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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

आखिर क्या हैं श्राद्ध एवम पितृ दोष


               
वागा राम परिहार
परिहार ज्योतिष अनुसन्धान केंद्र 
मुकाम पोस्ट .आमलारी 
वाया .दांतराई जिला सिरोही राज.307512 
 Tel .02972 -276626 ,09001846274 ,09001742766 
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      शास्त्रो में मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण कहे गए है। देव ऋण ,ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इसमें से पितृ ऋण के निवारण के लिए पितृ यज्ञ का वर्णन किया गया है। पितृ यज्ञ का दुसरा नाम ही श्राद्ध कर्म है। श्रद्धायंा इदम् श्राद्ध। अर्थात पितरो के उदेश्य से जो कर्म श्रद्धापूर्वक किया जाए,वही श्राद्ध है। महर्षि बृहस्पति के अनुसार जिस कर्म विशेष में अच्छी प्रकार से पकाए हुए उत्तम व्यंजन को दुग्ध घृत और शहद के साथ श्रद्धापूर्वक पितरो के उदेश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए वही श्राद्ध है।
        भारतीय संस्कृति में माता पिता को देवता तुल्य माना जाता है। इसलिए शास्त्र वचन है कि पितरो के प्रसन्न होने पर सारे देव प्रसन्न हो जाते है। ब्रह्मपूराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरो के अलावा ब्रह्म, इन्द्र, रूद्र, अश्विनी कुमार, सुर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव, एवं मनुष्यगण को भी प्रसन्न कर देता है।  मृत्यु के पश्चात हमारा स्थूल शरीर तो यही रह जाता है। परंतु सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा मनुष्य के शुभाशुभ कर्मो के अनुसार किसी लोक विशेष को जाती है। शुभकर्मो से युक्त आत्मा अपने प्रकाश के कारण ब्रह्मलोक, विष्णुलोक एवं स्वर्गलोक को जाती है। परंतु पापकर्म युक्त आत्मा पितृलोक की ओर जाती है। इस यात्रा में उन्हे भी शक्ति की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हम पिंड दान द्वारा करते है।
                      कैसे जाने पितृऋण एवं पितृदोष
         संतान की उत्पति में गुणसुत्र का अत्यधिक महत्व है। इन्ही गुणसुत्रो के अलग-अलग संयोग से पुत्र एवं पुत्री की प्राप्ति होती है। शास्त्रो में पुत्र को श्राद्ध कर्म का अधिकारी मुख्यतः माना गया है। पिता के शुक्राणु से जीवात्मा माता के गर्भ मे प्रवेश करती है। उस जीवांश में 84 अंश होते है। जिसमे 28 अंश शुक्रधारी पुरूष अर्थात पिता के होते है। ये 28 अंश पिता के स्वंय के उपार्जित होते है एवं शेष अंश पूर्व पूरूषो के होते है। उसमे से 21 अंश पिता, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामह के, 6 अंश चतुर्थ पुरूष, 3 अंश पंचम पुरूष व 1 अंश षष्ठ पुरूष का होता है। इस प्रकार सात पीढीयो तक के सभी पूर्वजो के रक्त का अंश हमारे शरीर में विद्यमान होने से हम अपने पूर्वजो के ऋणी है अर्थात हम पर पितृ ऋण रहता है। इसलिए उनको पिंडदान करना चाहिए।
         पितृदोष होने पर परिवार एवं परिवार जनो को विचित्र प्रकार की घटनाओ का सामना करना पडता है। ऐसे परिवार मे रोग का प्रकोप बना रहता है। किसी एक के स्वस्थ होने पर दुसरा बीमार हो जाता है। कई बार रोग का पता ही नही चल पाता रोगी को थोडी राहत महसुस होती है फिर रोग का पुनः प्रकोप होता रहता है। कई बार इनके कार्य व्यवसाय मे भी अवरोध की स्थिति बनकर घाटा उठाना पडता है। इनके परिवार मे भी मतभेद की स्थिति बनती है। आपस मे कलह के कारण जीवन तनावपूर्ण हो जाता है। इन सभी प्रकार की अप्रत्भाशित घटनाओ के पीछे पितृदोष ही मुख्य रूप से होता है। इसकी जानकारी जन्मपत्रिका एवं प्रश्न कुंडली के द्वारा जान सकते है। वृह को मुख्य रूप से इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है। यदि जन्मांग में वृह निर्बल, अशुभ, वक्री, अस्त, होकर स्थित हो तो उस जातक के पितर उससे अप्रसन्न रहते है। ऐसे जातक को किस पितर के प्रकोप के कारण इस प्रकार की परेशानियां आ रही है। इसके लिए प्रश्नकुंडली के अष्टक एवं द्वादश भाव में स्थित ग्रह से पता लगाया जा सकता है। प्रत्येक ग्रह को किसी रिश्तेदार का प्रतिनिधि माना जाता है। इसमे सूर्य का पिता का कारक, चंद्र को माता, मंगल को छोटा भाई, बुध को बहन, बुआ, मौसी, वृह को बडे भाई एवं पत्रिका शुक्र को पत्नी का कारक माना जाता है। राहु एवं केतु को प्रेत योनि मे गए पितरो का प्रतिनिधि माना है। इस प्रकार प्रश्न कुंडली में स्थिति के अनुसार पितर दोष के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते है। इसके पश्चात कुशल देवज्ञ से शांति कर्म की व्यवस्था करवा सकते है।
              श्राद्ध पक्ष में शांति का वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय महत्व                                      
        सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार पितृ लोक चंद्रमा के उपर स्थित है। जब सुर्य कन्या राशि में स्थित होता है तब चंद्र पृथ्वी के सबसे ज्यादा समीप स्थित होता है। इसलिए इस समय हमारे पितर जो वायनीय शरीर धारण किए हुए है। पृथ्वी लोक पर आकर तर्पण व पिेंडदान की आशा करते है। यह समय आश्विन मास का कृष्ण पक्ष होता है। इस समय शीत ऋतु का प्रारंभ होता है इसलिए चंद्रमा पर रहने वाले पितरो के लिए यह समय अनुकूल रहता है। पृथ्वी लोक का एक मास चंद्र का एक अहोरात्र होता है। अमावस्या को सुर्य चंद्र के ठीक उपर स्थित होता है। इसलिए इस समय पितरो का मध्यान्ह होता है। व अष्टमी  को इसके दिन का उदय होता है। इसलिए चंद्र के उध्र्व भाग पर निवास करने वाले पितरो के लिए आश्विन कृष्ण पक्ष उत्तम रहता है।                                                                                                                                                                                                  
           हिन्दु धर्म शास्त्रो के अनुसार हमारा शरीर 27 प्रकार के तत्वो से बना होता है। इसमे से दस तत्व स्थूल रूप में पंच महाभूत, अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, एवं आकाश एवं पांच कर्मेन्दिया है। शेष सत्रह तत्व सूक्ष्म शरीर का निमार्ण करती है। मृत्यु होने पर शरीर स्थूल शरीर का अस्तित्व तो समाप्त हो जाता है परंतु सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व इस संसार मे बना रहता है। मृत्यु के पश्चात दक्षगात्र एवं षोडशी सपिण्डन तक मृत व्यक्ति प्रेत संज्ञा में रहता है। इसके पश्चात वह पितरो में सम्मिलित हो जाता है। यह सुक्ष्म शरीर आसक्ति के कारण अपने परिवार के निकट ही भटकता रहता है। जीवन में प्रत्येक व्यक्ति की कुछ इच्छाएं अधुरी रह जाती हैे। इन्ही इन्छाओं की पूर्ति के लिए वह भटकता रहता है। विशेष रूप से श्राद्ध पक्ष मे पितृलोक से वायवीय रूप में पृथ्वी पर श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते है। एवं ब्राह्मणो के साथ वायु रूप में भोजन ग्रहण करते है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार जिस परिवार में श्राद्ध कर्म नही होता। वहां दुःख क्लेश एवं राकग का प्रकोप होता है। इन्हे कई प्रकार की परेशानियो का सामना पडता है। ऐसे नास्तिक पुरूषो के पितर प्यास से व्याकुल होकर देह से निकलने वाले अपवित्र जल से प्यास बुझाते है। इन नास्तिक लोगो के बारे में आदित्य पुराण में तो कहा गया है। कि इनके अतृप्त पितर इनका ही रक्त पीने को विवश होते है। श्राद्ध काल के पश्चात पितर अपने-अपने लोक को चले जाते है।
                     श्राद्ध में अमावस्या का महत्व                                                                                                
        अमावस्या का अपना अलग ही महत्व है। इसे सर्व पितृ अमावस्या भी कहते है। जिस तिथि विशेष को किसी की मृत्यु होती है। उसके परिवारजन उस तिथि विशेष को श्राद्ध करते है। लेकिन मृतक की तिथि का पता नही होने पर अमावस्या के दिन उसका श्राद्ध किया जा सकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि सूर्य की सहस्त्र किरणो में से अभा नामक किरण मुख्य है जिसके तेज से सूर्य समस्त लोको को प्रकाशित करता है। इसी अभा में तिथि विशेष को चंद्र निवास करते है। इसलिए अमावस्या का अपना विशेष महत्व है।
शास्त्रो के अनुसार श्राद्ध काल में पितर वायवीय रूप में पृथ्वी लोक पर आ जाते है एवं अमावस्या के दिन दरवाजे पर उपस्थित हो जाते है। एवं श्राद्ध की कामना करते है। इसलिए श्राद्ध करने पर पितर तृप्त होकर आशीर्वाद प्रदान करते है। इस दिन सूर्यास्त तक वे श्राद्ध की कामना करते है। सूर्यास्त के पश्चात वे निराश होकर अपने-अपने लोक को चले जाते है। ऐसे नास्तिक लोगो के पितर दीर्घ श्वास छोडते हुए दारूण शाप देकर अपने लोक को लौट जाते है।
            आखिर कैसे पहुंचता है। पितृरो तक श्राद्ध का भोजन  
          श्राद्ध काल में परिवारजनो द्वारा दिए जाने वाले हव्य-कव्य पदार्थ आखिर उनको कैसे प्राप्त होते है। यह एक विचारणीय प्रश्न है। शास्त्रो के अनुसार मनुष्य अपने कर्म के अनुसार विभिन्न प्रकार के फलो का भोग करता है। इन्ही कर्मो के अनुसार उसे मृत्यु के पश्चात कोई योनि प्राप्त होती है। कर्मफलो के अनुसार ही उसे स्वर्ग नरक एवं पुनःजन्म की प्राप्ति होती है। शास्त्रो का निर्देश है कि श्राद्धकर्ता के तीन पीढीयो तक के पितरो को शीत, तपन, भुख, प्यास का होता है। पर स्वयं कर्म न कर सकने के कारण अपनी भुख-प्यास मिटा सकने में असमर्थ  होते है। इसी कारण सृष्टि के आदि काल से ही श्राद्ध का विधान प्रचलन में है। भगवान श्री राम के श्राद्ध करने का वर्णन करते हुए कहा है कि जब भगवान श्री राम को वनवास में अपने पिता राजा दशरथ के स्वर्गारोहण की सूचना मिली तब उन्होने उसी समय दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके तर्पण किया और कहा कि मेरे पूज्य पिता राजाओ के शिरोमणी महाराज आज मेरा दिया हुआ यह निर्मल जल आपको पितृ लोक मे अक्षय रूप से प्राप्त हों                                                                                
      श्राद्ध काल में यमराज प्रेत एवं पितरो को वायु रूप में पृथ्वी लोक पर जाने की अनुमति देते है। वे श्राद्ध भाग ग्रहण कर सके। देवलोक व पितर लोक के पितर तो श्राद्ध काल में आमंत्रित ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर अपना भाग ग्रहण कर लेते है पंरतु जो पितर किसी अन्य योनि में जन्म ले चुके है।उन्हे उनका भाग दिव्य पितर ग्रहण करते है। ये दिव्य पितर उन्हे अपनी योनि के अनुसार भोग प्राप्ति कराकर तृप्त करते है। श्राद्ध में पितर के नाम गोत्र एवं मंत्र का उच्चारण करने से श्राद्ध भाग संबंधित पितर अपनी योनि के अनुसार प्राप्त हो जाता है। अपने शुभ कर्मो के अनुसार जो पितर देव योनि को प्राप्त करते उन्हे अमृत एवं गंध रूप में प्राप्त होता है। श्राद्ध में जो अन्न पृथ्वी पर गिरता है उससे पिशाच योनि में स्थित पितर तृप्त होते है। इन्हे रूधिर रूप में भी भोजन प्राप्त होता है। स्नान करने से भीगने वाले वस्त्रो से जो जल धरती पर गिरता है उससे वृक्ष योनि में गए पितर तृप्त होते है। गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में यक्ष योनि प्राप्त होने पर पेय रूप मेें एवं दानव योनि में गए पितरो को मांस के रूप में भोजन प्राप्त होता है।
         श्राद्ध काल में ब्राह्मण द्वारा आचमन किए जाने वाले जल से पशु, कृमि व कीट योनि में गए पितर तृप्त होते है। पशु योनि में गए पितरो को तृण रूप में भोजन की प्राप्ति होती है। सर्प योनि में गए पितरो को वायु रूप में एवं जो पितर मनुष्य यानि प्राप्त कर चुके है उन्हे श्राद्ध के अन्न व पिण्ड से तृप्ति होती है। इस प्रकार श्राद्ध का भाग ग्रहण कर श्राद्ध काल समाप्त होने पर अपने अपने लोक को वापिस चले जाते है। इन्ही पितरो के आशीर्वाद से श्राद्ध कर्ता को सुख, सम्पति, यश, एवं राज्य की प्राप्ति भी होती परंतु श्राद्ध नही करने वाले मनुष्यो के पितर अतृप्त होकर दीर्घ श्वास छोडते हुए श्राद्ध काल के पश्चात शाप देकर अपने लोक को लौट जाते है। इसी कारण इन्हे कई प्रकार की परेशानियो का सामना करना पडता है।
                    किस तिथि पर किसका श्राद्ध करे
         भारतीय संस्कृति के अनुसार पितृपक्ष मंे तपर्ण व श्राद्ध करने से पितर आशीर्वाद प्रदान करते है जिसमे हमारे घर सुख शांति एवं समृद्वि बनी रहती है। हिन्दु पंचाग के अनुसार वर्ष में जिस तिथि को किसी पितर की मृत्यु हुई। पितृ पक्ष में उसी तिथि को उस पितर के निमिन्त श्राद्ध संम्पन करते है। कई बार किसी पितर की मृत्यु तिथि याद नही रहती। उस पितर के लिए भी विशेष तिथि बताई गई है, उस विशेष तिथि में उस पितर का श्राद्ध करने से उसकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है। ये प्रमुख तिथियां इस प्रकार है।                      
 आश्विन कृष्ण प्रतिपदा-यह तिथि नाना नानी के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। यदि नाना नानी के परिवार में श्राद्ध करने वाला कोई नही हो एवं उनकी मृत्यु तिथि भी ज्ञात नही हो तो इस तिथि को उनका श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है एवं घर में सुख शांति एवं समृद्धि बढती है।
आश्विन कृष्ण पंचमी- इस तिथि में परिवार के उन पितरो का श्राद्ध करना चाहिए जिनकी अविवाहित अवस्था में ही मृत्यु हुई हो। इसी कारण इसे कुंवारा पितर पंचमी भी कहते है।
आश्विन कृष्ण नवमी- यह तिथि माता एवं परिवार की अन्य महिलाओं के श्राद्ध के लिए उत्तम मानी गई है। इसी कारण इसे मातृ पितर नवमी भी कहते है। इस दिन श्राद्ध करने से परिवार की सभी दिवंगत महिलाओं की आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
एकादशी व द्वादशी-आश्विन कृष्ण एकादशी व द्वादशी को उन पितरो का श्राद्ध किया जाता है जिन्होने संन्यास ले लिया हो। इस दिन इनका श्राद्ध करने से इनकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
आश्विन कृष्ण चतुर्दशी- इस तिथि को  उन पितरो का श्राद्ध किया ताजा है। जिनकी अकाल मृत्यु हो। इस तिथि को उन पितरो श्राद्ध किया जाता है। जिन्होने आत्महत्या की हो या जिनकी किसी के द्वारा हत्या की गई हो। इस तिथि को इनका श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है।
आश्विन कृष्ण अमावस्या- इस तिथि को सर्व पितृ अमावस्या भी कहते है। इस दिन सभी पितरो का श्राद्ध किया जाता है। यदि श्राद्ध में किसी पितर का श्राद्ध नही किया गया हो तोेेेे उसका श्राद्ध इस दिन करने से उसकी आत्मा को शांति प्राप्त होती है। यदि भूलवश किसी का श्राद्ध हो पाए तो इस दिन उस पितर का श्राद्ध कर सकते है।
               श्राद्ध में क्यो कराते है कौओ को भोजन                                                  
       श्राद्ध पक्ष में पितरो को प्रसन्न करने के लिए श्रद्धा से पकवान बनाकर अपने पितरो को भोग अर्पित करते है। इस समय कौओ को बुलाकर भी प्राचीन समय से ही श्राद्ध का भोजन कराते आ रहे है। भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि हमारे पितर वायवीय रूप में उपस्थित होकर श्राद्ध भोजन से तृप्त होकर हमे आर्शीवाद प्रदान करते है। हमारे धर्मशास्त्रो ने कौए को देवपुत्र माना है। धर्मशास्त्रो के अनुसार सर्वप्रथम इन्द्र के पुत्र ज्यंत ने ही कौए का रूप धारण किया। इसी ने माता सीता को चोंच मारकर घायल कर दिया था। तब भगवान राम नं तिनके से ब्रह्मास्त्र चलाकर जयंत की आंख फोड दी थी। जब उसने अपने इस कर्म की माफी मांगी तो भगवान राम ने वरदान दिया कि तुम्हे श्राद्ध काल मे जो भोजन श्राद्ध कर्म के निमित खिलाया जाएगा। वह पितरो को प्राप्त होगा। उसी समय से श्राद्ध में कौओं को भोजन कराया जाता है।
     वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार कौए को एक ही आंख से दिखाई देता है। इसे आप इस प्रकार भी मान सकते है कि जिस प्रकार कौआ एक ही आंख से सबको समभाव से देखता है उसी प्रकार हमारे पितर भी हमारी अच्छाईयों को देखकर हमसे संतुष्ट रहे एव ंहमे आर्शिवाद प्रदान करे।
गया श्राद्ध को सर्वश्रेष्ठ क्यों माना जाता है
       पितृ पक्ष में गया में श्राद्ध करने के लिए लोगो की भीड उमड पडती है। यहां श्राद्ध करने से पितरो को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। ऐसी मान्यता है। इस मान्यता के पीछे भी धार्मिक कारण है।
        हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार प्राचीन काल में गयासुर नाम का शक्तिशाली असुर भगवान विष्णु का परम भक्त था। उसकी तपस्या से सभी देवगण चिंतित होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु सभी देवगण को लेकर गयासुर के पास उसकी तपस्या भंग करने के लिए एवं भगवान ने प्रसन्न होकर गयासुर से वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर गयासुर ने स्वयं को देवी देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा। भगवान ने तथास्तु कह  दिया । इससे ऐसी स्थिति हो गई कि घोर पापी भी गयासुरके दर्शन व स्पर्श से स्वर्ग में जाने लगे। इस पर धर्मराज चिंतित हुए। उनकी इस दशा से देवताओं ने मिलकर छलपूर्वक एक योजना बनाई। जिसमें यज्ञ के नाम पर गयासुर से संपूर्ण शरीर मांग लिया।गयासुर इस प्रस्ताव को स्वीकार कर उतर की पांव एवं दक्षिण की तरफ मुख कर लेट गया। उसका शरीर पांच कोस में फैला हुआ था। इसलिए उस क्षेत्र का नाम गया पड गया। गयासुर के पुण्य प्रभाव के कारण ही वह तीर्थ क्षेत्र बन गया। वहां पर पिण्डदान करने से पितरो की आत्मा को शांति एवं स्वर्ग प्राप्ति की मान्यता के कारण ही गया श्राद्ध को सर्वश्रेष्ठ माना है। यहां पर विष्णु पद मंदिर, फल्गु नदी किनारे अक्षय वट, नागकुंड,पांडुशिला, नौकुट,ब्रह्मेनी वैतरणी,मंगलागौरी,रामकुंड,सीताकुंड,रामशिला,प्रेतशिला आदि स्थानो पर पिंडदान करना श्रेष्ठ माना जाता है।
कैसे करे श्राद्ध
       भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के सोलह दिन को श्राद्ध काल अथवा पितृ पक्ष कहा जाता है। इस समय पितरो की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म करने का विधान प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। श्राद्ध काल में पितरो को तर्पण एवं पिंडदान करने से वे प्रसन्न होकर आर्शीवाद देते है जिससे हमारे घर में सुख शांति एवं समृद्धि बनी रहती है।
     श्राद्ध काल में बिना दक्षिणा के श्राद्ध व्यर्थ माना जाता है। फिर भी सामथ्र्य नही होने पर काले तिल व जल अर्पित करने से भी पितर तृप्त होकर प्रसन्न होकर आर्शीवाद प्रदान करते है। इस हेतु दोपहर के पश्चात कुतुप काल में दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बायां घुटना जमीन पर लगाकर साफा दाहिने कंधे पर रखकर काला तिल व जल हथेली में लेकर अपने पितरो का उच्चारण करते हुए पितृ तीर्थ से तीन जलांजलिया देने से पितर तृप्त होकर आर्शीवाद प्रदान करते है। अंगुठा व तर्जनी के मध्य का क्षेत्र पितृ तीर्थ कहा जाता है।
         श्राद्ध काल मंे पिंडदान व नारायण बली भी अपनी सामथ्र्य के अनुसार लोग करते है। धनवान लोगो को इस दिन योग्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर धन,आभूषण,वस्त्र एवं अन्न का दान करना चाहिए। ब्राह्मण को भो कराकर भोज्य सामग्री यथा आटा,फल,गुड,शक्कर,शाक दक्षिण के साथ भी प्रदान करने से पितृ प्रसन्न होकर आर्शीवाद प्रदान करते है। गरीब व्यक्ति एक मुट्ठी काले तिल का दान कर भी श्राद्ध कर सकते है।
       श्राद्ध करने में यदि इस प्रकार से आपको परेशानी हो तो गाय को चारा एवं कौओं को भोजन अपने पितरो को याद करते हुए कराए। इन सब प्रकार से असमर्थ होने पर सूर्य देव को प्रणाम कर प्रार्थना करे कि मैं श्राद्ध कर्म हेतु जरूरी धन एवं साधन नही होने से अपने पितरो का श्राद्ध करने में असमर्थ हुँ। इसलिए आप मेरे पितरो तक मेरी भावनाओं एवं प्रेममय प्रणाम पहुंचा कर उनको तृप्त करे। इस प्रकार आप अपनी सामथ्र्य के अनुसार श्राद्ध कर्म कर पितरो की आत्मा को शांति प्रदान कर उनका आर्शीवाद प्राप्त कर सकते है।
       श्राद्ध काल में इन मंत्रो का जाप करना पितृदोष की शांति करता है। इन्हे श्राद्ध काल में प्रतिदिन 108 बार जाप करना चाहिए-
   मंत्र - ओम सर्व पितृ प्रं प्रसन्नो भव ओम
        ओम ह्में क्लीं ऐं सर्व पितृभ्यो स्वात्म सिद्धये ओम फट्।
श्राद्ध मे किन बातो का रखे ध्यान
       पितरो की आत्मा की शांति हेतु श्राद्ध कर्म का विशेष् महत्व है। श्राद्ध कर्म में आपको निम्न बातो का विशेष ध्यान रखना चाहिए जिससे पितर जनो की आत्मा को शांति प्रदान हो एवं आपको शुभफलो की प्राप्ति हो सके।
श्राद्ध के दिन ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। श्राद्धकर्ता को तन एवं मन दोनो से पवित्र रहना चाहिए।
श्राद्ध में मामा,भाणजा,गुरू,ससुर,नाना,जमाता,दौहित्र,वधु,ऋत्विज्ञ एवं यज्ञकर्ता इनको भोजन कराना शुभ रहता है।
पितरो को सोना,चांदी एवं तांबे के बर्तन अत्यंत प्रिय है। इसलिए जहां तक संभव हो इनके बर्तनो में भोजन कराए। अन्यथा दोना-पतल में भोजन कराए। लोहे एवं लोहे के अंश वाले बर्तनो में भोजन नही करे।
श्राद्धपिंडो को गौ,ब्राह्मण या बकरी को खिलाना चाहिए।
श्राद्ध कर्म में गेहुँ,मुंग,जौ,धान,आंवला,चिरौजी,वेर,मटर,तिल,आम,बेल,सरसो तेल का प्रयोग करना शुभ रहता है।
श्राद्धकर्ता को पान सेवन ,तेल मालिश,पराये अन्न का सेवन नही करना चाहिए।
श्राद्ध कर्म में चना,कुलथी,काले उडद,मूली,खीरा,कचनार,काला नमक,लौकी,बैगन,प्याज,लहसुन,सुपारी,सिंघाडा,जामुन,गाजर,कुम्हडा का सेवन करना चाहिए।
श्राद्ध में श्रीखड,चंदन,खस,कर्पूर का प्रयोग करना चाहिए।
श्राद्ध में कमल,मालती,जुही,चम्पा,तुलसी का प्रयोग उतम रहता है। जबकि बेलपत्र,कदम्ब,मौलसिरी,आदि का प्रयोग नही करना चाहिए।
श्राद्ध में भोजन के समय वार्तालाप नही करे।
                                                                         परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
जिला- सिरोही (राज.) 307512
                                                               मो. 9001742766
                               

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