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सोमवार, 30 जुलाई 2012

गुप्त रोग एवं ज्योतिष

गुप्त रोग एवं ज्योतिष —-वागा राम परिहार      09001742766

शुभ कर्मों के कारण ही मानव जीवन मिलता है। जीव योनियों में मानव जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन क्या मानव जीवन को प्राप्त करना ही पर्याप्त है या जीवन में पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त कर अंतिम अवस्था को प्राप्त करना? निःसंदेह पहला सुख निरोगी काया ही है। यदि स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो तो मानव जीवन पिंजरे मंे बंद पक्षी की तरह ही कहा जाएगा। गुप्त रोग अर्थात् ऐसे रोग जो दिखते नहीं हांे लेकिन वर्तमान में इसका तात्पर्य यौन रोगों से लिया जाता है। यदि समय रहते इनका चिकित्सकीय एवं ज्योतिषीय उपचार दोनों कर लिए जाएं तो इन्हें घातक होने से रोका जा सकता है। 
ज्योतिष के अनुसार किसी रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जन्म समय में किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष में पाप ग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप प्रभाव, पाप ग्रहों के नक्षत्र में उपस्थिति एवं पाप ग्रह अधिष्ठित राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है। 
इन रोग कारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
वृश्चिक राशि व शुक्र को यौन अंगों का, पंचम भाव को गर्भाशय, आंत व शुक्राणु का षष्ठ भाव को गर्भ मूत्र की बीमारियांे, गुर्दे, आंत रोग, गठिया और मूत्रकृच्छ का सप्तम भाव को शुक्राशय, अंडाशय, गर्भाशय, वस्ति, मूत्र व मूत्राशय, प्रोस्टेट ग्रंथि, मूत्रद्वार, शुक्र एवं अष्टम भाव को गुदा, लिंग, योनि और मासिक चक्र का तथा नक्षत्रों में पूर्वाफाल्गुनी को गुप्तांग एवं कब्जियत, उत्तरा फाल्गुनी को गुदा लिंग व गर्भाशय और हस्त को प्रमेह कारक माना गया है। 
राशियों में कन्या राशि संक्रामक गुप्त रोगों वसामेह व शोथ विकार और तुला राशि दाम्पत्य कालीन रोगों की कारक कही गई है। ग्रहों में मंगल को गर्भपात, ऋतुस्राव व मूत्रकृच्छ, बृहस्पति को वसा की अधिकता से उत्पन्न रोग व पेट रोग और शुक्र को प्रमेह, वीर्य की कमी, प्रजनन तंत्र के रोग, मूत्र रोग गुप्तांग शोथ, शीघ्र पतन व धातु रोग का कारक माना गया है। 

इन कारकों पर अशुभ प्रभाव का आना या कारक ग्रहों का रोग स्थान या षष्ठेश से संबंधित होना या नीच नवांश अथवा नीच राशि में उपस्थित होना यौन रोगों का कारण बनता है।    MOB........09001742766

इसके अतिरिक्त निम्नलिखित ज्योतिषीय ग्रह योगों के कारण भी यौन रोग हो सकते हैं। 
शनि, मंगल व चंद्र यदि अष्टम, षष्ठ द्वितीय या द्वादश में हों तो काम संबंधी रोग होता है। इनका किसी भी प्रकार से संबंध स्थापित करना भी यौन रोगों को जन्म देता है। 
कर्क या वृश्चिक नवांश में यदि चंद्र किसी पाप ग्रह से युत हो तो गुप्त रोग होता है। 
यदि अष्टम भाव में कई पाप ग्रह हांे या बृहस्पति द्वादश स्थान में हो या षष्ठेश व बुध यदि मंगल के साथ हांे तो जननेंद्रिय रोग होता है। 
शनि, सूर्य व शुक्र यदि पंचम स्थान में हो, या दशम स्थान में स्थित मंगल से शनि का युति, दृष्टि संबंध हो या लगन में सूर्य व सप्तम में मंगल हो तो प्रमेह, मधुमेह या वसामेह होता है। चतुर्थ में चंद्र व शनि हों या विषम राशि लग्न में शुक्र हो या शुक्र सप्तम में लग्नेश से दृष्ट हो या शुक्र की राशि में चंद्र स्थित हो तो जातक अल्प वीर्य वाला होता है। 
शनि व शुक्र दशम या अष्टम में शुभ दृष्टि से रहित हों, षष्ठ या द्वादश भाव में जल राशिगत शनि पर शुभ ग्रहों का प्रभाव न हो या विषम राशिगत लग्न को समराशिगत मंगल देखे या शुक्र, चंद्र व लग्न पुरुष राशि नवांश में हों या शनि व शुक्र दशम स्थान में हों या शनि शुक्र से षष्ठ या अष्टम स्थान में हो तो जातक नपुंसक होता है। 
चंद्र सम राशि या बुध विषम राशि में मंगल से दृष्ट हो या षष्ठ या द्वादश भाव में नीचगत शनि हो या शनि व शुक्र पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक नपुंसक होता है। 
राहु, शुक्र व शनि में से कोई एक या सब उच्च राशि में हों, कर्क में सूर्य तथा मेष में चंद्र हो तो वीर्यस्राव या धातु रोग होता है। लग्न में चंद्र व पंचम स्थान में बृहस्पति व शनि हों तो धातु रोग होता है। 
कन्या लग्न में शुक्र मकर या कुंभ राशि में स्थित हो व लग्न को बुध और शनि देखते हांे तो धातु रोग होता है। 
यदि अष्टम स्थान में मंगल व शुक्र हांे तो वायु प्रकोप व शुक्र मंगल की राशि में मंगल से युत हो तो भूमि संसर्ग से अंडवृद्धि होती है। 
लग्नेश छठे भाव में हो तो षष्ठेश जिस भाव में होगा उस भाव से संबंधित अंग रोगग्रस्त होता है। 
यदि यह संबंध शुक्र/पंचम/सप्तम/अष्टम से हो जाए तो निश्चित रूप से यौन रोग होगा। 
यदि जन्मांग में शुक्र किसी वक्री ग्रह की राशि में हो या लग्न में लग्नेश व सप्तम में शुक्र हो तो यौन सुख अपूर्ण रहता है।                 MOB.....09001742766

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

गंड मूल नक्षत्र ---

गंड मूल नक्षत्र ---
अश्विनी, आश्लेषा,मघा, ज्येष्ठा ,मूल एवम रेवती ये 6 नक्षत्र सम्पूर्ण मान के  गंड मूल नक्षत्र कहलाते है | इन नक्षत्रो  में जन्म होना  अशुभ  माना जाता  हैं |   

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

गर्भाधान काल और ज्योतिष - वागाराम परिहार


गर्भाधान काल और ज्योतिष - वागाराम परिहार


भारतीय धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि बिना पुत्र सन्तान के मुक्ति असम्भव है। जीवन का महत्त्वपूर्ण सुख सन्तान सुख है। पितृ ऋण चुकाने हेतु भी सन्तान उत्पत्ति आवश्यक है।
     किसी जातक को सन्तान सुख प्राप्त होगा या नहीं, इसके लिए ज्योतिष एक  आधार प्रस्तुत करता है।
     स्त्रियों के मासिक धर्म प्रारम्भ से 16 रात्रि तक ऋतुकाल कहा गया है। इसकी प्रारंभिक चार रात्रि गर्भाधान के लिए त्याज्य मानी गई हैं। इसके बाद की 12रात्रियां गर्भधारण करने के लिए उपयुक्त मानी गई हैं। 
     यदि स्त्री एवं पुरुष का संगम सम रात्रियों 6, 8, 10, 12, 14, 16 में हो तो ये पुत्र सुख देने वाली हैं तो विषम रात्रियां 5, 7, 9, 11, 13, 15 में स्त्री एवं पुरुष का संगम हो तो कन्या सन्तान की उत्पत्ति होती है।


गर्भाधान के लिए क्या आवश्यक?

      गर्भाधान के लिए पंचम भाव एवं पंचमेश की शक्ति की परख या परीक्षण आवश्यक है। इसी शक्ति के आधार पर प्रजनन क्षमता का पता लगाया जाता है।
     पुरुष की कुण्डली के पंचम भाव से बीज एवं स्त्री की कुण्डली के पंचम भाव से क्षेत्र की क्षमता बताई जाती है। 
जब बीज और क्षेत्र दोनों का कमजोर सम्बन्ध बने तो सन्तान सुख की प्राप्ति कमजोर ही रहती है। 
     इस स्थिति में अनुकूल ग्रह स्थितियां ही गर्भाधान कराती हैं। 
     मंगल एवं चन्द्र के कारण स्त्रियों को रजोधर्म रहता है। यदि स्त्री की जन्म राशि से चन्द्रमा अनुपचय स्थानों से गोचर करे एवं उस चन्द्र पर मंगल की दृष्टि हो तो स्त्री गर्भ धारण करने में सक्षम होती है। इसी प्रकार पुरुष की जन्म राशि से चन्द्र उपचय स्थानों से गोचर करे एवं उस पर बृहस्पति एवं शुक्र की दृष्टि हो तो गर्भधारण हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि पुरुष एवं स्त्री की जन्म कुण्डली से उपरोक्त ग्रह स्थितियां गोचरवश बन रही हों। पंचमेश एवं पंचम भाव शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो संभावना अधिक हो जाती है। 
    ग्रहों में चन्द्र को जल एवं मंगल को रक्त व अग्नि का कारक माना जाता है। चन्द्र रक्त में श्वेत रुधिर कणिकाओं एवं मंगल लाल रुधिर कणिकाओं का नेतृत्व करता है। जब चन्द्र एवं मंगल की परस्पर दृष्टि बने या सम्बन्ध बने तब रजोधर्म होता है। रजोधर्म काल में यदि उपरोक्त स्थितियां बन रही हों तो लेकिन पुरुष से संगम न हो, स्त्री अधिक आयु या कम आयु की हो, किसी रोग से ग्रस्त हो या बांझ हो तो उसे गर्भधारण नहीं होता है।
     यह जान लें कि सन्तान के लिए स्त्रियों में XX  गुणसूत्र व पुरुषों में XY गुणसूत्र रहते हैं। सम राशियां स्त्री कारक एवं विषम राशियां पुरुष कारक होती हैं। 
     अतः स्त्रियों में रजोधर्म कारक चन्द्र मंगल एवं पुत्रकारक गुरु का सम राशि में बली होकर स्थित होना XX गुणसूत्र को बलवान बनाता है। पुरुषों की कुण्डली में इसी प्रकार से चन्द्र, शुक्र एवं प्रजनन कारक सूर्य का विषम राशि में बलवान होकर स्थित होना XY गुणसूत्र को बली बनाता है। यदि बीज एवं क्षेत्राकारक बली हो एवं किसी प्रकार का दोष न हो व गर्भाधान के लिए उपयुक्त ग्रह स्थितियां गोचरवश बन रही हों तो गर्भाधान हो जाता है।

प्रश्न ज्योतिष में अन्य शकुनों का महत्व--- वागाराम परिहार

प्रश्न ज्योतिष में अन्य शकुनों का महत्व--- वागाराम परिहार 

सर्वज्ञ परमात्मा चराचर जगत में होने वाले परिवर्तन व चेष्टाओं द्वारा पृच्छकां के शुभाशुभ फल का पूर्व संकेत देता है, इसलिए कुशल ज्योतिषी या दैवज्ञ को किसी प्रश्न के फलित का विचार करते समय प्रश्न-कुंडली के साथ-साथ कुछ सामान्य संकेतों का भी ध्यान रखना चाहिए ताकि फलकथन में अधिकाधिक सत्यता परिभाषित हो। प्रश्न करते समय अचानक शोरगुल सुनाई दे या बिजली चली जाए तो उसे भी समस्या के समाधान में, शुभफल की प्राप्ति मंे अकस्मात आने वाले विघ्न का संकेत समझना चाहिए। दोपहर से पहले पूर्व, उŸार या ईशान दिशा की ओर मंुह कर प्रश्न करना शुभ होता है। जिन वस्तुओं को यात्रा आदि के समय शुभ मानते हैं, उनका प्रश्न काल मंे दिखना या स्पर्श करना शुभ होता है। जांघ, होठ, स्तन, अंडकोष, पैर, दांत, भुजा, हाथ, कपोल, बाल, गला, नाखून, अंगूठे, कनपटी, बगल, कंधे, कान, गुदा एंव सभी जोड़ पुरुष संज्ञक हैं। इन अंगों को प्रश्न करते समय पृच्छक द्वारा छूना प्रश्न-सिद्धि की प्रतिशतता को बढ़ाता है। भौंहें, नाक, कूल्हे, पेट की रेखाएं, कमर, हाथ की रेखाएं, उंगलियां, जीभ, गर्दन, पिंडलियां, एंड़ियां, नाभि, कान, गर्दन का पिछला भाग आदि स्त्री संज्ञक हैं, इसलिए प्रश्न के समय इन अंगों का स्पर्श करना कठिन परिश्रम से सिद्धि मिलने का संकेत होता है। अन्य अंग नपुसंक श्रेणी में आते हैं। नपुसंक श्रेणी के अंगों को छूना प्रश्न की असफलता का द्योतक है। पृच्छक का अंगूठा हिलाकर या स्पर्श कर प्रश्न करना नेत्र पीड़ा, उंगली से स्पर्श कर प्रश्न करना पुत्री की ओर से कष्ट और सिर पर हाथ रखकर प्रश्न करना राज्य से भय का सूचक है। छाती को छूते हुए प्रश्न करना तो विछोह, लेकिन अपने कपड़े को छूते हुए या एक पैर से दूसरे पैर को छूते हुए या पैर पर पैर रखकर प्रश्न करना शुभ फल की प्राप्ति को इंगित करता है। प्रश्न काल में पैर के अंगूठे से भूमि खोदना स्थान या क्षेत्र संबंधी चिंता और हाथ या पैर खुजलाना दासी या नौकरानी की चिंता को दर्शाता है। ताड़पत्र या भोजपत्र दिखना वस्त्र चिंता, बाल, भूसा, तिनका, हड्डी व राख दिखना रोग की चिंता व किसी भी प्रकार की रस्सी दिखना या पकड़ना बंधन की चिंता का द्योतक है। व्यक्ति अनाज या आटा आदि के पास होकर प्रश्न करे तो कुटुंब-वृद्धि, वट या पीपल का दर्शन करते हुए या इनके पŸो को हाथ में लेकर प्रश्न कर तो धन लाभ और महुए के पŸो हाथ में हा ंे ता े स्वर्ण की पा्र प्ति हाते ी ह।ै प्रश्न काल में हाथी दिखना लक्ष्मी कृपा, भैंस दिखना कीमती वस्त्रों के लाभ, किंतु किसी जैन मुनि या वृद्ध साधु का दिखना मित्र संबंधी चिंता का द्योतक है। प्रश्न काल में किसी तपस्वी का दिखना प्रश्नकर्ता के परिवार के किसी प्रवासी सदस्य की चिंता और शराबी का दिखना पशु चिंता व उच्छृंखल व्यक्ति के कारण धन के नाश का सूचक है। प्रश्न काल में मधुर संगीत, बच्चों की खिलखिलाहट व कर्णप्रिय ध्वनि आदि का सुनाई देना शुभफल का द्योतक है, लेकिन अप्रिय ध्वनि, शोरगुल, बर्तन टूटने, गिरने की आवाज सुनाई देना या किसी चीज से गंदगी फैल जाना अशुभता का संकेत है। इस प्रकार प्रश्न करते समय इन सामान्य शुभाशुभ शकुनों का ध्यान रखते हुए प्रश्न पत्री पढकर निर्णय करना चाहिए।