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सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

कालसर्प दोष का प्रभाव कब तक



कालसर्प दोष  का  प्रभाव कब तक
पुर्व जन्म के शुभाशभु कार्यो के अनुसार ही जातक का वर्तमान जीवन निर्भर करना है । इस आधार  पर ही किसी जातक का जन्म निश्चित योगों मे होता है इसकि जानकारी प्राप्त करते हुए वर्तमान मे अनेक विधाए प्रचलन मे है जिसमे ज्योतिष विज्ञान भी एक है इसमे जातक के जन्म कालीन समय एवं स्थान के आधार पर जन्म कुंडली का निर्माण करते है इसमे जन्म कालीन समय और स्थान के आधार पर जन्म कुंडली का निर्माण करते है । इसमे जन्म कालिन ग्रहो कि राशि एवं भावस्थ स्थ्तिि के आधार पर अनेक प्रकार के योगो एवं कु योगो का निर्माण होता है इन्ही मे से कालसर्प भी एक है जो कभी योग बनकर जातक  को खुशहाल   करता है तो कभी दोष बनकर जातक को बरबाद करता है इस कालसर्प के बारे मे विद्वानो मे मतभेद है तो कुछ विद्वान इसकु दोषो को बताकर इसकी सत्यता का ज्ञान भी कराते है । ज्योतिश मे पाप कर्तरी  के बारे मे जानकारी मिलती है । लग्न के दोनो ओर द्वितीय व द्वाद्वश भाव मे पापग्रह स्थिति होने पर लग्न कर्तरी दोष बनता है । जो जातक के समस्त प्रकार के सुखो का नाश करता है क्योकि लग्न को संपुण व्यक्तित्व का कारक माना जाता है । इसी को विस्तारीत कर किसी भाव पर आधारीत करे तो यह दोष उस भाव संबधित कारको को सुख नष्ट करता है ंपापकर्तरी मे भी जब कर्तरी दोष कारक ग्रह शुभ भावेश होकर बलवान होतो अशुभता कम हो जाती हैॅ इसी आधार पर ही यदी कालसर्प का आकलन करे तो स्थिती स्पष्ट हो जाती है ।

वेदो के अनुसार आत्मा अमर है अर्थात उसका नाश  नही होता आत्मा का कालातंर मे आवरण बदलता रहता है जो कर्मो के अनादि प्रवाह का कारण है श्री कृष्ण ने कहा है कि वासना के कारण विभिन्न योनियो मे जन्म होता है जबवासना पुण नही होती तो उसकि बुद्वि और विवके खो जाता है और सर्प योनि को प्राप्त करता है यह भी कर्म का हेतु है । जातक द्वारा वर्तमान काल तक किया गया कर्म संचित है इस संचित कर्म को किसी एक काल मे भोगना असंभव है । अतः इस काल मे जो कर्म फल भोगने को निश्चित है वही प्रारब्ध है एवं वर्तमान मे जो कर्म हम निरन्तर कर रहे है वह क्रियमाण है जब जातक का अशुभ प्रारब्ध पुरा हो जाता है अर्थात शुभ प्रारब्ध का मिलना शुरू हो जाता है तो उस स्थिती मे जातक कि निश्चितय ही प्रगति शुरू हो जाती है यही पर भ्रम कि स्थिति पैदा होती है
प्रंाचिन विद्वानो ने कालसर्प के बारे मे कोई विषेश अधिकारीक जानकारी नही दी है ।  लेकिन राहु का विषेश भावो मे स्थिति वश अनिष्ट प्रभाव भी बताया है जिसमे निरन्तर शोध का नतीजा कालसर्प है। इसकि विशद व्याख्या तो विशद व्याख्या ताक वही कर सकता है । जिसने इन दुर्योगो का फल भुगता है   राहु केतु के मध्य समस्त ग्रहो के आ जाने से कालसर्प योग बनता है जो संतान एवं यश का नाश करता है समस्त दुखो एवं रोग का कारण बनता है जातक एक ऐसे चक्रव्युह मे फस जाता है कि उसे पता ही नही चल पाता ऐसी स्थिती मे डाक्टर भी गच्चा खाकर रोगी का इलाज नही कर पाता जब रोग के बारे मे डाक्टर निश्चित नही कर पाये व्याधि का शमन दवाईयो से नही हो पाये तो समझ लेना चाहीए कि कर्म दोषज है जिसकी शांती या उपाय कर लेने  पर ही राहत मिलती है कालसर्प दोष मे भी जब राहु किसी एसी राशि मे स्थित हो जिसका स्वामि जंन्मंाग मे नीचे राशि का हो एवं केतु अधिष्टित राशि भी निर्बल हो तो कालसर्प कष्ट कारक बनता है ।
कालसर्प दोष का प्रभाव कब एवं कब तक:-
1. जातक को जन्म  से लेकर 42 वर्ष कि अवस्था तक विषेश अशुभ प्रभाव
 राहु कि महादशा या अंतर्दशा काल मे भावस्थ एवं राशि अनुसार अशुभ प्रभाव मिलता है
2. राहु कि महादशा मे सुर्य या चंद्र कि अंतर्दशा हो
3. राहु अधिष्टित राशिश की दशान्तर्दशा हो
4. राहु का अशुभ गोचर बन रहा हो
5. राहु मे केतु या केतु मे राहु कि दशन्तर्दशा हो                                7. राहु केतु से योग करने वाले ग्रह कि दशान्तर्दशा हो

पुर्व जन्म के शुभाशभु कार्यो के अनुसार ही जातक का वर्तमान जीवन निर्भर करना है । इस आधार  पर ही किसी जातक का जन्म निश्चित योगों मे होता है इसकि जानकारी प्राप्त करते हुए वर्तमान मे अनेक विधाए प्रचलन मे है जिसमे ज्योतिष विज्ञान भी एक है इसमे जातक के जन्म कालीन समय एवं स्थान के आधार पर जन्म कुंडली का निर्माण करते है इसमे जन्म कालीन समय और स्थान के आधार पर जन्म कुंडली का निर्माण करते है । इसमे जन्म कालिन ग्रहो कि राशि एवं भावस्थ स्थ्तिि के आधार पर अनेक प्रकार के योगो एवं कु योगो का निर्माण होता है इन्ही मे से कालसर्प भी एक है जो कभी योग बनकर जातक  को खुशहाल   करता है तो कभी दोष बनकर जातक को बरबाद करता है इस कालसर्प के बारे मे विद्वानो मे मतभेद है तो कुछ विद्वान इसकु दोषो को बताकर इसकी सत्यता का ज्ञान भी कराते है । ज्योतिश मे पाप कर्तरी  के बारे मे जानकारी मिलती है । लग्न के दोनो ओर द्वितीय व द्वाद्वश भाव मे पापग्रह स्थिति होने पर लग्न कर्तरी दोष बनता है । जो जातक के समस्त प्रकार के सुखो का नाश करता है क्योकि लग्न को संपुण व्यक्तित्व का कारक माना जाता है । इसी को विस्तारीत कर किसी भाव पर आधारीत करे तो यह दोष उस भाव संबधित कारको को सुख नष्ट करता है ंपापकर्तरी मे भी जब कर्तरी दोष कारक ग्रह शुभ भावेश होकर बलवान होतो अशुभता कम हो जाती हैॅ इसी आधार पर ही यदी कालसर्प का आकलन करे तो स्थिती स्पष्ट हो जाती है ।

वेदो के अनुसार आत्मा अमर है अर्थात उसका नाश  नही होता आत्मा का कालातंर मे आवरण बदलता रहता है जो कर्मो के अनादि प्रवाह का कारण है श्री कृष्ण ने कहा है कि वासना के कारण विभिन्न योनियो मे जन्म होता है जबवासना पुण नही होती तो उसकि बुद्वि और विवके खो जाता है और सर्प योनि को प्राप्त करता है यह भी कर्म का हेतु है । जातक द्वारा वर्तमान काल तक किया गया कर्म संचित है इस संचित कर्म को किसी एक काल मे भोगना असंभव है । अतः इस काल मे जो कर्म फल भोगने को निश्चित है वही प्रारब्ध है एवं वर्तमान मे जो कर्म हम निरन्तर कर रहे है वह क्रियमाण है जब जातक का अशुभ प्रारब्ध पुरा हो जाता है अर्थात शुभ प्रारब्ध का मिलना शुरू हो जाता है तो उस स्थिती मे जातक कि निश्चितय ही प्रगति शुरू हो जाती है यही पर भ्रम कि स्थिति पैदा होती है
प्रंाचिन विद्वानो ने कालसर्प के बारे मे कोई विषेश अधिकारीक जानकारी नही दी है ।  लेकिन राहु का विषेश भावो मे स्थिति वश अनिष्ट प्रभाव भी बताया है जिसमे निरन्तर शोध का नतीजा कालसर्प है। इसकि विशद व्याख्या तो विशद व्याख्या ताक वही कर सकता है । जिसने इन दुर्योगो का फल भुगता है   राहु केतु के मध्य समस्त ग्रहो के आ जाने से कालसर्प योग बनता है जो संतान एवं यश का नाश करता है समस्त दुखो एवं रोग का कारण बनता है जातक एक ऐसे चक्रव्युह मे फस जाता है कि उसे पता ही नही चल पाता ऐसी स्थिती मे डाक्टर भी गच्चा खाकर रोगी का इलाज नही कर पाता जब रोग के बारे मे डाक्टर निश्चित नही कर पाये व्याधि का शमन दवाईयो से नही हो पाये तो समझ लेना चाहीए कि कर्म दोषज है जिसकी शांती या उपाय कर लेने  पर ही राहत मिलती है कालसर्प दोष मे भी जब राहु किसी एसी राशि मे स्थित हो जिसका स्वामि जंन्मंाग मे नीचे राशि का हो एवं केतु अधिष्टित राशि भी निर्बल हो तो कालसर्प कष्ट कारक बनता है ।
कालसर्प दोष का प्रभाव कब एवं कब तक:-
1. जातक को जन्म  से लेकर 42 वर्ष कि अवस्था तक विषेश अशुभ प्रभाव
 राहु कि महादशा या अंतर्दशा काल मे भावस्थ एवं राशि अनुसार अशुभ प्रभाव मिलता है
2. राहु कि महादशा मे सुर्य या चंद्र कि अंतर्दशा हो
3. राहु अधिष्टित राशिश की दशान्तर्दशा हो
4. राहु का अशुभ गोचर बन रहा हो
5. राहु मे केतु या केतु मे राहु कि दशन्तर्दशा हो                                7. राहु केतु से योग करने वाले ग्रह कि दशान्तर्दशा हो

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