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शनिवार, 27 जुलाई 2013

कालसर्प योग शांति के उपाय

कालसर्प के कारण किसी जातक को जब परेशानियो का सामना करना पडता है तो उसे कालसर्प कि शांति करना समझदारी है ।  इसके दोषो को दुर करने हेतु  कुछ विशेष रूप से करना करना पडता है कालसर्प के दोषो को दुर करने हेतु कुछ सामान्य उपाय दिण् ज रहे है जिसके करने पर जातक को अवश्य राहत प्राप्त होती है सामान्य परंतु प्रभावशाली उपाय:-
1.मोरपंख को अपने शयनकक्ष व कार्यालय मे रखे हो सके तो पर्स मे रखे

2.सुर्य ग्रहण ,चन्द्र ग्रहण ,अमावस्या अथवा नागपंचमी के दिन एक तांबे का बडा सर्प सुबह सुर्योदय से पहले शिवलिगं पर गुप्त रूप् से चढाए उसके पश्चात चांदी का रेगता हुआ सर्प बनाकर उसके मुख पर गोमेद व पुछ पर लहसुनिया जडवाकर रि पर से सात बार उतारकर बहते पवित्र ज लमे प्रवाहीत करे

3.तांबे के कलश मे काले तिल व सर्प सर्पीणी का जोडा रखकर कुछ जल भरकर अमावस्याा के दिन शिवलिग पर अर्पित करे

4.वर्ष मे एक बार बुधवारी अमावस्या या नागपंचमी के दिन व्रत रखकर राहु के मंत्रो का चतुर्गुणित जाप कराकर दशांश हवन करे

5.चतुर्गुणित जप करने मे असमर्थ हो तो दस माला राहु के मंत्रो का जाप कर 108 बार आहुति देवे इसके लिये दुर्वा को घी मे डुबोकर काले तिल व कपुर के साथ अर्पित करे

6. नवनाग स्त्रोत व सर्प सुक्त का प्रतिदिन चंदन कि अगतबत्ती जलाकर नौ बार पाठ करे
                       नवनाग स्त्रोत
अनंतं वासुकि शेषे पदमनाभे च कंबलम ।
शंखपाल धार्तराष्टंªª तंक्षक कालियं तथा ।ं।
एतानि नव नामानि नागानाम् च महात्मनाम ।
सायं काले पठेत्रित्यं प्रात: काले विशेषत:।।
तस्मै विषभय नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत ।




सर्प सुक्त 
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पाः शेषनाग पुरोगमाः।
नमोस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
इंद्रलोकेषु ये सर्पाः वासुकि प्रमुखादयाः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
कद्रवेचाश्च ये सर्पा मातृभक्ति परायण ।
 नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
इंद्रलोकेषु ये सर्पाः तक्षका प्रमुखादयाः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
सत्यलोकेषु ये सर्पाः ककोटक प्रमुखादयाः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
पृथिव्यांचैव ये सर्पा साकेत वासिताः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
सर्वग्रोमेषु ये सर्पा वसंतिषु सच्छिता ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
ग्रामे वा यदी वारण्ये ये सर्पापुचरन्ति च ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
समुद्रतीरे यो सर्पाये सर्पाजल वासिनः ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।
रसातलेषु ये सर्पाः अनन्तादि महाबला ।
नमोस्तुतंभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ।।


7.गोमुत्र से दातँ साफ रखने एवं ताजा मुली का दान करने से भी शाति मिलती है

8.पाच सुखे जटा वाले नारियल सिर पर से सत बार उतारकर जल प्रवाह करने से राहत मिलती है

9.नागपेचमी के दिन वत रखकर उसी दिन नाग प्रतीमा की अगठी पुजा कर धारण करे

10. वर्ष मे एक बार रूद्राभिषेक करने से राहत प्रप्त होती है

11.घर के दरवाजे पर स्वास्तिक लगाए

12.शिव चरणामृत का पान सोमवार को करने से राहत मिलती है

13. प्रतिदिन स्नान के उपरान्त धुप दिप जलाकर नवनाग गायत्री मंत्र का 108 बार जाप करने से भी राहत प्राप्त हो ती है ।
मंत्र:-नवकुल नागाय विùहे विषदन्ताय धीमहि तन्नो सर्पः प्रचोदयात ।

14. यदि स्वप्र मे साप दिखाई देता हो एवं उससे भय बना रहता हो तो निम्र मंत्र का संध्याकाल मे 21 या 108 बार जाप दीप जलाकर करे ।
म्ंात्र:-नर्मदाये नमः प्रातर्नदाये नमो निशि ।
नमोस्तु नर्मदे तुभ्यं ़त्राहि मा विष सर्पतः ।।

15.भवन के मुख्यद्वार के नीचे चादी का पत्र दबने पर राहत मिलती है ।

16. चादी की दो कटोरी लेकर उसमे गंगाजल भरकर एक कटोरी को किसी शिव मंदिर या नाग देवता के मंदिर मे चढाए एवं दुसरी कटोरी अपने पुजा स्थल पर रखे इसमेज ल को सुखने नही दे ऐसा करने पर भी राहत मिलती है

17.पेतिदिन स्नान करने के उपरान्त भगवान शिव का ध्यान करते हुए शिव चालिसा का पाठ करे तो कालसर्प दोष से राहत प्राप्त होती है ।

18. कालसर्प दोष होने पर जातक को किसी शुभ दिवस से प्रारंभ कर प्रतिदिन नहा धोकर पवित्र होकर दुध मिश्रित जल शिवलिंग पर चढाते हुए निम्र का इक्कीस बार जाप करना चाहिए ।
मंत्र:- नागेंद्रहराय त्रिलोचनाय भस्मांगराय महेश्वराय ।
 नित्याय शुद्वाय दिगंबराय तस्मै व काराय नमः शिवाय ।।
इसके प्रभाव मे कालसर्प दोष का अशुभ प्रभाव कम होने लगता है ।
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कब बनता है कालसर्प कष्ट कारक


 1. चंद्र या सुर्य से राहु आठवे भाव मे हो ।

 2. जन्मकुडंली मे जातक की योनी सर्प हो

 3.  चंद्र ग्रहण एवं सुर्य ग्रहण जन्ंमाक मे हो

 4.   कालसर्प योग मे राहु आठवे या बारहवे भाव मे हो  

 5. ग्रहण योग मे चंद्र ग्रहण होने पर चंद्र मन एवं कल्पना का कारण होकर जब जातक का मन किसी कार्य मे नही लगेगा तो पतन निश्चित है । सुर्य ग्रहण होने पर जातक को आत्मिक रूप् से परेशानी अवश्य रहती है                                                                                                
   6  कालसर्प मे मंगल राहु का योग होने पर जातक कि तर्क शक्ति एवं निर्णय शक्ति प्रभावित होती है जातक मे आलस्य की भावना रहने से भी सुख प्राप्त नही हो पाता ।
                            
 7.     कालसर्प मे बुध राहु के योग से जडत्व योग का निर्माण होता है । बुध कमजोर भी हो तो जातक कि बौद्विक शक्ति कमजोर होगी बुद्विमान लोग ही जीवन मे सफलता प्राप्त कर पाते है बुद्विहीनता के कारण जातक पैतृक प्रभाव सम आर्थिक रूप से मजबुत होगा तो भी राहु काल या बुध दशा मे अपनाा सर्वस्व गवाा देगा ।                              
 8. कालसर्प मे वृह - राहु से चाडाल योग का लिर्माण होता है वृह ज्ञान एवं पुण्य का कारक है यदि जातक अपने शुभ प्रारब्ध के कारण सक्षम होगा तो अज्ञान एवं पाप प्रभाव के कारण शुभ प्रारब्ध को स्थिर नही रख पायेगा अर्थात अपने शुभ कर्माे मे कमी से जातक का विनाश निश्चित है                                                                                              
  9. कालसर्प मे शुक्र राहु योग से अमोत्वक योग का निर्माण होता है । इसके कारण जो शुक्र एवं लक्ष्मी का कारक है पे्रम मे कमी एवं लक्ष्मी ,भार्या का  अनादर सभी विफलताओ का मुल है                                                                                        
  10. कालसर्प मे शनि राहु योग से नंदि योग का निर्माण होता है शनि राहु दोनो पृथक्कताजनक एवं विच्छेदकारी ग्रह है इसलिए इनका प्रभाव जातक को निराशा कि ओर ले जायेगा                                                                                
  11. कालसर्प योग की स्थिति मे केन्द्र त्रिकोण मे पाप ग्रह स्थित हो                                      

  12.कालसर्प योग वाले जातक का जन्म गंडमुल नक्षत्र मे हो
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बुधवार, 24 जुलाई 2013

श्रावण मास मे करे भगवान शिव का अभिषेक और पूजन

(ज्योतिषाचार्य वागाराम परिहार)
श्रावण मास में पूजा करने से सभी देवताओं की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। इसमें कोई शंका नही हैं। श्रावण मासारंभ से मासांत तक शिव के दर्शन हेतु श्रद्धालु शिवालय अवश्य जाते है। श्रद्धालुओं में भक्ति भावना भी इसी मास में विशेष जागृत होती हैं। इस शिव पूजन के साथ-साथ उनकी कथा अर्थात् शिव पुराण का भी श्रवण करना चहिए। कई श्रद्धालु इस मास में व्रत रखते है उन्हें व्रत के साथ-साथ अपनी वाणी पर संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, सत्य वचन एवं अनैतिक कार्यो से दूर रहना चाहिए। धर्म,कर्म एवं दान के प्रति भी लोगों का विशेष रूझान देख जा सकता हैं।
           भगवान शंकर की विभिन्न फूलों से पूजन करने का भी भिन्न फल मिलता है। शिव पर कुछ पुष्प नहीं चढाने का निर्देश है-
           बन्धुकं केतकीं कुन्दं केसरं कुटजं जयाम्।
           शंकरे नार्पयेद्विद्वान्मालतीं युधिकामपि।।
       अर्थात् शंकर पर बन्धुकं, केतकी, कुन्द,मौलसरी, कोरैया, जयपर्ण, मालती तथा जुही ये पुष्प शंकर पर नहीं चढाए जाते हैं। बेलपत्र, शतपत्र एवं कमलपत्र से पूजन करने से लक्ष्मी कृपा, आक का पुष्प चढानें से मान-सम्मान में वृद्धि होती है। धतुरे के पुष्प चढाने से विष भय एवं ज्वर भय मिटता है कहा भी है-
’’ आक धतुरा चबात फिरे, विष खात शिव तेरे भरोसे। ‘‘  जवा पुष्प से सावन मास में शिव का पूजन करने से शत्रु का नाश होता है तो गंगा जल से अभिषेक करना मोक्ष प्रदाता माना गया है। साधारण जल से अभिषेक भी वर्षा की प्राप्ति करवाता है। दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करने से आत्मा को सुकुन मिलता है एवं संतान सुख प्राप्त होता है। तो लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने हेतु गन्ने के रस से या गुड मिश्रित जल अभिषेक करना शुभ माना जाता है। मधु या घी या दही से अभिषेक करने पर भी आर्थिक स्थिति मजबूत बनती है। रोगों से ग्रसित जातकों हेतु विशेष रूप से शुक्र से पीडित जातकों हेतु केवल दुध को अर्पित करना चाहिए। सूर्य एवं चंद्र कृत रोगों से मुक्ति हेतु शहद अर्पित करना विशेष विशेष लाभदायक है तो मंगल कृत रोगों से बचाव हेतु गुड मिले जल से अभिषेक करना चाहिए। बृहस्पति की कृपा हेतु हल्दी मिश्रित या दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करना उतम लाभ की प्राप्ति करता है। आप भी जिस ग्रह की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं। उसी ग्रह के अनुसार पूजन सावन मास में अवश्य करें। किसी कामना विशेष हेतु भी आप किसी विशेष प्रयोग को सावन मास में कर शिव कृपा प्राप्त कर सकते है।
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आपकी राषि, नक्षत्र और रोगोपचार



          भारतीय ज्योतिश में राषि एवं नक्षत्र का अपना विषेश महत्त्व है। किसी राषि एवं नक्षत्र के आधार पर रोगों का वर्णन प्राचीन आचार्यो ने किया है। बारह राषियों अर्थात् सत्ताईष नक्षत्रों को अंगों में स्थापित करने पर मानव षरीर की आकृति बनती है। नवग्रहों में चन्द्र सर्वाधिक गतिषील ग्रह है, इसलिये इसका मानव षरीर पर भी सर्वाधिक प्रभाव मान सकते हैं। हमारे षरीर का लगभग 70 प्रतिषत भाग जल है। ज्योतिश में जल का स्वामी चन्द्र को ही माना है, इसलिये भारतीय ज्योतिश में चन्द्र को महत्वपूर्ण स्थान देकर उसका जन्म समय जिस राषि या नक्षत्र में गोचर होता है, वही हमारी जन्मराषि या जन्म नक्षत्र माना जाता है। इस राषि या नक्षत्र के आधार पर जातक को कौन रोग हो सकता है एवं इस रोग से बचाव का सुलभ उपाय क्या होगा, इसकी जानकारी इस अध्याय में दी जा रही है। नक्षत्र के आराध्य अथवा उसके प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करके भी रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है:-
      1 अष्विनी:- वराह ने अष्विनी नक्ष्त्र का घुटने पर अधिकार माना है।  इसके पीडित होने पर बुखार भी   रहता है। यदि आपको घुटने से सम्बन्धित पीडा हो, बुखार आ रहा हो तो आप अपामार्ग की जड धारण करें। इससे आपको रोग की पीडा कम होगी।

      2   भरणी:- भरणी नक्षत्र का अधिकार सिर पर माना गया है। इसके पीडित होने पर पेचिष रोग होता        है। इस प्रकार की पीडा पर अगस्त्य की जड धारण करें।

3 कृतिका:- कृतिका नक्षत्र का अधिकार कमर पर है। इसके पीडित होने पर कब्ज एवं अपच की समस्या होती है। आपका जन्म नक्षत्र यदि कृतिका हो तथा कमर दर्द, कब्ज, अपच की षिकायत हो तो कपास की जड धारण करें।

4 रोहिणी:- रोहिणी नक्षत्र का अधिकार टांगों पर होता है। इसके पीडित होने पर सिरदर्द, प्रलाप, बवासीर जैसे रोग होते है। इस प्रकार की पीडा होने पर अपामार्ग या आंवले की जड धारण करें।

5 मृगषिरा:- मृगषिरा नक्षत्र का अधिकार आँखों पर है। इसके पीडित होने पर रक्त विकार, अपच,एलर्जी जैसे रोग होते है। ऐसी स्थिति में खैर की जड धारण करें।

6 आद्र्रा:- आद्र्रा नक्षत्र का अधिकार बालों पर है। इसके पीडित होने पर मंदाग्नि, वायु विकार तथा आकस्मिक रोग होते हैं। इससे प्रभावित जातकों को ष्यामा तुलसी या पीपल की जड धारण करनी चाहिये।

7 पुनर्वसु:- पुनर्वसु नक्षत्र का अधिकार अंगुलियों पर है। इसके पीडित होने पर हैंजा, सिरदर्द, यकृत रोग होते है। इन जातकों को आक की जड धारण करनी चाहिये। ष्वेतार्क जडी मिले तो सर्वोत्तम हैं।

8 पुश्य:- पुश्य नक्षत्र का अधिकार मुख पर है। स्वादहीनता, उन्माद, ज्वर इसके कारण होते है। इनसे पीडित जातकों को कुषा अथवा बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।

9 आष्लेशा:- आष्लेशा नक्षत्र का अधिकार नाखून पर है। इसके कारण रक्ताल्पता एवं चर्म रोग होते है। इनसे पीडित जातको को पटोल की जड धारण करनी चाहिये।

10 मघा:- मघा नक्षत्र का अधिकार वाणी पर है। वाणी सम्बन्धित दोश, दमा आदि होने पर जातक भृगराज या वट वृक्ष की जड धारण करें।

11 पूर्वाफाल्गुनी:- पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुप्तांग पर है। गुप्त रोग, आँतों में सूजन, कब्ज, षरीर दर्द होने पर कटेली की जड धारण करें।

12 उत्तराफाल्गुनी:- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुदा, लिंग, गर्भाषय पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित रोग मधुमेह होने पर पटोल जड धारण करें।

13 हस्त:- हस्त नक्षत्र का अधिकार हाथ पर होता है। हाथ में पीडा होने या षरीर में जलदोश अर्थात् जल की कमी, अतिसार होने पर चमेली या जावित्री मूल धारण करें।

14 चित्रा:- चित्रा नक्षत्र का अधिकार माथे पर होता है। सिर सम्बन्धित पीडा, गुर्दे में विकार, दुर्घटना होने पर अनंतमूल या बेल धारण करें।

15 स्वाति:- स्वाति नक्षत्र का अधिकार दाँतों पर है, इसलिये दंत रोग, नेत्र पीडा तथा दीर्घकालीन रोग होने पर अर्जुन  मूल धारण करें।

16 विषाखा:- विषाखा नक्षत्र का अधिकार भुजा पर है। भुजा में विकार, कर्ण पीडा, एपेण्डिसाइटिस होने पर गुंजा मूल धारण करें।

17 अनुराधा नक्षत्र का अधिकार हृदय पर है। हृदय पीडा, नाक के रोग, षरीर दर्द होने पर नागकेषर की जड धारण करें।

18 ज्येश्ठा:- ज्येश्ठा नक्षत्र का अधिकार जीभ व दाँतों पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित पीडा होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।

19 मूल:- मूल नक्षत्र का अधिकार पैर पर है। इसलिये पैरों में पीडा, टी.बी. होने पर मदार की जड धारण करें।

20 पूर्वाशाढा:- पूर्वाशाढा नक्षत्र का अधिकार जांघ, कूल्हों पर होता है। जाँघ एवं कूल्हों में पीडा,  कार्टिलेज की समस्या, पथरी रोग होने पर कपास की जड धारण करें।

21 उतराशाढा:-उतराशाढा नक्षत्र का अधिकार भी जाँघ एवं कूल्हो पर माना है। हड्डी में दर्द, फे्रक्चर होने, वमन आदि होने पर कपास या कटहल की जड धारण करें।

22 श्रवण:- श्रवण नक्षत्र का अधिकार कान पर होता है। इसलिये कर्ण रोग, स्वादहीनता होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।

23 धनिश्ठा:- धनिश्ठा नक्षत्र का अधिकार कमर तथा रीढ की हड्डी पर होता है। कमर दर्द, गठिया आदि होने पर भृंगराज की जड धारण करें।

24 षतभिशा:- षतभिशा नक्षत्र का अधिकार ठोडी पर होता है। पित्ताधिक्य, गठिया रोग होने पर कलंब की जड धारण करें।

25 पूर्वाभाद्रपद:- पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार छाती, फेफडों पर होता हैं। ष्वास सम्बन्धी रोग होने पर आम की जड धारण करें।

26 उतराभाद्रपद:- उतराभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार अस्थि पिंजर पर होता है। हांफने की समस्या होने पर पीपल की जड धारण करें।

27 रेवती:- रेवती नक्षत्र का अधिकार बगल पर होता है। बगल में फोडे-फुंसी या अन्य विकार होने पर महुवे की जड धारण करें।
          जब किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य पीडा हो तो आपको अपने जन्म नक्षत्र के प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करनी चाहिये। यदि आपको अपना जन्म नक्षत्र पता नहीं है तो आपको किस प्रकार की स्वास्थ्य पीडा है तथा वह षरीर के किस अंग से सम्बन्धित है अथवा वह रोग किसके अन्तर्गत आ रहा है, उससे सम्बन्धित वृक्ष की जडी ऊपर बताये अनुसार धारण करें तो आपको अवष्य अनुकूल फल की प्राप्ति होगी।
      आपकी राषि के अनुसार जडी धारण करके भी रोग के प्रकोप को कम कर सकते हैं। आप अपनी राषि अपने नाम के प्रथम अक्षर से जान सकते हैं। इस आधार पर:-
मेश राषि वालों को पित्त विकार, खाज-खुजली, दुर्घटना, मूत्रकृच्छ की समस्या होती है। मेश राषि का स्वामी ग्रह मंगल है। इन्हें अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये।
व्ृाष्चिक राषि वालों को भी उपरोक्त रोगों की ही समस्या होती हैं। इन्हें भी अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये
व्ृाशभ एवं तुला राषि वालों को गुप्त रोग, धातु रोग, षोथ आदि होते हैं। यदि आपकी राषि वृशभ अथवा तुला हो तो आपको सरपोंखा की जड धारण करनी चाहिये।
मिथुन एवं कन्या राषि वालों को चर्म विकार, इंसुलिन की कमी, भ्रांति, स्मुति ह्नास, निमोनिया, त्रिदोश ज्वर होता है। इन्हें विधारा की जड धारण करनी चाहिये।
कर्क राषि वालों को सर्दी-जुकाम, जलोदर, निद्रा, टी.बी. आदि होते हैं। इन्हें खिरनी की जड धारण करनी चाहिये।
सिंह राषि वालों को उदर रोग, हृदय रोग, ज्वर, पित्त सम्बन्धित विकार होते हैं। इन्हें अर्क मूल धारण करनी चाहिये। बेल की जड भी धारण कर सकते हैं।
धनु एवं मीन राषि वालों को अस्थमा, एपेण्डिसाइटिस, यकृत रोग, स्थूलता आदि रोग होते हैं। इन्हें केले की जड धारण करनी चाहिये।
मकर एवं कुंभ राषि वालों को वायु विकार, आंत्र वक्रता, पक्षाघात, दुर्बलता आदि रोग होते हैं। इन्हें बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।
  चन्द्र का कारकत्व जल हैं। इसलिये चन्द्र निर्बल होने पर जल चिकित्सा लाभप्रद सिद्ध होती हैं। हमारे षरीर में लगभग 70 प्रतिषत जल होता है। इसलिये षरीर की अधिकांष क्रियाओं में जल की सहभागिता होती है। जल चिकित्सा से जो वास्तविक रोग है, उसका उपचार तो होता ही है इसके साथ अन्य अंगों की षुद्धि भी होती है। इस कारण षरीर में भविश्य में रोग होने की सम्भावना भी कम होती है। जल एक अच्छा विलायक है। इसमें विभिन्न तत्त्व एवं पदार्थ आसानी से घुल जाते हैं जिससे रोग का उपचार आसानी से हो जाता है। जल चिकित्सा में वाश्प् स्नान, वमन,एनीमा, गीली पट्टी, तैरना, उशाःपान एवं अनेक प्रकार की चिकित्सायें हैं। दैनिक क्रियाओं में भी हम जल का उपयोग करते रहते हैं। लेकिन जब चन्द्र कमजोर एवं पीडित होकर उसकी दषा आये तभी जल के अनुपात में षारीरिक असंतुलन बनता है। हमारे षरीर में स्थित गुर्दे जल तत्त्वों का षुद्धिकरण करते हैं। जल की अधिकता होने पर पसीने के रूप में जल बाहर निकलता है जिससे षरीर का तापमान कम हो जाता है। इसलिये जल सेवन अधिक करने पर जोर दिया जाता है ताकि षरीर स्वस्थ रहे अर्थात् चन्द्र की कमजोरी स्वास्थ्य में बाधक न बने। इस प्रकार हमारे लिये चन्द्र महत्त्वपूर्ण ग्रह बन जाता है।            
                                                                                     ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                      मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                      जिला- सिरोही (राज.) 307512
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मंगलवार, 23 जुलाई 2013

गण्डमूल नक्षत्र


अष्विनी, आष्लेशा, मघा, ज्येश्ठा, मूल व रेवती ये 6 नक्षत्र सम्पूर्ण मान के गण्डमूल नक्षत्र कहलाते हैं। इनमेें जन्म होने पर अषुभ माना गया है। किस नक्षत्र के किस चरण में जन्म होने पर अषुभ फल किस रूप में प्राप्त होता हैं। इसकी जानकारी प्रस्तुत हैंः-
1 अष्विनी:- अष्विनी नक्षत्र का स्वामी केतु है। इसके प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के पिता को कश्ट की सम्भावना रहती है। जन्म के पष्चात् पिता को कुछ न कुछ चिन्ता अवष्य रहती है।

       द्वितीय चरण में जन्म होने पर सुख की प्राप्ति होती है। जातक को गण्डमूल दोश का प्रभाव नगण्य रहता है।
      तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक को राज्य स्तर पर अच्छे पद की प्राप्ति होती है। जातक का जीवन सुखमय व्यतीत होता है।

       चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक को राजकीय मान-सम्मान की प्राप्ति होती रहती है। जीवन समृद्ध रहता है।

         अर्थात् अष्विनी के प्रथम चरण में उत्पन्न जातक को गण्ड का प्रभाव अधिक रहता है। विषेशतया अष्विनी नक्षत्र प्रारम्भ के अर्थात् प्रथम चरण के प्रथम 48 मिनिट का समय विषेश कश्टदायक माना गया है। अष्विनी नक्षत्र यदि रविवार के दिन पड रहा हो तो गण्ड देाश कम हो जाता है।
2 आष्लेशा:- आष्लेशा नक्षत्र में उत्पन्न जातक अपनी सास के लिये कश्टदायक होता है, विषेश रूप से जब प्रथम चरण में जन्म नहीं हो। इस नक्षत्र में उत्पन्न जातक मानसिक रूप से कमजोर रहते है। इनको व्यावहारिक ज्ञान का अभाव होता है। यदि चन्द्रमा पर पापग्रहों का प्रभाव हो तो पागलपन, उन्माद की सम्भावना बढ जाती है।

      आष्लेशा नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न जातक आर्थिक रूप से सम्पन्न होता हैं। जीवन में धन सम्बन्धी समस्या कम ही रहती है।
      द्वितीय चरण में उत्पन्न जातक को आर्थिक हानि की सम्भावना अधिक रहती है। ऐसे जातकों को किसी प्रकार की जोखिम नहीं उठानी चाहिये। षेयर बाजार, लाॅटरी या अन्य में निवेष करते समय किसी विद्वान ज्योतिशी द्वारा परामर्ष अवष्य लें अन्यथा धन डूबने की आषंका बनती है।

      आष्लेशा के तृतीय चरण में उत्पन्न जातक माता के लिये कश्टकारी होता है। जातक के जन्म के पष्चात् माता का स्वास्थ्य कमजोर बना रहता है।

     चतुर्थ चरण में उत्पन्न जातक पिता के लिये कश्टकारक होते हैं। इसके कारण पिता को जीवन में अनेक परेषानियां उठानी पडती हैं।

      आष्लेशा नक्षत्र की औसत मान 60 घडी के अनुसार किस घडी में जन्म होने पर किस फल की सम्भावना अधिक रहती है, इसका विचार किया गया है। आष्लेशा नक्षत्र के प्रथम पांच घडी में जन्म होने पर उसे उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है। यहाँ एक घडी या घटी का मान 24 मिनट का समझें। छः से बारह घटी में जन्म होने पर पिता को कश्ट, तेरह से चैदह में मातृ कश्ट, पन्द्रह से सत्रह में जन्म होने पर धूर्त व लम्पट, अठटारह से इक्कीस घटी में जन्म होने पर बलवान, तीस से चालीस घटी में जन्म होने पर आत्महत्या करने वाला, इकतालिस से छियालिस घटी में जन्म होने पर बिना किसी प्रयोजन के भागदौड करने वाला, सैतालिस से पचपन में जन्म होने पर तपस्वी व अन्तिम पांच घटी में जन्म होने पर धननाषक होता है।

3 मघा:- मघा नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक की माता को कश्ट रहता है। जन्म के पष्चात् माता का स्वास्थ्य कमजोर रहता हैं।

       द्वितीय चरण में जन्म होने पर पिता को कश्ट रहता है। जातक के कारण उसके पिता को हर समय कुछ न कुछ परेषानी बनी रहती है।

      तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक का जीवन सुखमय व्यतीत होता है। जातक को जीवन में आवष्यकतानुसार धन प्राप्त होता रहता है।

      चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक को धन लाभ की सम्भावना अच्छी रहती है। ऐसा जातक उच्च षिक्षा प्राप्त करता है। अपनी बुद्धि एवं विद्या के कारण मान-सम्मान भी प्राप्त होता है।

4 ज्येश्ठा:- ज्येश्ठा नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के बडे भाई को कश्ट होता है।

       द्वितीय चरण में जन्म होने पर छोटे भाई को कश्ट होता है।

       ज्येश्ठ नक्षत्र के तृतीय चरण में जन्म होने पर माता को एवं चतुर्थ चरण में जन्म होने पर स्वयं को कश्ट होता है।

        यदि रविवार या बुधवार के दिन पडने वाले ज्येश्ठा नक्षत्र को जन्म हो तो कश्ट की सम्भावना कम हो जाती है।

5 मूल:- मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के पिता को कश्ट होता है। कन्या जातक को चैपाये जानवरों, किसी वाहन से दुर्घटना की सम्भावना रहती है।

         द्वितीय चरण में जातक की माता को कश्ट रहता है। कन्या का जन्म होने पर वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती है।

       तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक को आर्थिक रूप से परेषानी उठानी पडती है। कन्या का जन्म होने पर वह पिता के लिये कश्टकारी होती है।

        चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक सुखी रहता है लेकिन कन्या का जन्म हो तो माता के लिये कश्टकारक हेाती है। चतुर्थ चरण में उत्पन्न जातक या जातिका अपने ससुर के लिये कश्टकारक होती हैं।
     
  मूल नक्षत्र में उत्पन्न बालक एवं कन्या का घटी अनुसार षुभाषुभ

प्रथम 5 घटी 5 घटी 8 घटी 8 घटी 2 घटी 8 घटी 2 घटी 10 घटी 6 घटी 6 घटी
राज्य प्राप्ति पितृ कश्ट धन हानि कामचोर घात राज्य लाभ अल्पायु सुख व्यर्थ भ्रमण अल्पायु

6  रेवती नक्षत्र:- रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर राज्य की तरफ से मान-सम्मान एवं धन-लाभ की प्राप्ति, द्वितीय चरण जन्म होने पर राजकीय सेवा , सुख-षांति, तृतीय चरण में जन्म होने पर धन लाभ, सुख-षांति एवं चतुर्थ चरण में जन्म होने पर अत्यन्त कश्टमय जीवन व्यतीत होता है।

    रेवती नक्षत्र यदि बुधवार या रविवार के दिन पडे एवं उस दिन जन्म हो तो गण्डदोश कम हो जाता है। गण्ड नक्षत्रों में जन्म होने पर कब दोश का प्रभाव रहता है। इसके बारे मे आप इस प्रकार जान सकते हैं:-

1 अष्विनी नक्षत्र रविवार के दिन पडे एवं ज्येश्ठा व रेवती षनिवार या बुधवार को पडे तो गण्डदोश कम होता है।

2 गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा का लग्नेष या षुभग्रह से सम्बन्ध हो।

3 गण्ड नक्षत्र होने पर चन्द्रमा किसी षुभ भाव में हो।

 गण्ड नक्षत्र की षांति सूतक समाप्त होने पर करें।
यदि उस समय सम्भव न हो तो पुनः जब नक्षत्र आये तब षांति करें।
इसके अतिरिक्त जब सम्भव हो तब षीघ्र ही षांति कर लेनी चाहिये अन्यथा विवाह से पूर्व षांति अवष्य करें।
       जिस गण्ड नक्षत्र में जन्म हो उसके स्वामी ग्रह के मंत्र का जाप करना गण्डदोश षांति में सहायक होता है। बुध एवं केतु के नक्षत्र में जन्म लेने पर गण्डदोश बनता है। इसलिये जीवन में गण्डमूल प्रभाव कम हो, इसके निवारणार्थ गणपति उपासना करनी चाहिये। जातक स्वयं बुध एवं केतु के मंत्रों का जाप कर सकता हैं। इसकी विषिश्ट षांति हेतु किसी कर्मकाण्डी से परामर्ष कर सकते हैं। ब्राह्मण भोजन, गाय का दान, वस्त्र दान आदि जन्म नक्षत्र वाले दिन अपनी सामथ्र्य अनुसार करने पर भी गण्ड प्रभाव कम होता हैं।
                                                                                     ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                     मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                     जिला- सिरोही (राज.) 307512
मो. 9001742766
                                 

 

कहाँ हैं द्वादश ज्योतिर्लिंग?

 
(ज्योतिषाचार्य वागाराम परिहार)
भगवान शंकर के भक्तों के लिये उनके द्वादशज्योतिर्लिंगों का दशर्न मोक्ष प्राप्ति से कम नहीं है। इन द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन का अर्थ है, भगवान् शिव के सभी विशिष्ट रूपों का दर्शन। भगवान् शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों के मन्दिरोें को लेकर जनमानस में ही नहीं, वरन् पुराणों में भी मतभेद हैं। कई ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों के रूप में जाने जाते है, लेकिन वास्तव में कौनसे ज्योतिर्लिंग ही भगवान् शिव के वास्तविक द्वादश ज्ष्योतिर्लिंग है और वे कहाँ स्थिति है, यह बताना ही इस लेख का प्रमुख उद्देश्य है। द्वादश ज्ष्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में निम्नलिखित स्तोत्र प्रसिद्ध है:
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोक्ङारममलेश्वरम्।।
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशक्ङरम्।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारूकावने।
सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं च शिवालये।।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरूत्थाय यः पठेत्।
सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वसिद्धिफलों भवेत्।।
इस आधार पर सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल, मल्लिकार्जुन, उज्जैन के श्रीमहाकालेश्वर, श्रीओंकारेश्वर और श्रीअमलेश्वर या श्रीममलेश्वर, हिमालय में श्रीकेदारनाथ, डाकिनी प्रदेश के श्रीभीमशंकर, वाराणसी के श्रीविश्वनाथ, गौतमीतट पर श्रीत्र्यम्बकनाथ, श्रीवैद्यनाथ, श्रीनागेश्वर, सेतुबन्ध के श्रीरामेश्वरम् और श्रीघुश्मेश्वर ज्योतिर्लिगों में सम्मिलित हैं।
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सोमवार, 22 जुलाई 2013

श्रावण मास के सोमवार व्रत

श्रावण मास में भगवान शिवशंकर की पूजा अर्चना का बहुत अधिक महत्व है। भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए श्रावण मास में भक्त लोग उनका अनेकों प्रकार से पूजन अभिषेक करते हैं। भगवान भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होने वाले देव हैं। वह प्रसन्न होकर भक्तों की इच्छा पूर्ण करते हैं।

श्रावण मास में पूजा करने से सभी देवताओं की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। इसमें कोई शंका नही हैं। श्रावण मासारंभ से मासांत तक शिव के दर्शन हेतु श्रद्धालु शिवालय अवश्य जाते है। श्रद्धालुओं में भक्ति भावना भी इसी मास में विशेष जागृत होती हैं। इस शिव पूजन के साथ.साथ उनकी कथा अर्थात् शिव पुराण का भी श्रवण करना चहिए। कई श्रद्धालु इस मास में व्रत रखते है उन्हें व्रत के साथ.साथ अपनी वाणी पर संयमए ब्रह्मचर्य का पालनए सत्य वचन एवं अनैतिक कार्यो से दूर रहना चाहिए। धर्मएकर्म एवं दान के प्रति भी लोगों का विशेष रूझान देख जा सकता हैं।

बारह मासों का नामाकरण शुक्ल पूर्णिमा के दिन चंद्र की नक्षत्रगत स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है। श्रावण मास का नामकरण भी श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में चंद्र की स्थिति के कारण किया गया है। श्रवण नक्षत्र का स्वामी चंद्र है। वारों में में सोमवार भी इसी आधार पर शिवपूजन हेतु उपयुक्त माना है। श्रद्धालु पूरे मास नही ंतो सोमवार के दिन शिवालय इसी आस्था के कारण जाता है। सावन मास में रूद्राभिषेक करनाए रूद्राक्ष माला धारण करना एवं ओम नमः शिवाय का जाप करना अत्यन्त लाभकारी बनता है। इस मास में सोमवार व्रत तो अधिकांशतया करते है लेकिन अन्य वारों का व्रत भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

इस मास के रविवार का व्रत सूर्य व्रतए सोमवार का रोटकए मंगल का मंगलागौरीए बुधवार का बुध व्रतए गुरूवार का बृहण् व्रतए शुक्रवार का जींवतिका व्रत व शनिवार का व्रत हनुमान व्रत कहलाता है। इस प्रकार मास के प्रत्येक वार का व्रत अत्यन्त शुभदायक बनता है। इस मास में स्त्रियां तिथि एवं वारानुसार अलग.अलग व्रत रखती है एवं मासांत में रक्षाबंधन के दिन स्त्रियां अपने भाई को रक्षासुत्र बांधकर अपने जीवन की रक्षा हेतु वचन भी प्राप्त करती हैं। प्रत्येक तिथि के व्रत अनुसार तिथि विशेष के देवता का पूजन भी किया जाता है।
श्रावण मास के समस्त सोमवारों के दिन व्रत लेने से पूरे साल भर के सोमवार व्रत का पुण्य मिलता है। सोमवार के व्रत के दिन प्रातः काल ही स्नान ध्यान के उपरांत मंदिर श्री गणेश जी की पूजा के साथ शिव पार्वती और नंदी बैल की पूजा की जाती है। इस दिन प्रसाद के रूप में जल, दूध, दही, शहद, घी,चीनी बनाकर भगवान का पूजन किया जाता है।

रात्रिकाल में घी और कपूर सहित धूप की आरती करके शिव महिमा का गुणगान किया जाता है। लगभग श्रावण मास के सभी सोमवारों को यही प्रक्रिया अपनाई जाती है।

सुहागन स्त्रियों को इस दिन व्रत रखने से अखंड सौभाग्य ऐवम पति पुत्र का सुख मिलता है। विद्यार्थियों को सोमवार का व्रत रखने से और शिव मंदिर में जलाभिषेक करने से विद्या और बुद्धि की प्राप्ति होती हैएपरीक्षा परिणाम अछा रहता है। बेरोजगार और अकर्मण्य जातकों को रोजगार मिलने से मान प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है।
सदगृहस्थ नौकरी पेशा या व्यापारी को श्रावण के सोमवार व्रत करने से धन धान्य और लक्ष्मी की वृद्धि होती है। प्रौढ़ तथा वृद्ध जातक अगर सोमवार का व्रत रख सकते हैं तो उन्हें इस लोक और परलोक में सुख सुविधा और आराम मिलता है। सोमवार के व्रत के दिन गंगाजल से स्नान करना और देवालय तथा शिव मंदिर में जल चढ़ाना आज भी उत्तर भारत में कांवड़ परंपरा का सूत्रपात करती हैं।
अविवाहित महिलाएं अनुकूल वर के लिए श्रावण के सोमवार का व्रत धारण कर सकती हैं। सुहागन महिला अपने पति एवं पुत्र की रक्षा के लिएए कुंवारी कन्या इच्छित वर प्राप्ति के लिए एवं अपने भाईए पिता की उन्नति के लिए पूरी श्रद्धा के साथ व्रत धारण करती हैं। श्रावण व्रत कुल वृद्धि के लिएए लक्ष्मी प्राप्ति के लिएए सम्मान के लिए भी किया जाता है।

इस व्रत में माता पार्वती और शिवजी का पूजन किया जाता है। शिवजी की पूजाण्अराधना में गंगाजल से स्नान और भस्म अर्पण का विशेष महत्त्व है। पूजा में धतूरे के फूलोंए बेलपत्रए धतूरे के फलए सफेद चन्दनए भस्म आदि का प्रयोग अनिवार्य है।

सुबह स्नान कर सफेद वस्त्र धारण कर काम क्रोध आदि का त्याग करें। सुगंधित श्वेत पुष्प लाकर भगवान का पूजन करें। नैवेद्य में अभिष्ट अन्न के बने हुए पदार्थ अर्पण करें।

निम्न मंत्र से संकल्प लें.
   मम क्षेमस्थैर्यविजयारोग्यैश्वर्याभिवृद्धयर्थं सोमव्रतं करिष्येश्

शिव का ध्यान मंत्र .
श्ध्यायेन्नित्यंमहेशं रजतगिरिनिभं चारुचंद्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलांग परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्‌।
पद्मासीनं समंतात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्ववंद्यं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्‌॥
इन मंत्रो से पूजा व हवन करें। ऐसा करने से सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं।

1 ऊँ नमः शिवाय
2  ओम नमो दशभुजाय त्रिनेत्राय पन्चवदनाय शूलिने। श्वेतवृषभारुढ़ाय सर्वाभरणभूषिताय। उमादेहार्धस्थाय नमस्ते सर्वमूर्तयेनमः 





रविवार, 21 जुलाई 2013

शिव को प्रिय है श्रावण मास


                                       (ज्योतिषाचार्य वागाराम परिहार)
         श्रावण मास में पूजा करने से सभी देवताओं की पूजा का फल प्राप्त हो जाता है। इसमें कोई शंका नही हैं। श्रावण मासारंभ से मासांत तक शिव के दर्शन हेतु श्रद्धालु शिवालय अवश्य जाते है। श्रद्धालुओं में भक्ति भावना भी इसी मास में विशेष जागृत होती हैं। इस शिव पूजन के साथ-साथ उनकी कथा अर्थात् शिव पुराण का भी श्रवण करना चहिए। कई श्रद्धालु इस मास में व्रत रखते है उन्हें व्रत के साथ-साथ अपनी वाणी पर संयम, ब्रह्मचर्य का पालन, सत्य वचन एवं अनैतिक कार्यो से दूर रहना चाहिए। धर्म,कर्म एवं दान के प्रति भी लोगों का विशेष रूझान देख जा सकता हैं।
           बारह मासों का नामाकरण शुक्ल पूर्णिमा के दिन चंद्र की नक्षत्रगत स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है। श्रावण मास का नामकरण भी श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र में चंद्र की स्थिति के कारण किया गया है। श्रवण नक्षत्र का स्वामी चंद्र है। वारों में में सोमवार भी इसी आधार पर शिवपूजन हेतु उपयुक्त माना है। श्रद्धालु पूरे मास नही ंतो सोमवार के दिन शिवालय इसी आस्था के कारण जाता है। सावन मास में रूद्राभिषेक करना, रूद्राक्ष माला धारण करना एवं ओम नमः शिवाय का जाप करना अत्यन्त लाभकारी बनता है। इस मास में सोमवार व्रत तो अधिकांशतया करते है लेकिन अन्य वारों का व्रत भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस मास के रविवार का व्रत सूर्य व्रत, सोमवार का रोटक, मंगल का मंगलागौरी, बुधवार का बुध व्रत, गुरूवार का बृह. व्रत, शुक्रवार का जींवतिका व्रत व शनिवार का व्रत हनुमान व्रत कहलाता है। इस प्रकार मास के प्रत्येक वार का व्रत अत्यन्त शुभदायक बनता है। इस मास में स्त्रियां तिथि एवं वारानुसार अलग-अलग व्रत रखती है एवं मासांत में रक्षाबंधन के दिन स्त्रियां अपने भाई को रक्षासुत्र बांधकर अपने जीवन की रक्षा हेतु वचन भी प्राप्त करती हैं। प्रत्येक तिथि के व्रत अनुसार तिथि विशेष के देवता का पूजन भी किया जाता है।
           भगवान शंकर की विभिन्न फूलों से पूजन करने का भी भिन्न फल मिलता है। शिव पर कुछ पुष्प नहीं चढाने का निर्देश है-
           बन्धुकं केतकीं कुन्दं केसरं कुटजं जयाम्।
           शंकरे नार्पयेद्विद्वान्मालतीं युधिकामपि।।
       अर्थात् शंकर पर बन्धुकं, केतकी, कुन्द,मौलसरी, कोरैया, जयपर्ण, मालती तथा जुही ये पुष्प शंकर पर नहीं चढाए जाते हैं। बेलपत्र, शतपत्र एवं कमलपत्र से पूजन करने से लक्ष्मी कृपा, आक का पुष्प चढानें से मान-सम्मान में वृद्धि होती है। धतुरे के पुष्प चढाने से विष भय एवं ज्वर भय मिटता है कहा भी है-
’’ आक धतुरा चबात फिरे, विष खात शिव तेरे भरोसे। ‘‘  जवा पुष्प से सावन मास में शिव का पूजन करने से शत्रु का नाश होता है तो गंगा जल से अभिषेक करना मोक्ष प्रदाता माना गया है। साधारण जल से अभिषेक भी वर्षा की प्राप्ति करवाता है। दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करने से आत्मा को सुकुन मिलता है एवं संतान सुख प्राप्त होता है। तो लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने हेतु गन्ने के रस से या गुड मिश्रित जल अभिषेक करना शुभ माना जाता है। मधु या घी या दही से अभिषेक करने पर भी आर्थिक स्थिति मजबूत बनती है। रोगों से ग्रसित जातकों हेतु विशेष रूप से शुक्र से पीडित जातकों हेतु केवल दुध को अर्पित करना चाहिए। सूर्य एवं चंद्र कृत रोगों से मुक्ति हेतु शहद अर्पित करना विशेष विशेष लाभदायक है तो मंगल कृत रोगों से बचाव हेतु गुड मिले जल से अभिषेक करना चाहिए। बृहस्पति की कृपा हेतु हल्दी मिश्रित या दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करना उतम लाभ की प्राप्ति करता है। आप भी जिस ग्रह की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं। उसी ग्रह के अनुसार पूजन सावन मास में अवश्य करें। किसी कामना विशेष हेतु भी आप किसी विशेष प्रयोग को सावन मास में कर शिव कृपा प्राप्त कर सकते है।
         शिव रूद्री के पाठ का संकल्प लेकर शिवलिंग को पंचामृत से स्नान कराकर  ’’ ओम नमः शिवाय ‘‘ का जाप करना चाहिए। शिव रूद्री का एक पाठ करने से बाल ग्रहों की शांति होती है। तीन पाठ से उपद्रवों का शमन, पांच रूद्री पाठ से नवग्रह शांति, सात से अनिष्ट की आशंक, अनावश्यक भय नहीं रहता । नौ रूद्री पाठ करने से सर्व शांति एवं ग्यारह रूद्री पाठ से उच्चाधिकारियों के अनुकूल प्रभाव रहते हैं अर्थात् उनका वशीकरण होता है। नौ रूद्रों से एक महारूद्र तुल्य फल की प्राप्ति होती है। एक महारूद्र से जीवन में शांति, राज्य कृपा, लोगोें का मित्रवत व्यवहार , स्वास्थ्य रक्षा एवं चारों पुरूषार्थो की प्राप्ति होती है। तीन महारूद्र करने से आपकी कोई भी एक मनोकामना भगवान शिव अवश्य पूर्ण करते है। बार-बार कठिन परिश्रम करने के उपरान्त भी यदि प्रतियोगिता में सफलता नहीं मिल रहीं,सरकारी नौकरी की आस छुटती हुई दिखे तो पांच महारूद्र इस सावन मास में किसी विद्वान कर्मकाण्डी से कराए या स्वयं करे आपको शिव शंकर सफलता का द्वार अवश्य दिखाएगें। यदि आप किसी भी प्रकार की आधि-व्याधि से पीडित है तो सावन मास में नौ महारूद्र करना आपके ग्रह दोषों को शांत कर रोगों से मुक्ति की राह अवश्य दिखाएगें। शिव भक्तों एवं श्रद्धालुओं को अवश्य ही सावन मास का लाभ उठाना चाहिए। श्रावण मासांत  पूर्णिमा को उपनयन करना भी अति श्रेष्ठ माना गया है। उसी अवस्था में उपनयन का निषेध बताया गया है जब बृहस्पति या शुक्र अस्त हो। इसके अलावा पूर्णिमा में सभी वेदपाणी उपनयन कर सकते है।यदि आपकी भी कोई कामना है तो भोले के दरबार में आप भी सावन मास में दस्तक अवश्य दे। आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेगें।
                                ।। इति।।

                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                      मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                      जिला- सिरोही (राज.) 307512
मो. 9001742766
                                 


आपकी राशि, नक्षत्र और रोगोपचार



          भारतीय ज्योतिश में राशि एवं नक्षत्र का अपना विेेशेष महत्त्व है। किसी राशि एवं नक्षत्र के आधार पर रोगों का वर्णन प्राचीन आचार्यो ने किया है। बारह राशियों अर्थात् सत्ताईष नक्षत्रों को अंगों में स्थापित करने पर मानव शरीर की आकृति बनती है। नवग्रहों में चन्द्र सर्वाधिक गतिशिल ग्रह है, इसलिये इसका मानव शरीर पर भी सर्वाधिक प्रभाव मान सकते हैं। हमारे षरीर का लगभग 70 प्रतिषत भाग जल है। ज्योतिश में जल का स्वामी चन्द्र को ही माना है, इसलिये भारतीय ज्योतिश में चन्द्र को महत्वपूर्ण स्थान देकर उसका जन्म समय जिस राषि या नक्षत्र में गोचर होता है, वही हमारी जन्मराषि या जन्म नक्षत्र माना जाता है। इस राषि या नक्षत्र के आधार पर जातक को कौन रोग हो सकता है एवं इस रोग से बचाव का सुलभ उपाय क्या होगा, इसकी जानकारी इस अध्याय में दी जा रही है। नक्षत्र के आराध्य अथवा उसके प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करके भी रोग का प्रकोप कम किया जा सकता है:-
      1 अष्विनी:- वराह ने अष्विनी नक्ष्त्र का घुटने पर अधिकार माना है।  इसके पीडित होने पर बुखार भी   रहता है। यदि आपको घुटने से सम्बन्धित पीडा हो, बुखार आ रहा हो तो आप अपामार्ग की जड धारण करें। इससे आपको रोग की पीडा कम होगी।
      2   भरणी:- भरणी नक्षत्र का अधिकार सिर पर माना गया है। इसके पीडित होने पर पेचिष रोग होता        है। इस प्रकार की पीडा पर अगस्त्य की जड धारण करें।
3 कृतिका:- कृतिका नक्षत्र का अधिकार कमर पर है। इसके पीडित होने पर कब्ज एवं अपच की समस्या होती है। आपका जन्म नक्षत्र यदि कृतिका हो तथा कमर दर्द, कब्ज, अपच की षिकायत हो तो कपास की जड धारण करें।
4 रोहिणी:- रोहिणी नक्षत्र का अधिकार टांगों पर होता है। इसके पीडित होने पर सिरदर्द, प्रलाप, बवासीर जैसे रोग होते है। इस प्रकार की पीडा होने पर अपामार्ग या आंवले की जड धारण करें।
5 मृगषिरा:- मृगषिरा नक्षत्र का अधिकार आँखों पर है। इसके पीडित होने पर रक्त विकार, अपच,एलर्जी जैसे रोग होते है। ऐसी स्थिति में खैर की जड धारण करें।
6 आद्र्रा:- आद्र्रा नक्षत्र का अधिकार बालों पर है। इसके पीडित होने पर मंदाग्नि, वायु विकार तथा आकस्मिक रोग होते हैं। इससे प्रभावित जातकों को ष्यामा तुलसी या पीपल की जड धारण करनी चाहिये।
7 पुनर्वसु:- पुनर्वसु नक्षत्र का अधिकार अंगुलियों पर है। इसके पीडित होने पर हैंजा, सिरदर्द, यकृत रोग होते है। इन जातकों को आक की जड धारण करनी चाहिये। ष्वेतार्क जडी मिले तो सर्वोत्तम हैं।
8 पुश्य:- पुश्य नक्षत्र का अधिकार मुख पर है। स्वादहीनता, उन्माद, ज्वर इसके कारण होते है। इनसे पीडित जातकों को कुषा अथवा बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।
9 आष्लेशा:- आष्लेशा नक्षत्र का अधिकार नाखून पर है। इसके कारण रक्ताल्पता एवं चर्म रोग होते है। इनसे पीडित जातको को पटोल की जड धारण करनी चाहिये।
10 मघा:- मघा नक्षत्र का अधिकार वाणी पर है। वाणी सम्बन्धित दोश, दमा आदि होने पर जातक भृगराज या वट वृक्ष की जड धारण करें।
11 पूर्वाफाल्गुनी:- पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुप्तांग पर है। गुप्त रोग, आँतों में सूजन, कब्ज, षरीर दर्द होने पर कटेली की जड धारण करें।
12 उत्तराफाल्गुनी:- उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का अधिकार गुदा, लिंग, गर्भाषय पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित रोग मधुमेह होने पर पटोल जड धारण करें।
13 हस्त:- हस्त नक्षत्र का अधिकार हाथ पर होता है। हाथ में पीडा होने या षरीर में जलदोश अर्थात् जल की कमी, अतिसार होने पर चमेली या जावित्री मूल धारण करें।
14 चित्रा:- चित्रा नक्षत्र का अधिकार माथे पर होता है। सिर सम्बन्धित पीडा, गुर्दे में विकार, दुर्घटना होने पर अनंतमूल या बेल धारण करें।
15 स्वाति:- स्वाति नक्षत्र का अधिकार दाँतों पर है, इसलिये दंत रोग, नेत्र पीडा तथा दीर्घकालीन रोग होने पर अर्जुन  मूल धारण करें।
16 विषाखा:- विषाखा नक्षत्र का अधिकार भुजा पर है। भुजा में विकार, कर्ण पीडा, एपेण्डिसाइटिस होने पर गुंजा मूल धारण करें।
17 अनुराधा:- अनुराधा नक्षत्र का अधिकार हृदय पर है। हृदय पीडा, नाक के रोग, षरीर दर्द होने पर नागकेषर की जड धारण करें।
18 ज्येश्ठा:- ज्येश्ठा नक्षत्र का अधिकार जीभ व दाँतों पर होता है। इसलिये इनसे सम्बन्धित पीडा होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।
19 मूल:- मूल नक्षत्र का अधिकार पैर पर है। इसलिये पैरों में पीडा, टी.बी. होने पर मदार की जड धारण करें।
20 पूर्वाशाढा:- पूर्वाशाढा नक्षत्र का अधिकार जांघ, कूल्हों पर होता है। जाँघ एवं कूल्हों में पीडा,  कार्टिलेज की समस्या, पथरी रोग होने पर कपास की जड धारण करें।
21 उतराशाढा:-उतराशाढा नक्षत्र का अधिकार भी जाँघ एवं कूल्हो पर माना है। हड्डी में दर्द, फे्रक्चर होने, वमन आदि होने पर कपास या कटहल की जड धारण करें।
22 श्रवण:- श्रवण नक्षत्र का अधिकार कान पर होता है। इसलिये कर्ण रोग, स्वादहीनता होने पर अपामार्ग की जड धारण करें।
23 धनिश्ठा:- धनिश्ठा नक्षत्र का अधिकार कमर तथा रीढ की हड्डी पर होता है। कमर दर्द, गठिया आदि होने पर भृंगराज की जड धारण करें।
24 षतभिशा:- षतभिशा नक्षत्र का अधिकार ठोडी पर होता है। पित्ताधिक्य, गठिया रोग होने पर कलंब की जड धारण करें।
25 पूर्वाभाद्रपद:- पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार छाती, फेफडों पर होता हैं। ष्वास सम्बन्धी रोग होने पर आम की जड धारण करें।
26 उतराभाद्रपद:- उतराभाद्रपद नक्षत्र का अधिकार अस्थि पिंजर पर होता है। हांफने की समस्या होने पर पीपल की जड धारण करें।
27 रेवती:- रेवती नक्षत्र का अधिकार बगल पर होता है। बगल में फोडे-फुंसी या अन्य विकार होने पर महुवे की जड धारण करें।
          जब किसी भी प्रकार की स्वास्थ्य पीडा हो तो आपको अपने जन्म नक्षत्र के प्रतिनिधि वृक्ष की जडी धारण करनी चाहिये। यदि आपको अपना जन्म नक्षत्र पता नहीं है तो आपको किस प्रकार की स्वास्थ्य पीडा है तथा वह षरीर के किस अंग से सम्बन्धित है अथवा वह रोग किसके अन्तर्गत आ रहा है, उससे सम्बन्धित वृक्ष की जडी ऊपर बताये अनुसार धारण करें तो आपको अवष्य अनुकूल फल की प्राप्ति होगी।
      आपकी राषि के अनुसार जडी धारण करके भी रोग के प्रकोप को कम कर सकते हैं। आप अपनी राषि अपने नाम के प्रथम अक्षर से जान सकते हैं। इस आधार पर:-
मेश राषि वालों को पित्त विकार, खाज-खुजली, दुर्घटना, मूत्रकृच्छ की समस्या होती है। मेश राषि का स्वामी ग्रह मंगल है। इन्हें अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये।
व्ृाष्चिक राषि वालों को भी उपरोक्त रोगों की ही समस्या होती हैं। इन्हें भी अनंतमूल की जड धारण करनी चाहिये
व्ृाशभ एवं तुला राषि वालों को गुप्त रोग, धातु रोग, षोथ आदि होते हैं। यदि आपकी राषि वृशभ अथवा तुला हो तो आपको सरपोंखा की जड धारण करनी चाहिये।
मिथुन एवं कन्या राषि वालों को चर्म विकार, इंसुलिन की कमी, भ्रांति, स्मुति ह्नास, निमोनिया, त्रिदोश ज्वर होता है। इन्हें विधारा की जड धारण करनी चाहिये।
कर्क राषि वालों को सर्दी-जुकाम, जलोदर, निद्रा, टी.बी. आदि होते हैं। इन्हें खिरनी की जड धारण करनी चाहिये।
सिंह राषि वालों को उदर रोग, हृदय रोग, ज्वर, पित्त सम्बन्धित विकार होते हैं। इन्हें अर्क मूल धारण करनी चाहिये। बेल की जड भी धारण कर सकते हैं।
धनु एवं मीन राषि वालों को अस्थमा, एपेण्डिसाइटिस, यकृत रोग, स्थूलता आदि रोग होते हैं। इन्हें केले की जड धारण करनी चाहिये।
मकर एवं कुंभ राषि वालों को वायु विकार, आंत्र वक्रता, पक्षाघात, दुर्बलता आदि रोग होते हैं। इन्हें बिछुआ की जड धारण करनी चाहिये।
  चन्द्र का कारकत्व जल हैं। इसलिये चन्द्र निर्बल होने पर जल चिकित्सा लाभप्रद सिद्ध होती हैं। हमारे षरीर में लगभग 70 प्रतिषत जल होता है। इसलिये षरीर की अधिकांष क्रियाओं में जल की सहभागिता होती है। जल चिकित्सा से जो वास्तविक रोग है, उसका उपचार तो होता ही है इसके साथ अन्य अंगों की षुद्धि भी होती है। इस कारण षरीर में भविश्य में रोग होने की सम्भावना भी कम होती है। जल एक अच्छा विलायक है। इसमें विभिन्न तत्त्व एवं पदार्थ आसानी से घुल जाते हैं जिससे रोग का उपचार आसानी से हो जाता है। जल चिकित्सा में वाश्प् स्नान, वमन,एनीमा, गीली पट्टी, तैरना, उशाःपान एवं अनेक प्रकार की चिकित्सायें हैं। दैनिक क्रियाओं में भी हम जल का उपयोग करते रहते हैं। लेकिन जब चन्द्र कमजोर एवं पीडित होकर उसकी दषा आये तभी जल के अनुपात में षारीरिक असंतुलन बनता है। हमारे षरीर में स्थित गुर्दे जल तत्त्वों का षुद्धिकरण करते हैं। जल की अधिकता होने पर पसीने के रूप में जल बाहर निकलता है जिससे षरीर का तापमान कम हो जाता है। इसलिये जल सेवन अधिक करने पर जोर दिया जाता है ताकि षरीर स्वस्थ रहे अर्थात् चन्द्र की कमजोरी स्वास्थ्य में बाधक न बने। इस प्रकार हमारे लिये चन्द्र महत्त्वपूर्ण ग्रह बन जाता है।            
                                                                                     ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                     मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                     जिला- सिरोही (राज.) 307512
मो. 9001742766
                                   

शनिवार, 20 जुलाई 2013

आखिर कैसे ज्ञात होता है राष्ट्रों का भविष्य


सम्पूर्ण भुमण्डल के बारे में भविष्य की जानकारी प्राप्त कराने वाली विद्या को मेदिनीय ज्योतिस कहते है। यह संहिता के अन्तर्गत आता है। ब्रह्यगुप्त, भट्टोत्पल, गर्ग, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर आदि विद्वोनो ने अपने ग्रन्थों में संहिता का वर्णन किया है। देश कि प्रभावी राशि के अनुसार ही पंचांगों में उस देश का भविष्य कथन होता है। हमारे देश की राशि कुछ विद्वान मकर मानते हैं तो कुछ कन्या। कुर्म चक्र में विश्व का जो भाग जिस नक्षत्र में पडे उसके अनुसार ही उस क्षेत्र की राशि तय की जाती हैं कूर्म चक्र में हमारा देश दक्षिण दिशा के कुक्षि नक्षत्रों में पडने से राशि कन्या मानी जाती हैं लेकिन हमारे देश की अधिकांश विशेषताएं मकर राशि स्वामी शनि के अनुकूल पडने से मकर राशि ही उपयुक्त हैं। राशि विभिन्नता की स्थिति में विभिन्न चक्रों एवं नामाक्षर से राशि निर्णय कर फलादेश करने में फल कथन सटीक रहता है। जैसे किसी व्यक्ति की कुण्डली के बाहर भाव उसके जीवन के विविध पक्षों का प्रतिनिधित्व करते हैं, वैसे ही किसी देश के विविध पक्षों का प्रभार भी कुण्डली के बाहर भावों में से प्रत्येक को दिया गया हैं। नीचे दी गई कुण्डली में भावों के प्रमुख प्रभार दिये गये हैं

विभिन्न क्षेत्रों का शुभाशुभ जानने हेतु आकाशीय सभा मे प्रतिवर्ष ग्रहो को पद दिए जाते है। इन पदो के स्वामी ग्रह का शुभ होना शभता का प्रतीक तो उनका अशुभ होना कार्य की अशुभता का प्रतीक है।

राजा- चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को जिस ग्रह का वार हो, उस ग्रह को उस वर्ष विशेष का राजा माना जाता है। वह ग्रह प्रधानमंत्री या राष्टपति की हैसियल से प्रभाव डालता है। शुभ ग्रह होने पर प्रजा मे शिष्टाचार, संतोष, कार्य व्यवसाय मे शुभता तथा अशुभ ग्रह होने पर भ्रष्टाचार, पाखण्ड, भुखमरी फैलती है।

मंत्री- मेष संक्रांति (सूर्य के मेष राशि मे प्रवेश ) के दिनो जो वार हो उसका स्वामी मंत्री होता है।

सस्येश- कर्क संक्रांति के दिन जो वार हो उसका स्वामी सस्येश होता है। इससे उस वर्ष की फसल का विचार किया जाता है।

मेघेश-सूय के आर्द्रा नक्षत्र मे प्रवेश (20 जुन के आस-पास) के समय जो वार हो वह मेघेष कहलाता है। यदि जलीय ग्रह आए तो वर्षा की अधिकता, सम से समान, निर्जन ग्रह से अल्प वृष्टि होती है। सूर्य के आर्द्रा मे प्रवेश कालीन समय कुण्ड़ली मे यदि केद्र मे जलीय ग्रह हो तो वर्षा अच्छी होती है। व निर्जल ग्रह से सुखा पडता हैं चन्द्र व शुक्र जलीय ग्रह तथा कर्क, मकर व मीन जलीय राशि है। वृष, धनु व कंुभ अर्धजल राशि हैं। सूर्य, मंगल व शनि निर्जल ग्रह, बुध व गुरू सम ग्रह हैं।

दुगेंश- सिंह सक्रांति के दिन वार का स्वामी दुगेंश होता है। जिससे देश की सुरक्षा का विचार करते है।

धनेश- कन्या सक्राति के दिन जो वार हो वह धनेश होता । इससे आर्थिक स्थिति का विचार करतेे है।

रसेश- तुला संकं्राति के दिन जो वार हो उसका स्वामी रसेश होता है एवं उस ग्रह के अनुसार रस सम्बंधी वस्तुओ जैसे गन्ना, गुड़ आदि का विचार करते है।

धान्येश- धनु संक्रंाति के दिन जो वार हो उसका स्वामी ग्रह धान्येश होता है। धान्येश से शीतकालीन फसलो का विचार करते है। वृषभ राशि में सूर्य प्रवेश कालिन कुण्डली मे यदि केन्द्र मे शुभ ग्रह अधिक हों  तो शीतकालीन फसल अच्छी होती है व पापग्रहो के होने पर फसल कम होती है।

नीरसेश- मकर संकंाति के दिन जो वार हो उसे निरसेश  कहते है। वार के स्वामी ग्रह से धातु, खनिज आदि की जानकारी प्राप्त करते है।

फलेश- मीन सेक्रंाति के दिन जो वार हो उसका अधिपति ग्रह-फलेश होता है। इससे फल-फूल, सब्जी आदि का विचार करते है।
           द्वादश भावों के विचारणीय विषय
कुण्डली में भावों के मुख्य प्रभार इंगित किये गये हैं। विस्तार से सभी भावों का कारकत्व इस प्रकार हैं
(1)प्रथम स्थान- देश की आरोग्यता,स्वास्थ्य,प्रजा और सामान्य जनता,देश की सामान्य स्थिति,देश का राज-काज और आंतरिक व्यवस्था, देश की साधारण स्थिति, राष्ट्र की उन्नति, देश के नेताओं की सफलता।
(2)द्वितीय स्थान- देश की साम्पतिक स्थिति, देश के बैंक, पैसे का लेन-देन, व्यापार, कारोबार, सरकारी जमा, रेवेन्यू, सरकारी वसूली औंर कर का विचार, अन्य भण्डार।
(3)तृतीय स्थान- रेल विभाग, सडक यातायात, डाक औंर तार विभाग, स्टाक औंर शेयर, देश के ग्रंथकार, लेखक वर्ग, साहित्य, समाचार पत्र तथा पत्रिकाएँ, फसल को हानि पहुँचाने वाले टिडडी, चुहे आदि।
 (4)चतुर्थ स्थान- खेती, फसल, मौसम, खनिज, सार्वजनिक भवन, भुमि सम्बन्धी बातें, लोक निर्माण विभाग, जहाजरानी, विरोधी दल।
(5)पंचम स्थान- सर्कस, थियेटर, सिनेमा, गायन-वादन आदि सिखाने वाले विधालय, अन्य विधालय, विधाथी वर्ग, शिक्षा विभाग, देश के बालक, जन्म-मरण का हिसाब, शेयर मार्केट का आकलन।
(6)षष्ठ स्थान- अस्पताल, बीमारियाँ, छुत की बीमारी, जनता का स्वास्थ्य, सेना के शस्त्र, जल सेना, जंगी जहाज, साधारण मजदूर वर्ग, श्रम करने वाले लोग, राष्ट्रीय सेवा, कर्ज, विदेशी सहायता।
(7)सप्तम भाव- देश का पर-राष्ट्रीय सम्बन्ध, व्यापार, यु़़द्ध, शांति-भंग, सुलह, परराष्ट्रीय विवाद, विवाह औंर तलाक, राजनैतिक एवं पुलिस कार्रवाई, सामाजिक समरसता।
(8)अष्टम भाव- देश में होने वाली मृत्युदर, आत्महत्या, उच्च परिषदें, खतरा, आपदायें, कठिनाइयाँ, कर्ज,से मुक्ति।
(9)नवम भाव- न्याय की अदालतें, न्यायाधीश, धर्म उपदेशक, धर्म सम्बन्धी व्यवहार, विज्ञान, वैज्ञानिक शोध, समुद्री व्यापार, व्यापारिक शक्ति, देश की बौद्धिक प्रगति, हवाई यात्रा, विदेशी व्यापार, मंत्री, मंत्रिमंडल।
(10)दशम भाव- देश की सरकार, सतारूढ पक्ष, अधिकारी, राजपुरूष, मध्यम नेता, मान प्राप्त, देश की प्रतिष्ठा, संस्थायें, प्रजा, देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, रेवेन्यू, बैंक की स्थिति।
(11)एकादश भाव- संसद, विधान सभायें, बहस, कायदे-कानून, मित्रता, देश, सहायता।
(12 द्वादश भाव- जेल, अस्पताल, आश्रम, लोक उपयोगी संस्थायें, अपराधी, टैक्स की चोरी करने वाले, सरकार के विरूद्ध काम करने वाले, सरकार से कर्ज लेना, कर्ज की अदायगी।
    ग्रहो के प्रभाव क्षेत्र
 स्ंहिता या मेदिनी ज्योतिस मे भी आगामी घटनाओ के विश्लेषण की पद्धति लगभग वही है जो व्यक्तियो के विश्लेषण की पद्धति लगभग वही है जो व्यक्तियां के फल-कथन में प्रयुक्त होती है। नये वर्ष का प्रारम्भ मेष-संक्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रांति (सूर्य के मेष राशि में प्रवेश) तथा चैत्र शुल्क प्रतिपदा से मानकर दोनों की कुण्डली बनाई जाती है तथा उससे पूरे वर्ष की स्थिति का अनुमान लगाया जाता है। जिस देश के बारे में विचार हो उसकी राजधानी  अक्षांश, रेखांश तथा स्थानीय मध्यमान समय के अनुसार कुण्डली बनाई जाती है। घटनाओं के सटीक अनुमान के लिये सूर्य की कर्क तुला तथा मकर संक्रांति के समय की भी कूण्डलीयाँ बनाई जाती है। घटनाओं का अनुमान ग्रहों के गोचर से भी लगाया जाता है। जैसे भारत की राशि मकर है, तो लग्न में मकर राशि को स्थिति कर, उस समय की ग्रह-स्थिति को कुण्डली में दिखा कर भविष्य का आकलन किया जाता हैं।
यहाँ एक अन्तर है। मेदिनी ज्योतिष में राहु-केतु के प्रभाव का अध्ययन नहीं  किया जाता। इन दोनोेेेेेेें ग्रहों के स्थान पर यूरेनस तथा नेपच्यून के प्रभाव का पश्चिमी और भारत के ज्योतिस-विज्ञानी अध्ययन करते है। उक्त दोनों ग्रह पृथ्वी से काफी हैं तथा उनकी गति भी अत्यंत मंद है, अतः युरेसन (हर्शल)और नेपच्युन के स्थान पर संहिता (मेदिनी ज्योतिस) मे भी राहु-केतु के प्रभाव को ही ध्यान मे रखा जाना चाहिये। भास्करार्चाय, वरामिहिर, ब्रहागुप्त जैसे विद्वानो ेन राहु-केतु को ही मेदिनी ज्योतिस मे प्रभावोत्पादक माना है। फिर भी आधुनिक पद्धति के अनुसार सूर्य, चद्र आदि सात ग्रहों तथा हर्शल और नेपच्युन के कारकत्वों का उल्लेख यहाँ समीचीन होगा ।
सूर्य- देश के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री, अधिकारी, मंत्रीमण्डल, सत्तासीन, तथा विपक्षी दलों के अध्यक्ष, न्यायाधीश ।
चन्द्र- प्रजा, जन सामान्य और देश की स्त्रियाँ ।
मंगल- सेनाध्यक्ष, सभी सेनायंे, डाक्टर, सर्जन, युद्ध, युद्ध के प्रभारी अधिकारी, मारपीट, अग्रि प्रकोप और असंतोष ।
बुध- लेखक, देश के ग्रंथकार, ग्रथप्रकाशक, समाचार पत्रों के सम्पादक, राजदुत, बौद्धिक परिश्रम करने वाले और व्यापार ।
गुरू- वकील, न्यायाधीश, मजहब से जुडे लोग, बैंकों के प्रमुख, उद्योगपति, बडे व्यापारी ।
                                                                                       ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                      मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई                                    
                                                                                जिला- सिरोही (राज.) 307512            
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गण्डमूल नक्षत्र

 गण्डमूल नक्षत्र
अष्विनी, आष्लेशा, मघा, ज्येश्ठा, मूल व रेवती ये 6 नक्षत्र सम्पूर्ण मान के गण्डमूल नक्षत्र कहलाते हैं। इनमे जन्म होने पर अषुभ माना गया है। किस नक्षत्र के किस चरण में जन्म होने पर अषुभ फल किस रूप में प्राप्त होता हैं। इसकी जानकारी प्रस्तुत हैंः-
1 अष्विनी:- अष्विनी नक्षत्र का स्वामी केतु है। इसके प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के पिता को कश्ट की सम्भावना रहती है। जन्म के पष्चात् पिता को कुछ न कुछ चिन्ता अवष्य रहती है।
       द्वितीय चरण में जन्म होने पर सुख की प्राप्ति होती है। जातक को गण्डमूल दोश का प्रभाव नगण्य रहता है। 
      तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक को राज्य स्तर पर अच्छे पद की प्राप्ति होती है। जातक का जीवन सुखमय व्यतीत होता है।
       चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक को राजकीय मान-सम्मान की प्राप्ति होती रहती है। जीवन समृद्ध रहता है।
         अर्थात् अष्विनी के प्रथम चरण में उत्पन्न जातक को गण्ड का प्रभाव अधिक रहता है। विषेशतया अष्विनी नक्षत्र प्रारम्भ के अर्थात् प्रथम चरण के प्रथम 48 मिनिट का समय विषेश कश्टदायक माना गया है। अष्विनी नक्षत्र यदि रविवार के दिन पड रहा हो तो गण्ड देाश कम हो जाता है।
2 आष्लेशा:- आष्लेशा नक्षत्र में उत्पन्न जातक अपनी सास के लिये कश्टदायक होता है, विषेश रूप से जब प्रथम चरण में जन्म नहीं हो। इस नक्षत्र में उत्पन्न जातक मानसिक रूप से कमजोर रहते है। इनको व्यावहारिक ज्ञान का अभाव होता है। यदि चन्द्रमा पर पापग्रहों का प्रभाव हो तो पागलपन, उन्माद की सम्भावना बढ जाती है।
      आष्लेशा नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न जातक आर्थिक रूप से सम्पन्न होता हैं। जीवन में धन सम्बन्धी समस्या कम ही रहती है।
      द्वितीय चरण में उत्पन्न जातक को आर्थिक हानि की सम्भावना अधिक रहती है। ऐसे जातकों को किसी प्रकार की जोखिम नहीं उठानी चाहिये। षेयर बाजार, लाॅटरी या अन्य में निवेष करते समय किसी विद्वान ज्योतिशी द्वारा परामर्ष अवष्य लें अन्यथा धन डूबने की आषंका बनती है।
      आष्लेशा के तृतीय चरण में उत्पन्न जातक माता के लिये कश्टकारी होता है। जातक के जन्म के पष्चात् माता का स्वास्थ्य कमजोर बना रहता है।
     चतुर्थ चरण में उत्पन्न जातक पिता के लिये कश्टकारक होते हैं। इसके कारण पिता को जीवन में अनेक परेषानियां उठानी पडती हैं।
      आष्लेशा नक्षत्र की औसत मान 60 घडी के अनुसार किस घडी में जन्म होने पर किस फल की सम्भावना अधिक रहती है, इसका विचार किया गया है। आष्लेशा नक्षत्र के प्रथम पांच घडी में जन्म होने पर उसे उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है। यहाँ एक घडी या घटी का मान 24 मिनट का समझें। छः से बारह घटी में जन्म होने पर पिता को कश्ट, तेरह से चैदह में मातृ कश्ट, पन्द्रह से सत्रह में जन्म होने पर धूर्त व लम्पट, अठटारह से इक्कीस घटी में जन्म होने पर बलवान, तीस से चालीस घटी में जन्म होने पर आत्महत्या करने वाला, इकतालिस से छियालिस घटी में जन्म होने पर बिना किसी प्रयोजन के भागदौड करने वाला, सैतालिस से पचपन में जन्म होने पर तपस्वी व अन्तिम पांच घटी में जन्म होने पर धननाषक होता है।
3 मघा:- मघा नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक की माता को कश्ट रहता है। जन्म के पष्चात् माता का स्वास्थ्य कमजोर रहता हैं।
       द्वितीय चरण में जन्म होने पर पिता को कश्ट रहता है। जातक के कारण उसके पिता को हर समय कुछ न कुछ परेषानी बनी रहती है।
      तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक का जीवन सुखमय व्यतीत होता है। जातक को जीवन में आवष्यकतानुसार धन प्राप्त होता रहता है।
      चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक को धन लाभ की सम्भावना अच्छी रहती है। ऐसा जातक उच्च षिक्षा प्राप्त करता है। अपनी बुद्धि एवं विद्या के कारण मान-सम्मान भी प्राप्त होता है।
4 ज्येश्ठा:- ज्येश्ठा नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के बडे भाई को कश्ट होता है।
       द्वितीय चरण में जन्म होने पर छोटे भाई को कश्ट होता है।
       ज्येश्ठ नक्षत्र के तृतीय चरण में जन्म होने पर माता को एवं चतुर्थ चरण में जन्म होने पर स्वयं को कश्ट होता है।
        यदि रविवार या बुधवार के दिन पडने वाले ज्येश्ठा नक्षत्र को जन्म हो तो कश्ट की सम्भावना कम हो जाती है।
5 मूल:- मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर जातक के पिता को कश्ट होता है। कन्या जातक को चैपाये जानवरों, किसी वाहन से दुर्घटना की सम्भावना रहती है।
         द्वितीय चरण में जातक की माता को कश्ट रहता है। कन्या का जन्म होने पर वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती है।
       तृतीय चरण में जन्म होने पर जातक को आर्थिक रूप से परेषानी उठानी पडती है। कन्या का जन्म होने पर वह पिता के लिये कश्टकारी होती है।
        चतुर्थ चरण में जन्म होने पर जातक सुखी रहता है लेकिन कन्या का जन्म हो तो माता के लिये कश्टकारक हेाती है। चतुर्थ चरण में उत्पन्न जातक या जातिका अपने ससुर के लिये कश्टकारक होती हैं।
         मूल नक्षत्र में उत्पन्न बालक एवं कन्या का घटी अनुसार षुभाषुभ

प्रथम 5 घटी 5 घटी 8 घटी 8 घटी 2 घटी 8 घटी 2 घटी 10 घटी 6 घटी 6 घटी
राज्य प्राप्ति पितृ कश्ट धन हानि कामचोर घात राज्य लाभ अल्पायु सुख व्यर्थ भ्रमण अल्पायु

6 रेवती नक्षत्र:- रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म होने पर राज्य की तरफ से मान-सम्मान एवं धन-लाभ की प्राप्ति, द्वितीय चरण जन्म होने पर राजकीय सेवा , सुख-षांति, तृतीय चरण में जन्म होने पर धन लाभ, सुख-षांति एवं चतुर्थ चरण में जन्म होने पर अत्यन्त कश्टमय जीवन व्यतीत होता है।
      रेवती नक्षत्र यदि बुधवार या रविवार के दिन पडे एवं उस दिन जन्म हो तो गण्डदोश कम हो जाता है। गण्ड नक्षत्रों में जन्म होने पर कब दोश का प्रभाव रहता है। इसके बारे मे आप इस प्रकार जान सकते हैं:-
1 अष्विनी नक्षत्र रविवार के दिन पडे एवं ज्येश्ठा व रेवती षनिवार या बुधवार को पडे तो गण्डदोश कम होता है।
2 गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा का लग्नेष या षुभग्रह से सम्बन्ध हो।
3 गण्ड नक्षत्र होने पर चन्द्रमा किसी षुभ भाव में हो।
 गण्ड नक्षत्र की षांति सूतक समाप्त होने पर करें। यदि उस समय सम्भव न हो तो पुनः जब नक्षत्र आये तब षांति करें। इसके अतिरिक्त जब सम्भव हो तब षीघ्र ही षांति कर लेनी चाहिये अन्यथा विवाह से पूर्व षांति अवष्य करें।
       जिस गण्ड नक्षत्र में जन्म हो उसके स्वामी ग्रह के मंत्र का जाप करना गण्डदोश षांति में सहायक होता है। बुध एवं केतु के नक्षत्र में जन्म लेने पर गण्डदोश बनता है। इसलिये जीवन में गण्डमूल प्रभाव कम हो, इसके निवारणार्थ गणपति उपासना करनी चाहिये। जातक स्वयं बुध एवं केतु के मंत्रों का जाप कर सकता हैं। इसकी विषिश्ट षांति हेतु किसी कर्मकाण्डी से परामर्ष कर सकते हैं। ब्राह्मण भोजन, गाय का दान, वस्त्र दान आदि जन्म नक्षत्र वाले दिन अपनी सामथ्र्य अनुसार करने पर भी गण्ड प्रभाव कम होता हैं। 
                                                                                      ज्योतिषाचार्य वागा राम परिहार
                                                                                      परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                                     मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई
                                                                                     जिला- सिरोही (राज.) 307512
                                                                                    मो. 9001742766

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

क्या हे शनि पाताल क्य़िा

क्या हे शनि पाताल क्य़िा
  यह एक विचित्र पय़ैग हे ईसके करने से शनि संबंधित समसत पीडा स्थाइ रुप से समप्त हो जाती हे इस क्रिया मे स्बसे पहले उत्तरा षाढा, पूषय या अनुराधा नक्षत्र मे शनि कि लौह प्रतिमा का निर्माण करे फिर पूजन एवं प्राण प्रतिषठा करे आप शनि देव के निम्न मन्त्र का ९२००० जप करेण्।  औम शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शं योरभि स्त्रवन्तुन जाप का दशांश हवन करे इसके बाद ऐसे स्धान पर गड्ढा खोदे जहा  से स्वयम को कभी  गुजरना नही पडे इसके पश्चात शनि प्रतिमा को उल्टा सुला दे और गड्ढे को समतल कर दे इस तरह शनिदेव का मूंह पाताल की तरफ होने से ही इस क्रिया को शनि पाताल क्य़िा कहते है

सोमवार, 8 जुलाई 2013

शनि और रोग


ज्योतिष के अनुसार रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जनम समाय मंे किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष पर पापग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप दृष्टि,पापग्रहों की राशि एवं नक्षत्र में उपस्थित होना, पापग्रह अध्ष्ठिित राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है। इन रोगकारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। प्रत्येक ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अंगो का प्रतिनिधित्व करते है।
भाव मंजरी के अनुसार-
कालस्य मौलिः क्रिय आननं गौर्वक्षो नृयुग्मो हृदयं कुलीरः ।
का्रेडे मृगेन्दोेथ कटी कुमारी अस्तिस्तुला मेहनमस्य कौर्पिः।।
इरूवास उरू मकरश्र जानु जंघे घटोेन्त्यश्ररणौ
प्रतीकान्।
सच्´िन्तयेत्कालनरस्य सूतौ पुष्टान्कृशान्नुः
शुभपापयोगात्।
अर्थात मेष राशि सिर में, वृष मुंह में , मिथुन छाती में, कर्क ह्नदय में, सिंह पेट में, कन्या कमर में, तुला बस्ति में अर्थात पेडू में, वृश्च्कि लिंग में , धनु जांघो में, मकर घुटनों में, कंुभ पिंण्डली में तथा मीन राशि को पैरो में स्थान दिया गया है। राशियों के अनुसार ही नक्षत्रों को उन अंगो में स्थापित करने से कल्पिम मानव शरीराकृति बनती है।

इन नक्षत्रों व राशियों को आधार मानकर ही शरीर के किसी अंग विशेष में रोग या कष्ट का पूर्वानुभान किया जा सकता है। शनि तमोगुणी ग्रह क्रुर एवं दयाहीन, लम्बे नाखुन एवं रूखे-सूखे बालों वाला, अधोमुखी, मंद गति वाला एवं आलसी ग्रह है। इसका आकार दुर्बल एवं आंखे अंदर की ओर धंसी हुई है। जहां सुख का कारण बृहस्पति को मानते है। तो दुःख का कारण शनि है। शनि एक पृथकत्ता कारक ग्रह है पृथकत्ता कारक ग्रह होने के नाते इसकी जन्मांग में जिस राशि एवं नक्षत्र से सम्बन्ध हो, उस अंग विशेष में कार्य से पृथकत्ता अर्थात बीमारी के लक्षण प्रकट होने लगते हैंै। शनि को स्नायु एवं वात  कारक ग्रह माना जाता है । नसों वा नाडियों में वात का संचरण शनि के द्वारा ही संचालित है। आयुर्वेद में भी तीन प्रकार के दोषों से रोगों की उत्पत्ति मानी गई है। ये तीन दोष वात, कफ व पित्त है। हमारे शरीर की समस्त आन्तरिक गतिविधियां वात अर्थात शनि के द्वारा ही संचालित होती है।
आयुर्वेद शास्त्रों में भी कहा गया हैः-
पित्त पंगु कफः पंगु पंगवो मल धातवः।
वायुना यत्र नीयते तत्र गच्छन्ति मेघवत्।।
अर्थात पित्त, कफ और मल व धातु सभी निष्क्रिय हैं। स्वयं ये गति नहीं कर सकते । शरीर में विद्यमान वायु ही इन्हें इधर से उधर ले जा सकती है। जिस प्रकार बादलों को वायु ले जाती है।  यदि आयुर्वेद के दृष्टिकोण से भी देखा जाये तो वात ही सभी कार्य समपन्न करता है। इसी वात पर ज्योतिष शास्त्र शनि का नियंत्रण मानता है। शनि के अशुभ होने पर शरीरगत वायु का क्रम टूट जाता है। अशुभ शनि जिस राशि, नक्षत्र को पीडीत करेगा उसी अंग में वायु का संचार अनियंत्रित हो जायेगा, जिससे परिस्थिति अनुसार अनेक रोग जन्म ले सकते है। इसका आभास स्पष्ट है कि जीव-जन्तु जल के बिना तो कुछ काल तक जीवित रह सकते है, लेकिन बीना वायु के कुछ मिनट भी नहीं रहा जा सकता है। नैसर्गिक कुण्डली में शनि को दशम व एकादश भावों का प्रतिनिधि माना गया है। इन भावो का पीडित होना घुटने के रोग , समस्त जोडों के रोग , हड्डी , मांसपेशियों के रोग, चर्च रोग, श्वेत कुष्ठ, अपस्मार, पिंडली में दर्द, दाये पैर, बाये कान व हाथ में रोग, स्नायु निर्बलता, हृदय रोग व पागलपन देता है। रोगनिवृति भी एकादश के प्रभाव में है उदरस्थ वायु में समायोजन से शनि पेट मज्जा को जहां शुभ होकर मजबुत बनाता है वहीं अशुभ होने पर इसमें निर्बलता लाता है। फलस्वरूप जातक की पाचन शक्ति में अनियमितता के कारण भोजन का सहीं पाचन नहीं है जो रस, धातु, मांस, अस्थि को कमजोर करता है। समस्त रोगों की जड पेट है। पाचन शक्ति मजबुत होकर प्याज-रोटी खाने वालो भी सुडौल दिखता है वहीं पंचमेवा खाने वाला बिना पाचन शक्ति के थका-हारा हुआ मरीज लगता है। मुख्य तौर पर शनि को वायु विकार का कारक मानते है जिससे अंग वक्रता, पक्षाघात, सांस लेने में परेशानी होती है। शनि का लौह धातु पर अधिकार है। शरीर में लौह तत्व की कमी होने पर एनीमिया, पीलिया रोग भी हो जाता है। अपने पृथकत्ता कारक प्रभाव से शनि अंग विशेष को घात-प्रतिघात द्वारा पृथक् कर देता है। इस प्रकार अचानक दुर्घटना से फे्रकच्र होना भी शनि का कार्य हो सकता है। यदि इसे अन्य ग्रहो का भी थोडा प्रत्यक्ष सहयोग मिल जाये तो यह शरीर में कई रोगों को जन्म दे सकता है। जहां सभी ग्रह बलवान होने पर शुभ फलदायक माने जाते है, वहीं शनि दुःख का कारक होने से इसके विषय मंे विपरित फल माना है कि-
आत्मादयो गगनगैं बलिभिर्बलक्तराः।
दुर्बलैर्दुर्बलाः ज्ञेया विपरीत शनैः फलम्।।
अर्थात कुण्डली में शनि की स्थिति अधिक विचारणीय है। इसका अशुभ होकर किसी भाव में उपस्थित होने उस भाव एवं राशि सम्बधित अंग में दुःख अर्थात रोग उत्पन्न करेगा। गोचर में भी शनि एक राशि में सर्वाधिक समय तक रहता है जिससे उस अंग-विशेष की कार्यशीलता में परिवर्तन आना रोग को न्यौता देना है। कुछ विशेष योगों में शनि भिन्न-भिन्न रोग देता है।
आइये जानकारी प्राप्त करें।
सर्वाधिक पीडादायक वातरोग  
1 छठा भाव रोग भाव है। जब इस भाव या भावेश से शनि का सम्बन्ध बनता है तो वात रोग होता है।
2 लग्नस्थ बृहस्पति पर सप्तमस्थ शनि की दृष्टि वातरोग कारक है।
3 त्रिकोण भावों में या सप्तम में मंगल हो व शनि सप्त्म में हो तो गठिया होता है।
4 शनि क्षीण चंद्र से द्वादश भाव में युति करें तो आथ्र्रराइटिस होता है।
5 छठे भाव में  शनि पैरोें में कष्ट देता है।
6 शनि की राहु मंगल से युति एवं सुर्य छठे भाव में हो तो पैरों में विकल होता है।
7 छठे या आठवें भाव में शनि, सुर्य चन्द्र से युति करें तो हाथों में वात विकार के कारण दर्द होता है।
8 शनि लग्नस्थ शुक्र पर दृष्टि करें तो नितम्ब में कष्ट होता है।
9 द्वादश स्थान मंे मंगल शनि की युति वात रोग कारक है।
10 षष्ठेश व अष्टमेश की लग्न में शनि से युति वात रोग कारक है।
11 चंद्र एवं शनि की युति हो एवं शुभ ग्रहों की दृष्टि नहीं हों तो जातक को पैरों में कष्ट होता हैं।
                 उदर रोगः
उदर विकार उत्पत्र करने में भी शनि एक महत्वपुर्ण भुमिका निभाता हैं। सूर्य एवं चन्द्र को बदहजमी का कारक मानते हैं, जब सूर्य या चंद्र पर शनि का प्रभाव हो, चंद्र व बृहस्पति को यकृत का कारक भी माना जाता है। इस पर शनि का प्रभाव यकृत को कमजोर एवं निष्क्रिय प्रभावी बनाता हैं। बुध पर शनि के दुष्प्रभाव से आंतों में खराबी उत्पत्र होती हैं। वर्तमान में एक कष्ट कारक रोग एपेण्डीसाइटिस भी बृहस्पति पर शनि के अशुभ प्रभाव से देखा गया है। शुक्र को धातु एवं गुप्तांगों का प्रतिनिधि माना जाता हैं। जब शुक्र शनि द्वारा पीडि़त हो तो जातक को धातु सम्बंधी कष्ट होता है। जब शुक्र पेट का कारक होकर स्थित होगा तो पेट की धातुओं का क्षय शनि के प्रभाव से होगा। शनिकृत कुछ विशेष उदर रोग योगः-
1 कर्क, वृश्चिक, कुंभ नवांश में शनिचंद्र से योग करें तो यकृत विकार के कारण पेट में गुल्म रोग होता है।
2 द्वितीय भाव में शनि होने पर संग्रहणी रोग होता हैं। इस रोग में उदरस्थ वायु के अनियंत्रित होने से भोजन बिना पचे ही शरीर से बाहर मल के रुप में निकल जाता हैं।
3 सप्तम में शनि मंगल से युति करे एवं लग्रस्थ राहू बुध पर दृष्टि करे तब अतिसार रोग होता है।
4 मीन या मेष लग्र में शनि तृतीय स्थान में उदर मंे दर्द होता है।
5 सिंह राशि में शनि चंद्र की यूति या षष्ठ या द्वादश स्थान में शनि मंगल से युति करे या अष्टम में शनि व लग्र में चंद्र हो या मकर या कुंभ लग्रस्थ शनि पर पापग्रहों की दृष्टि उदर रोग कारक है।
6 कुंभ लग्र में शनि चंद्र के साथ युति करे या षष्ठेश एवं चंद्र लग्रेश पर शनि का प्रभाव या पंचम स्थान में शनि की चंद्र से युति प्लीहा रोग कारक है।
     
कुष्ठ रोगः
ज्योतिष शास्त्रों में कुष्ट रोग के कुछ योग दिये हुये है। इस प्रकार के योग कई कुण्डलियों में होते भी हैं लेकिन उसको इस योग से कोई पीडा़ नही हुई। साधारणतया इस स्थिति मंे शनि की कारक ग्रहों पर युति का प्रभाव एवं कारक ग्रहों के बलाबल पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है। इन ग्रहों के कुछ शुभ प्रभाव से कुष्ठ तो नहीं होंगा लेकिन वात के सूक्ष्म प्रभाव के कारण दाग,दाद,छाजन, फोडे-फुंसी व एक्जीमा का प्रकोप समझना चाहिए। ये योग निम्न है-
1 शनि की मंगल व सूर्य से युति रक्त कुष्ठ होता है।
2 लग्न में शनि षष्ठेश से युति करे तो कफ विकार जनित कुष्ठ होता है।
3 सिंह व कन्या लग्न में शनि सूर्य की युति लग्न में हो तो रक्त कुष्ठ होता है।
4 शनि की मेष या वृषभ राशि में युति चन्द्र मंगल से हो तो सफेद कुष्ठ होता है।
5 शनि कर्क या मीन राशि में चन्द्र मंगल शुक्र से युति करे तो रक्त कुष्ठ होता है।
6 शनि सूर्य से युति करे तो कृष्ण कुष्ठ होता है।
7 शनि चन्द्र की नवम में युति दाद रोग कारक है।
8 जल राशिस्थ द्वितीयस्थ चन्द्र पर शनि की दृष्टि दाद रोग देती है।
हृदय रोगः
 हृदय को स्वस्थ बनाये रखने हेतु सूर्य एवं चंद्र व इनकी राशियों पर शुभ प्रभाव आवश्यक है। इस दृष्टि में शुक्र हृदय को मजबूती देता हैं उच्चस्थ शुक्र वाला जातक दृढ दिलवाला होता है। जब इन सभी कारकोें,भाव चतुर्थ व पंचम व इनके भावेशों पर शनि का अशुभ प्रभाव पडता हैं तो जातक हृदय विकार से ग्रसित होता हैं। हृदय विकार के प्रमुख शनिकृत ज्योतिष योग:-
1 चतुर्थ में शनि हृदय रोग कारक है। यदि बृहस्पति व चंद्र भी शनि से पीडित हो तो हृदय रोग भी तीव्र होता है।
2 मीन लग्न में शनि चतुर्थ में हो एवं सूर्य पीडित हो तो हृदय रोग होता है।
3 चतुर्थ भावस्थ शनि बृहस्पति व मंगल से युति करे तो हृदय रोग होता है।
4 षष्ठेश शनि चतुर्थ भाव में पापयुक्त हो तो हृदय रोग होता है।
अन्य रोग
1 सूर्य व शनि किसी भी प्रकार से सम्बन्ध करें तो खांसी होती है।
2 चतुर्थेश के साथ शनि युति करे व मंगल की दृष्टि हो तो पत्थर से घात होता है।
3 मकर लग्न में शनि चतुर्थ में पापग्रहों से युति करें तो जल घात होता है।
4 मेष,वृश्चिक,कर्क या सिंह राशि में शनि शुक्र से युति हाथ-पैर कटने का योग बनाते है।
5 शनि पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो बवासीर रोग होता है।
6 लग्नस्थ शनि पर सप्तमस्थ मंगल दृष्टि कर तो बवासीर होता है।
7 सप्तम में शनि , वृश्चिक में मंगल व लग्न में सूर्य हो तो बवासीर रोग होता है।
8 शनि बारहवें भाव में हो एवं लग्नेश व मंगल सप्तम हो तो भी बवासीर रोग होता है या लग्न्ेाश या मंगल देखे तब भी बवासीर होता है।
9 मिथुन या कर्क लग्न में शनि पर राहु केतु का प्रभाव चातुर्थिक ज्वर कारक है।
10 शनि चन्द्र पर मंगल की दृष्टि हो तो पागलपन होता है।
11 छठे या आठवे भाव में शनि मंगल से युति करें तब पागलपन होता है।
12 चंद्र शनि की युति पर मंगल की दृष्टि हो तो उसे किसी पूर्व रोगी के कारण सम्पर्क क्षय होता है।
13 लग्न पर मंगल शनि की दृष्टि भी क्षयरोग कारक है।
14 छठे या द्वादश भाव में शनि मंगल से युति करें तो गण्डमाला रोग होता है।
15 लग्नस्थ शनि सूर्य पर चंद्र शुक्र की दृष्टि गुप्तांग काटने का योग बनता है।
16 शनि चंद्र से युति कर मंगल से चतुर्थ या दशम में हो तो संभोग शक्ति में कमी होती है।
17 लग्न में शनि धनु या वृषभ राशि में हो तो अल्प काम शक्ति होती है।
18 नेत्र स्थान में पापग्रह शनि से दृष्ट हो तो रोग से आंखें नष्ट होती है।
19द्वितीयेश व द्वादशेश शनि, मंगल व गुलिक से युति करें तो नेत्र रोग होता है।
20 लग्नगत  सिंह राशि में सूर्य चंद्र पर शनि मंगल की दृष्टि से आंखें नष्ट होती है।
21 पंचम में शनि बृहस्पति से युति करें एवं लग्न में चंद्र हो तो धातुरोग होता है।
22 षष्ठेश त्रिक स्थानों में शनि से दृष्ट हो तो बहरापन होता है।
23 शनि से चतुर्थ में बुध व षष्ठेश त्रिक में हो तों व्यक्ति बहरा होता है।
24 शनि सूर्य चंद्र के साथ सप्तम में युति करें तो दंतरोग होता है।
25 मकर या कुंभ लग्नस्थ शनि हो तो जातक गंजा होता हैं
26 अष्टमस्थ शुक्र पर शनि राहू की दृष्टि मधुमेह रोग कारक है।
27 धनु और मकर लग्न में शनि त्रिक भावों में बृहस्पति से युति करे तो जातक गंूगा होता है।
28 लग्न में शनि सूर्य, मंगल से युति करे तो कामला रोग होता है अर्थात शनि का किसी भी ग्रह के साथ युति दृष्टि द्वारा सम्बन्ध बनाना जातक को उस ग्रह विशेष के कारकत्व में कमजोरी लाकर कमजोर बनाता है।
शनिकृत रोगों को दूर करने हेतु कुछ सामान्य एवं प्रभावी उपाय निम्नलिखित है-
शनि मुद्रिका शनिवार के दिन शनि मंत्र का जाप करते हुये धारण करें। काले घोडे की नाल प्राप्त कर घर के मुख्य दरवाजे परके ऊपर लगायें।
ब्ीसा यंत्र से नीलम जडकर धारण करें। शनि यंत्र को शनिवार के दिन, शनि की होरा में अष्टगंध में भोजपत्र पर बनाकर उडद के आटे से दीपक बनाकर उसमें तेल डालकर दीप प्रज्जवलित करें। फिर शनि मंत्र का जाप करते हुये यंत्र पर खेजडी  के फुल पत्र अर्पित करें। तत्पश्चात इसे धारण करने से राहत मिलती हैं।
उडद के आटे की रोटी बनाकर उस पर तेल लगायें। फिर कुछ उडद के दाने उस पर रखें। अब रोगी के उपर से सात बार उसारकर शमशान में उसे रख आयें। घर से निकालते समय व वापिस घर आते समय पीछे कदापि नही देखें एवं न ही इस अवधि में किसी से बात करें। ऐसा प्रयोग 21 दिन करने से राहत मिलती है। पूर्ण राहत न मिलने की स्थिति में इसे बढाकर 43 या 73 दिन तक बिना नागा करें। केवल पुरूष ही प्रयोग करें एवं समय एक ही रखें।
मिट्टी के नये  छोटे घडे में पानी भरकर रोगी पर से सात बार उसार कर उस जल से 23 दिन खेजडी को सींचें। इस अवधि में रोगी के सिर से नख तक की नाप का काला धागा भी प्रतिदिन खेजडी पर लपेटते रहें। इससे भी जातक को चमत्कारिक ढंग से राहत मिलती हैं।
सात शनिवार को बीसों नाखूनों को काटकर घर पर ही इकट्ठे कर लें। फिर एक नारियल, कच्चे कोयले, काले तिल व उडद काले कपउे में बांधकर शरीर से उसारकर किसी बहते पवित्र जल में रोगी के कपडों के साथ प्रवाहित करें। यदि रोगी स्वंय करे तो स्नान कर कपउे वहीं छोड दें एवं नये कपउे पहन कर घर पर आ जाये। राहत अवश्य मिलेगी।
किसी बर्तन में तेल को गर्म करके उसमें गुड डालकर गुलगुले उठने के बाद उतार कर उसमें रोगी अपना मुंह देखकर किसी भिखारी को दे या उडद की बनी रोटी पर इसे रखकर भैंसे को खिला दे। शनिकृत रोग का सरलतम उपाय हैं।
एक नारियल के गोले में घी व सिंदुर भरकर उसे रोगी पर रखकर शमशान में रख आयें। पीछे नहीं देखना हैं तथा मार्ग में वार्तालाप नहीं करें। घर आकर हाथ-पैर धो लें।
शनि के तीव्रतम प्रकोप होने पर शनि मंत्र का जाप करना, सातमुखी रूद्राक्ष की अभिमंत्रित माला धारण करना एवं नित्य प्रति भोजन में से कौओं, कुत्ते व काली गाय को खिलाते रहना, यह सभी उपाय शनि कोष को कम करते हैं। इन उपायों को किसी विदृान की देख-रेख या मार्गदर्शन में करने से वांछित लाभ मिल सकता है। शमशान पर जाते समय भय नहीं रखें। तंत्रोक्त धागा पहन कर भी जानने से दुष्ट प्रवृतियां कुछ नही कर पाती हैं।
परिहार ज्योतिष अनुसंधान केन्द्र
                                                                 मु. पो. आमलारी, वाया- दांतराई                                                                                    

रोग निवारण में रत्नों का योगदान


औषधि मणि मन्त्राणां ग्रह नक्षत्र तारिका                                
 भाग्यकाले भवेत्सीद्वि अभाग्यं निष्फलं भवेत।।                          
  अर्थात औषधि रत्न एंव मंत्र चिकित्सा अनुकुल भाग्य होने पर अच्छा फल देती हैं लेकिन प्रतिकुल भाग्य होने पर इसका प्रभाव नहीं रहता। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाये तो अनुकुल भाग्य होने पर औषधि रत्न एंव मंत्र पूर्णयता फल देने में समर्थ होते हैं लेकिन प्रतिकुल भाग्य होने पर औषधि रत्न एंव मंत्र सर्वप्रथम ग्रहों के प्रतिकूल प्रभाव को नष्ट करने के कारण उनका फल स्पष्ट रुप से दिख नहीं पाता लेकिन फल अवश्य प्राप्त होता हैं। ग्रह प्रतिकूल होने पर औषधियां भी अनूकूल फल प्रदान नहीं कर पाती क्योंकि ग्रह औषधियों के गुण को भी नष्ट करने की सामथ्र्य रखते है। औषधि चिकित्सा प्रभावी न होने पर रत्न चिकित्सा ही कारगर मानी गई हैं । चरक संहिता में भी रोग निदान हेतु रत्नो का प्रयोग करने का निर्देंश हैं । आइये कौन-सा रत्न किस रोग के उपचार में प्रभावी है।                 (1)माणिक्यः-माणिक्य को सूर्य ग्रह का रत्न माना जाता है। सूर्य को हृदय का कारक ग्रह माना जाता है इसलिये हृदय रोग से पीडित व्यक्तियों हेतु माणिक्य रत्न परम उपयोगी हैं। रक्त संचरण सम्बंधी रोग नैत्र रोगो अर्थात रतौंधी आत्मविश्वास ज्वर आदि रोगो के उपचार में परम उपयोगी हें।                                                                                         (2)मोतीः-मोती को चंद्र रत्न माना जाता हैं चंद्र को मन का कारक माना जाता है। इसलिये मानसिक तनाव पागलपन उच्च रक्तचाप निद्रां क्षय रोग जीर्णता खाँसी आदि रोगों के उपचार हेतु मोती धारण करना ही समझदारी हैं।                                                                                                                                                  (3)मूँगाः-मूँगा को मंगल का रत्न माना जाता है। आलस्य तेज ज्वर अग्नि मंदता रक्तस्त्राव चेचक फोडे-फुंसियाँ अग्नि दुर्घटना अण्डवृ़़़द्वि अण्डकोष में पानी उतरना आदि रोगो में मूँगा धारण करना चाहिए।                            (4)पन्नाः-पन्ना को बुध का रत्न माना जाता हैं इसलिये मानसिक रोग बु़द्धि ज्वर त्वचा रोग सफेद दाग-धब्बे बदहजमी कुष्ठ रोग बावासीर स्नासुविकार हकलाहट आंत्र रोग त्रिदोषज रोगो में पन्ना धारण करना चाहिये ।  
(5)पुखराजः-पुखराज को बृहस्पति का रत्न माना जाता हैं। इसलिये पित्त विकार तिल्ली वृद्वि एपेन्डिसाइटिस यकृत रोग आंत्र विकार चक्कर आना हरनिया कर्ण विहार गर्भपात एसिडिटी आदि में पुखराज धारण करने से लाभ प्राप्त होता हैं। 
(6)हीराः- हीरा को शुक्र का रत्न माना जाता हैं। सभी प्रकार के मूत्र संस्थान सम्बंधी रतिक्रिया सम्बंधी रोग मधुमेह शोथ विकार शुक्राणुओं एवं अण्डाणुओं की कमी प्रमेह आदि रोगो में हीरा धारण करने से लाभ होता हैं। 
(7)नीलमः-नीलम को शनि का रत्न माना जाता है। इसलिये लकवा गठिया यकृत वृ़़द्वि जोडों के रोग मानसिक असंतुलन दमा कब्ज किसी भी प्रकार का वायु विकार हिचकी आदि में नीलम धारण करना लाभप्रद हैं। 
(8)गोमेदः-गोमेद को राहु का रत्न माना जाता है। इसलिये मिर्गी चेचक भुत-प्रेत बाधा मिचली क्षयरोग हिचकी वमन पागलपन भ्रमरोग भय विष विकार कुष्ट रोग तत्रं बाधा एंव किसी भी प्रकार की आक्समिक व्याधि होने पर गोमेद धारण करना चाहिये । 
(9)लहसूनियाः-लहसूनिया केतु का रत्न माना जाता हैं। इसलिये खुजली खसरा कुष्ट रोग रक्त विकार आदि में लहसुनिया धारण करना उत्तम रहता हैं। पथरी कब्जियत नींद न आना बुरे-बुरे स्वप्न एंव विचार नींद न आने पर भी धारण करें। इसके अतिरिक्त हकलाहट हेतु हरि तुरमली स्वप्नदोष हेतु ओपल मनःस्ताप हेतु चन्द्रकांत मणि श्वेत तुरमली पाण्डु उदर रोग क्षय प्रमेह वीर्य विकार किडनी स्टोन गुर्दे सम्बंधित किसी भी प्रकार की परेशानी हेतु पित्तोनिया पित्त विकार हेतु क्रिसोप्रेज वृक्क मूत्राशय नजर दोष जोडो का दर्द व शोथ हेतु संगें यशब धारण, हृदय कम्पन, तंत्र ्िरकया व नजर दोस हेतु, मानसिक रोगों व अपस्मार मे जद्द, पित्त रोगो मे मरगज, रात्रि ज्वर होने पर शताश्यक धारण करना चाहिए। रत्न धारण करते समय वह अवश्य ध्यान रखे कि रत्न किसी भी प्रकार के दोष से युक्त न हो। षष्ठेश, अष्ठमेश,व द्वादशेश होने पर सम्बंधित रत्न धारण नहीं करे। इसके अलावा द्वितीयेश, तृतीयेश सप्तमेश व एकादशेश का रत्न भी धारण करते समय विशेष सावधानी बरते। जहा तक हो सके संम्बधित ग्रह के मंत्र से रत्न को पूरित अवश्य करे

                                         
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