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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

श्राद्ध पक्ष में शांति का वैज्ञानिक एवं शास्त्रीय महत्व


                 
  वागा राम परिहार 
परिहार ज्योतिष अनुसन्धान केंद्र
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        सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार पितृ लोक चंद्रमा के उपर स्थित है। जब सुर्य कन्या राशि में स्थित होता है तब चंद्र पृथ्वी के सबसे ज्यादा समीप स्थित होता है। इसलिए इस समय हमारे पितर जो वायवीय  शरीर धारण किए हुए है। पृथ्वी लोक पर आकर तर्पण व पिंडदान की आशा करते है। यह समय आश्विन मास का कृष्ण पक्ष होता है। इस समय शीत ऋतु का प्रारंभ होता है इसलिए चंद्रमा पर रहने वाले पितरो के लिए यह समय अनुकूल रहता है। पृथ्वी लोक का एक मास चंद्र का एक अहोरात्र होता है। अमावस्या को सुर्य चंद्र के ठीक उपर स्थित होता है। इसलिए इस समय पितरो का मध्यान्ह होता है। व अष्टमी  को इसके दिन का उदय होता है। इसलिए चंद्र के उध्र्व भाग पर निवास करने वाले पितरो के लिए आश्विन कृष्ण पक्ष उत्तम रहता है।                                                                                                                                                                                                  
           हिन्दु धर्म शास्त्रो के अनुसार हमारा शरीर 27 प्रकार के तत्वो से बना होता है। इसमे से दस तत्व स्थूल रूप में पंच महाभूत, अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, एवं आकाश एवं पांच कर्मेन्दिया है। शेष सत्रह तत्व सूक्ष्म शरीर का निमार्ण करती है। मृत्यु होने पर शरीर स्थूल शरीर का अस्तित्व तो समाप्त हो जाता है परंतु सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व इस संसार मे बना रहता है। मृत्यु के पश्चात दक्षगात्र एवं षोडशी सपिण्डन तक मृत व्यक्ति प्रेत संज्ञा में रहता है। इसके पश्चात वह पितरो में सम्मिलित हो जाता है। यह सुक्ष्म शरीर आसक्ति के कारण अपने परिवार के निकट ही भटकता रहता है। जीवन में प्रत्येक व्यक्ति की कुछ इच्छाएं अधुरी रह जाती है। इन्ही इन्छाओं की पूर्ति के लिए वह भटकता रहता है। विशेष रूप से श्राद्ध पक्ष मे पितृलोक से वायवीय रूप में पृथ्वी पर श्राद्ध स्थल पर उपस्थित होते है। एवं ब्राह्मणो के साथ वायु रूप में भोजन ग्रहण करते है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार जिस परिवार में श्राद्ध कर्म नही होता। वहां दुःख क्लेश एवं रोग  का प्रकोप होता है। इन्हे कई प्रकार की परेशानियो का सामना पडता है। ऐसे नास्तिक पुरूषो के पितर प्यास से व्याकुल होकर देह से निकलने वाले अपवित्र जल से प्यास बुझाते है। इन नास्तिक लोगो के बारे में आदित्य पुराण में तो कहा गया है। कि इनके अतृप्त पितर इनका ही रक्त पीने को विवश होते है। श्राद्ध काल के पश्चात पितर अपने-अपने लोक को चले जाते है।इसलिए श्राद्ध कालमें पिंडदान एवम शांति कर्म अवश्य करना चाहिए   

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