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मंगलवार, 25 सितंबर 2012

श्राद्ध कर्म से होती है पितृदोष शांति


          
 वागा राम परिहार 
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      शास्त्रो में मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण कहे गए है। देव ऋण ,ऋषि ऋण व पितृ ऋण। इसमें से पितृ ऋण के निवारण के लिए पितृ यज्ञ का वर्णन किया गया है। पितृ यज्ञ का दुसरा नाम ही श्राद्ध कर्म है। श्रद्धायंा इदम् श्राद्ध। अर्थात पितरो के उदेश्य से जो कर्म श्रद्धापूर्वक किया जाए,वही श्राद्ध है। महर्षि बृहस्पति के अनुसार जिस कर्म विशेष में अच्छी प्रकार से पकाए हुए उत्तम व्यंजन को दुग्ध घृत और शहद के साथ श्रद्धापूर्वक पितरो के उदेश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए वही श्राद्ध है।
        भारतीय संस्कृति में माता पिता को देवता तुल्य माना जाता है। इसलिए शास्त्र वचन है कि पितरो के प्रसन्न होने पर सारे देव प्रसन्न हो जाते है। ब्रह्मपूराण के अनुसार श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरो के अलावा ब्रह्म, इन्द्र, रूद्र, अश्विनी कुमार, सुर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव, एवं मनुष्यगण को भी प्रसन्न कर देता है।  मृत्यु के पश्चात हमारा स्थूल शरीर तो यही रह जाता है। परंतु सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा मनुष्य के शुभाशुभ कर्मो के अनुसार किसी लोक विशेष को जाती है। शुभकर्मो से युक्त आत्मा अपने प्रकाश के कारण ब्रह्मलोक, विष्णुलोक एवं स्वर्गलोक को जाती है। परंतु पापकर्म युक्त आत्मा पितृलोक की ओर जाती है। इस यात्रा में उन्हे भी शक्ति की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हम पिंड दान द्वारा करते है।
                      कैसे जाने पितृऋण एवं पितृदोष
         संतान की उत्पति में गुणसुत्र का अत्यधिक महत्व है। इन्ही गुणसुत्रो के अलग-अलग संयोग से पुत्र एवं पुत्री की प्राप्ति होती है। शास्त्रो में पुत्र को श्राद्ध कर्म का अधिकारी मुख्यतः माना गया है। पिता के शुक्राणु से जीवात्मा माता के गर्भ मे प्रवेश करती है। उस जीवांश में 84 अंश होते है। जिसमे 28 अंश शुक्रधारी पुरूष अर्थात पिता के होते है। ये 28 अंश पिता के स्वंय के उपार्जित होते है एवं शेष अंश पूर्व पूरूषो के होते है। उसमे से 21 अंश पिता, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामह के, 6 अंश चतुर्थ पुरूष, 3 अंश पंचम पुरूष व 1 अंश षष्ठ पुरूष का होता है। इस प्रकार सात पीढीयो तक के सभी पूर्वजो के रक्त का अंश हमारे शरीर में विद्यमान होने से हम अपने पूर्वजो के ऋणी है अर्थात हम पर पितृ ऋण रहता है। इसलिए उनको पिंडदान करना चाहिए।
         पितृदोष होने पर परिवार एवं परिवार जनो को विचित्र प्रकार की घटनाओ का सामना करना पडता है। ऐसे परिवार मे रोग का प्रकोप बना रहता है। किसी एक के स्वस्थ होने पर दुसरा बीमार हो जाता है। कई बार रोग का पता ही नही चल पाता रोगी को थोडी राहत महसुस होती है फिर रोग का पुनः प्रकोप होता रहता है। कई बार इनके कार्य व्यवसाय मे भी अवरोध की स्थिति बनकर घाटा उठाना पडता है। इनके परिवार मे भी मतभेद की स्थिति बनती है। आपस मे कलह के कारण जीवन तनावपूर्ण हो जाता है। इन सभी प्रकार की अप्रत्भाशित घटनाओ के पीछे पितृदोष ही मुख्य रूप से होता है। इसकी जानकारी जन्मपत्रिका एवं प्रश्न कुंडली के द्वारा जान सकते है। वृह को मुख्य रूप से इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है। यदि जन्मांग में वृह निर्बल, अशुभ, वक्री, अस्त, होकर स्थित हो तो उस जातक के पितर उससे अप्रसन्न रहते है। ऐसे जातक को किस पितर के प्रकोप के कारण इस प्रकार की परेशानियां आ रही है। इसके लिए प्रश्नकुंडली के अष्ट एवं द्वादश भाव में स्थित ग्रह से पता लगाया जा सकता है। प्रत्येक ग्रह को किसी रिश्तेदार का प्रतिनिधि माना जाता है। इसमे सूर्य का पिता का कारक, चंद्र को माता, मंगल को छोटा भाई, बुध को बहन, बुआ, मौसी, वृह को बडे भाई एवं पत्रिका शुक्र को पत्नी का कारक माना जाता है। राहु एवं केतु को प्रेत योनि मे गए पितरो का प्रतिनिधि माना है। इस प्रकार प्रश्न कुंडली में स्थिति के अनुसार पितर दोष के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते है। इसके पश्चात कुशल देवज्ञ से शांति कर्म की व्यवस्था करवा सकते है।

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