बचाता है, वह पुत्र है। इसलिए सभी लोग पुत्र प्राप्ति की अपेक्षा करते है। वर्तमान में पुत्र एवं पुत्री को एक समान माने जाने के कारण इस भावना में सामान्य कमी आई है परन्तु पुत्र प्राप्ति की इच्छा सबको अवश्य ही बनी रहती है जब पुत्र प्राप्ति की संभावना नही हो तब ही आधुनिक विचारधारा वाले लोग भी पुत्री को पुत्र के समान स्वीकारते है। इसमे जरा भी संशय नही है।
पुत्र द्वारा किए जाने वाले श्राद्ध कर्म से जीवात्मा को पुत नामक नरक से मुक्ति मिलती है। किसी जातक को पितृदोष का प्रभाव है या नही। इसके बारे में ज्योतिष शास्त्र में प्रश्न कुंडली एवं जन्म कुंडली के आधार पर जाना जा सकता है। पाराशर के अनुसार-
कर्मलोपे पितृणां च प्रेतत्वं तस्य जायते।
तस्य प्रेतस्य शापाच्च पुत्राभारः प्रजायते।।
अर्थात कर्मलोप के कारण जो पुर्वज मृत्यु के प्श्चात प्रेत योनि में चले जाते है, उनके शाप के कारण पुत्र संतान नही होती। अर्थात प्रेत योनि में गए पितर को अनेकानेक कष्टो का सामना करनापडता है। इसलिये उनकी मुक्ति हेतु यदि श्राद्ध कर्म न किया जाए तो उसका वायवीय शरीर हमे नुकसान पहुंचाता रहता है। जब उसकी मुक्ति हेतु श्राद्ध कर्म किया जाता है, तब उसे मुक्ति प्राप्त होने से हमारी उनेक समस्याएं स्वतः ही समाप्त हो जाती है। पितर दोष के प्रमुख ज्योतिषिय योग-
   1 लग्न एवं पंचम भाव में सूर्य , मंगल एवं शनि स्थित हो एवं अष्टम या द्वादश भाव में वृहस्पति राहु से युति कर स्थित हो पितृशाप से संतान नही होती।
   2 सूर्य को पिता का एवं वृह. को पितरो का कारक माना जाता है। जब ये दोनो ग्रह निर्बल होकर        शनि, राहु, केतु के पाप प्रभाव में हो तो पितृदोष होता है।
3 अष्टम या द्वादश भाव में कोई ग्रह निर्बल होकर उपस्थित हो तो पितृदोष होता है।
4 सूर्य, चंद्र एवं लग्नेश का राहु केतु से संबंध होने पर पितृदोष होता है।
5 जन्मांग चक्र में सूर्य शनि की राशि में हो एवं वृह. वक्री होकर स्थित हो तो ऐसे जतक पितृदोष से पिडित रहते है।
6 राहु एवं केतु का संबंध पंचम भाव-भावेश से हो तो पितृदोष से संतान नही होती है।
7 अष्टमेश एवं द्वादशेश का संबंध सूर्य वृह. से हो तो पितृदोष होता है।
8 जब वृह. एवं सूर्य नीच नवांश में स्थित होकर शनि राहु केतु से युति-दृष्टि संबंध बनाए तो पितृदोष होता है।

पितृदोष निवारण
1 पितृदोष निवारण के लिए श्राद्ध करे। समयाभाव में भी सर्वपितृ अमावस्या या आश्विन कृष्ण अमावस्या के दिन श्राद्ध अवश्य श्रद्धापूर्वक करे।
2 गुरूवार के दिन सायंकाल के समय पीपल पेड की जड पर जल चढाकर सात बार परिक्रमा कर घी का दीपक जलाए।
3 प्रतिदिन अपने भोजन मे से गाय, कुते व कौओ को अवश्य खिलाए।
4 भागवत कथा पाठ कराए रूा श्रवण करे।
5 नरायण बली, नागबली आदि पितृदोष शांति हेतु करे।
6 माह में एक बार रूद्राभिषेक करे। संभव नही होने पर श्रावण मास में रूद्राभिषेक अवश्य करे।
7     अपने  कुलदेवी-देवता का पुजन करते रहे।
8 श्राद्ध काल में पितृसुक्त का प्रतिदिन पाठ अवश्य करे।
पितृ सुक्त
पितृदोष के निवारण के लिए श्राद्ध काल में पितृ सुक्त का पाठ संध्या समय में तेल का दीपक जलाकर करे तो पितृदोष की  शांति होती है।
अर्चितानाम मूर्ताणां पितृणां दीप्ततेजसाम्।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्चक्षुषाम्।।
  हिन्दी- जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यनत तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्य दुष्टि सम्पन्न है, उन पितरो को मै         सदा नमस्कार करता है।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान्।।
अर्थात जो इन्द्र आदि देवताओ, दक्ष, मारीच, सप्त ऋषियो तथा दुसरो के भी नेता है। कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता है।
मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्याचन्द्रूसोस्तयथा।
तान् नमस्याम्यहं सर्वान पितृनप्सुदधावपि।।
अर्थात जो मनु आदि राजार्षियों, मुनिश्वरो तथा सूर्य चंद्र के भी नायक है, उन समस्त पितरो को मैं जल और समुद्र मै भी नमस्कार करता है।
नक्षत्राणां ग्रहणां च वाच्व्यग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलि5।।
अर्थात जो नक्षत्रों ,ग्रहो,वायु,अग्नि,आकाश और द्युलोक एवं पृथ्वीलोक के जो भी नेता है, उन पितरो को मै हाथ जोडकर प्रणाम करता हूँ।
देवर्षिणां जनितंृश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।
अक्षच्चस्य सदादातृन नमस्येळहं कृतांजलिः।।
अर्थात जो देवर्षियो के जन्मदाता, समस्त लोको द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता है। उन पितरो को मै हाथ जोडकर प्रणाम करता हूँ।
प्रजापतेः कश्यपाय सोमाय वरूणाय च।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः।।
अर्थात प्रजापति, कश्यप, सोम,वरूण तथा योगेश्वरो के रूप् में स्थित पितरो को सदा हाथ जोडकर प्रणाम करता हूँ।
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वयंभूवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
अर्थात सातो लोको मे स्थित सात पितृगणो को नमस्कार है। मै योगदृश्टि संपन्न स्वयंभू ब्रह्मजी को प्रणाम करता है।
सोमाधारान् पितृगणानयोगमूर्ति धरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
अर्थात चंद्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित और योगमूर्तिधारी पितृगणों को मै प्रणाम करता हूँ। साथ ही संपूर्ण जगत के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।
अग्निरूपांस्तथैवान्याम् नमस्यामि पितृनहम्।
अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः।।
अर्थात अग्निस्वरूप् अन्य पितरो को भी प्रणाम करता हूँ क्याकि यह संपूर्ण जगत अग्नि और सोममय है।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः।
जगत्स्वरूपिणश्चैवतथा ब्रह्मस्वरूपिणः।।
अर्थात जो पितर तेज मे स्थित है जो ये चन्द्रमा, सूषर्् और अग्नि के रूप् मै दृष्टिगोचर होते है तथा जो जगतस्वरूप् और ब्रह्मस्वरूप् है।
तेभ्योळखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः।
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः।।
अर्थात उन संपूर्ण योगी पितरो को मै। एकाग्रचित होकर प्रणाम करता है। उन्हे बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझ पर प्रसन्न हो।
विशेष- यदि आप संस्कृत पाठ नही कर सके तो हिन्दी में पाठ कर भी पितृ कृपा प्राप्त कर सकते है।
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बुधवार, 19 सितंबर 2012

आइये जाने कैसे करे गणपति को प्रसन्न


ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार Tel -०२९७२-२७६६२६,09001846274 ,०९००१७४२७६६२६ ] 
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............................... हिन्दू पंचांग के अनुसार प्रत्येक वर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल चतुर्थी को हिन्दुओं का प्रमुख त्यौहार गणेश चतुर्थी मनाया जाता है| गणेश पुराण में वर्णित कथाओं के अनुसार इसी दिन समस्त विघ्न बाधाओं को दूर करनेवाले, भगवान शंकर और माता पार्वती के पुत्र श्री गणेश का आविर्भाव हुआ था | भगवान गणेश  के जन्मदिवस पर मनाया जानेवाला यह महापर्व गणेश चतुर्थी के रूप   में हर्षोल्लास पूर्वक मनाया  जाता है| कथानुसार एक बार पार्वती स्नान करने जा रही थी | स्नान करते समय माता ने अपने  मैल से एक सुन्दर बालक को उत्पन्न किया और उसका नाम गणेश रखा| फिर उसे अपना द्वारपाल बना कर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश देकर माता पार्वती स्नान करने लगी | थोड़ी देर बाद जब भगवान शिव आए और द्वार के अन्दर प्रवेश करना चाहा तो गणेश ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया| गणेश ने भगवान् शिव को बताया की माता पार्वती का सख्त आदेश हैं की जब तक स्नान नहीं कर  लिया जाये तब तक   अंदर आने की अनुमति किसी को नही दी जाये | भगवन शिव ने गणेश को बहुत समझाया पर वे नही माने |। इस पर शिवगणोंने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु  युद्ध में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। तब इसपर भगवान शिव क्रोधित हो गए और अपने त्रिशूल से गणेश के सिर को काट दिया और द्वार के अन्दर चले गए|जब मां पार्वती ने गणेश  का  कटा हुआ सिर देखा तो अत्यंत क्रोधित हो गई. तब ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवताओं ने उनकी स्तुति कर उनको शांत किया और भोलेनाथ से बालक गणेश को जिंदा करने का अनुरोध किया. भगवन शिव ने  उनके अनुरोध को स्वीकारते हुएकहा की उत्तर दिशा में जो जिव सबसे पहले मिले एवम जिसकी माँ ने उसकी तरफ पीठ की हो उस जीव का सर काटकर लाया जाये |इस पर  एक गज के कटे हुए मस्तक को श्री गणेश के धड़ से जोड़ कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया|  माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुखबालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में गणेश को अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने भी उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्यहोने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक गणेश को आशीर्वाद देते हुए  कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। इस प्रकार गणेश का नया जीवन  भाद्रपद मास के शुक्ल चतुर्थी को मिला तभी से इसे गणेश चतुर्थी के रूप में धूमधाम से मनाया जाता हैं | इस महापर्व पर लोग प्रातः काल उठकर शुभ मुहूर्त में  गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर षोडशोपचार विधि से उनका पूजन करते हैं| विशेष कार्य सिद्धि मन्त्र  -
१-गणेश गायत्री -
ॐ एकदंताय विद्महे वक्र तुन्डायधीमहि तन्नो दंती प्रचोदयात
२-ऊच्छिष्ट गणपति मंत्र -
ॐ हस्ती पिशाची लिखे स्वाहा |
इस मन्त्र से श्वेतार्क गणपति का पूजन करने से सब इच्छा पूरी होती हैं |
३-मोहिनी गणेश मन्त्र
ॐ वक्र तुन्दैक दंष्ट्राय क्लीम श्रीं गं | गणपतये वर वरद  सर्व जनम में वशमानय स्वाहा |
यह मंत्र वशीकरण  करने में प्रयोग होता हैं |
४-गणेश  जी के बारह नामो  का पाठ करने से भी आपकी समस्याओ का समाधान होता हैं |धुप दीप जलाकर पाठ करे  
     इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाता हैं और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होती हैं । रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश जी की पूजा  करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्यदेकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाए। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे। वर्षपर्यन्तश्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात्‌ व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन  निषेध किया गया है।

जो व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा  देखते हैं उन्हें झूठा-कलंक लगता  है। ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। यह अनुभूत भी है। भगवन कृष्ण पर भी सम्यन्तक मणि चुराने का आरोप इसी कारण लगा था| यदि  जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न उपाय  अवश्य कर लेना चाहिए-
१-मन्त्र का जप १०८ बार करे
'सिहः प्रसेनम्‌ अवधीत्‌, सिंहो जाम्बवता हतः। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥'
२- सोमवार का व्रत करे |
३-माता का अपमान नही करे एवम सोमवार को सफ़ेद वस्तुओ का दान करना भी दोष नाशक हैं |